Tuesday, September 9, 2008

मेरी डायरी के पन्ने भाग ३

एक पतला सा पानी का सांप ,पानी की सतह से तीन चार इंच ऊपर फ़न उठाये खड़ा था .हरहरा कर आती गंगा की लहरें उसे उखाड़ फ़ेकने का पूरा प्रयत्न करतीं और हर प्रहार से कांप कांप जाता उसका दुबला सा शरीर पर अगले ही पल एक नये निश्चय से फ़िर तन कर खड़ा हो जाता था वह.अपने अस्तित्व की सत्ता को बचाने का उसका यह संघर्ष बेहद प्रेरक था .हर लहर मानो यह कहती हुई आती थी कि तू मेरा आश्रित हो मुझसे अलग ,मुझसे ऊपर दिखने ्का साहस कैसे कर रहा है और हर झटके को पूरे साहस वह ,यह कहता प्रतीत होता ,किसी को आश्रय देने का अर्थ उसके अस्तित्व को मिटाना या नकारना नहीं होता .यह ठीक है कि तुम्हारे आंचल मे हमारा जीवन है किंतु मैं अपने ’मैं’ को तुममे कैसे विलय कर दूं .
कभी ऐसा लगता कि चारों ओर से उसे घेरती लहरें मानो विषम परिसिथितियों का झं झावत हो जो अपने नागपाश में लपेट उसे पछाड़ देने को उद्दत हों और हर वार लहरा कर सीधी होती उसकी काया ,यह कहती थी ,तुम हमसे अधिक शक्तिशाली हो किंतु मेरा मनोबल ,मेरी अपने अंदर बसती सम्भावनाओं के प्रति आस्था इतनी कमजोर नहीं कि तुम मुझे इतनी आसानी से उखाड़ फ़ेकने मे सफ़ल हो सको .यह भी हो सकता है कि अंत में तुम मुझे लील जाने में सफ़ल हो जाओ पर बिना संघर्ष के सम्र्पण कर दूं ,इतना कम्जोर मैं नहीं .उस नन्ह ेसे जीव का संघ्र्ष हमें विमुग्ध कर गया.मात्र मुग्ध ही नहीं बहुत कुछ दे गया .तुष्टि से उपजी शिथिलता ,्जिसमे कहीं शायद पलायन का भाव भी था रोज्मर्रा के जीवन की उठापटक से ,को झटक कर खड़े हो गये हम.चारो ओर द्रिष्टि घुमा कर अंदर तक उतारा द्रिश्यों को.एक बार देखा सामने धूप में चमकते मंदिरों के कलश को और फ़िर द्रिष्टि जमा दी उस सांप पर.मन मे ढेर सारी स्रद्धा भर सर झुकाया अपने प्रेरणा पुंज को और एक नये विश्वास से चल पड़े हम हाथ पकड़ कर.