Friday, December 21, 2012

देवा मेले में बचपन

देवा मेले में अधिकांश भीड़ आस पास के ग्रामीण अंचलों से आती है। चाहे मेले में दस दिन तक लगने वाली दुकानों को लेकर आये दुकानदारों के परिवार हों या फ़िर मेला घूमने आये परिवार,  सबमें बच्चे होते हैं और मेरे लिये ये बच्चे इस मेले का बहुत बड़ा आकर्षण थे। उनका भोलापन, उनकी उत्सुक्ता, उन्मुक्तता और बिना किसी बनावटीपन के निखालिस स्वाभाविक आचरण जैसे हमे जीवन के और करीब ले आये।
मेले में जी गयी इन कही अनकही कहानियों को हमने अपने मन में पर्त दर पर्त वैसे ही सहेजा जैसे कभी छत पर, रास्ते पर कहीं भी पड़े मिल जाते चिड़ियों के लाल-पीले-धानी-गुलाबी पंखों को किताब के पन्नों में, मुलायम हाथों से धीरे से दबा कर रखते थे। कितना अनमोल खजाना होते थे वो पंख, जो हमारे लिये इंद्रधनुष को जमीन पर उतार लाते थे और फ़िर सहेलियों के झुरमुट के बीच किसी तिलस्मी खजाने को चाभी लगाने जैसी गर्व मिश्रित खुशी से जब आहिस्ता से किताब का पेज पलटा जाता था,  तो बाकी सखियों के मुंह से निकलती वह आह, उनकी आंखों से टपकती खुशी के पीछे कहीं दबी हल्की सी ईर्ष्या और चाह,  भीतर तक अमीर कर जाती थी। बिना बांटे खुशियां अधूरी रह जाती हैं न, तो फ़िर चलें मेले के उन क्षणों को एक बार फ़िर से जीने। तो हम अब पन्ने खोलना शुरु करते हैं,



इस तस्वीर में यूं कुछ खास नहीं लग रहा है न। है भी आम सभी मेलों में दिखने वाले दृश्यों की तरह का एक दृश्य। बड़े बड़े झूले और झूलों में झूलते बच्चे।  पर सामने यह जो झूला दिख रहा है न,  इसमें मिला हमें अपना पहला रंगीन पंख।  इसमें छोटी-छोटी कारें थीं, गोल गोल चक्कर में तेजी से घूमने वाली। इन्हीं में से एक में बैठे थे एक छोटे से साहबजादे। बिल्कुल नयी नकोर चटक रंग की पूरी आस्तीन की कमीज, सबसे ज्यादा ध्यान खींच रहीं थी मोटे मोटे काजल से अंजी आंखें। आंखों के नीचे से मोटी सी काजल की लकीर आंखो के कोनों से कान की ओर खिंची हुयी। अपनी विषेश रूप से हुयी साज सज्जा का पूरा एह्सास था उन्हें और जब झूले की कार पर बैठाला झूले वाले ने,  तो स्टियरिंग को दोनों हाथों से पकड़ कर थोड़ा तन कर बैठते हुये, मुस्कुरा कर देखा उन्होंने घेरे से बाहर खड़े अपने पिता और माता जी को। रूके हुये झूले पर बैठे साहबजादे का अन्दाज देख ऐसा लग रहा था कि सारी दुनिया उनके ठेंगे पर। क्या अकड़ थी, क्या रोब था। एक आध बच्चों के और बैठने पर झूला चलना शुरु हुआ। झूले के गोल गोल घूमना शुरु करते ही उनके चेहरे के भाव बदलने लगे। भीतर उठते डर के बगूले को वह भरसक दबाने का प्रयास कर रहे थे पर जैसे जैसे झूले की गति बढ़ती जा रही थी और किनारे खड़ी मम्मी धुंधलाती जा रही थी, साहस का दामन भी हाथ से छूटता जा रहा था। बड़े वेग से फ़ूटती चली आ रही रुलाई को भीतर ही भीतर दबाने के सारे प्रयास विफ़ल हो रहे थे। मुंह से निकल बाहर आने को बेताब चीखों को तो उन्होंने किसी तरह दबा रखा था पर ये बेमुराद आंसू नहीं माने तो नहीं माने और काजल की देहरी तोड़ गालों तक लुढ़क ही आये और जैसे ही रुकने के लिये धीमा हुआ झूला और पापा के बढे हाथों ने थामा उन्हें,  बुक्का फ़ाड़ के रो पड़े बच्चू मियां गले मे बांहे डाल, छाती से चिपट--न झूला, न मेला, न कार, सबसे ऊपर पापा की गोदी, मम्मी का प्यार। 

ये परिवार मेले में अपनी छोटी सी दुकान लगाये हुआ था। देवा मेला दोपहर से शुरु होता है और लगभग पूरी रात चलता है। दुकानें भी पूरी रात खुली रहती हैं। हम लोग जब मेले में पंहुचे थे तब कुछ दुकानें खुल चुकी थीं और कुछ खुलने की तैयारी में थीं। ये मां भी बच्चों को तैयार कर रही थी क्योंकि मेले में आमद रफ़्त होने लगी थी। बचपन दो कदम पीछे ठिठकने लगे और सामने से किशोरावस्था लुक-छिप आवाज देने लगे तो लड़कियों का आइने से इश्क दीगर सी बात हो जाती है। हमारी इन मुनिया रानी का भी कुछ ऐसा ही दौर शुरु हो गया है। भाई को लगा कि दीदी तो शीशे में खुद से मुखातिब है तो मौके का फ़ायदा उठाया जाय और उसके हाथ का खिलौना पार कर लिया जाय पर दीदी की पकड़ खिलौने पर भी है और अपने चेहरे से नज़र हटाये नहीं हट रही। मां की नजर कैमरा फ़ोकस करते सुंदर पर पड़ी तो बच्चों के प्रति लाड़ और परिवार होने का सुख मन से होठों तक पसर गया।


इस गाड़ी के साथ मेले में आये थे और अभी-अभी खरीदा है ये हवाई जहाज। इस गाड़ी को यहां खड़खड़ा कहा जाता है और अम्मा बताती हैं कि पहले इसमें लकड़ी के चक्के लगते थे। अब तो बाबू ने टायर लगवा लिये हैं इसमें। सुनते हैं ऐसे ही बदलता है सब कुछ धीरे धीरे। देखो, आज ये हवाई जहाज हमारे हाथों में है और एक दिन हम किसी हवाई जहाज में होगें। सपनों को पंख देंगें तभी तो उड़ान भी मयस्सर होगी और आसमान भी.-----आमीन।

इस बच्ची ने तो सच मेरा दिल जीत लिया। इसकी दुकान में सजी रंग बिरंगी लिपिस्टिक, बिंदी, क्रीम, पाउडर की शीशियों और डिब्बों से ज्यादा आकर्षित कर ही थी यह नन्हीं सी बिजनेस वूमेन। बहुत सलीके से सजी संवरी यह गुड़िया अपनी दुकान की कन्वेसिंग बिना बोले ही कर रही थी।



इन दोनों को देखते ही हम बरबस मुस्कुरा उठे। हमें अपने बचपन के वे दिन याद आ गये जब हम बहनें एक जैसी ही प्रिंट वाली फ़्राक्स पहनते थे और ऐसा मोहल्ले के हर घर में होता था। एक साथ ही सब बच्चों के कपड़े बनते थे और वह भी त्योहारों या फ़िर किसी विशेष शादी -ब्याह के मौके पर। ये दोनों भी एक ही परिवार के बच्चे थे, सर से पांव तक एक ही तरह की साज सज्जा में लैस। इनके आकर्षण का केंद्र उस समय थीं वे घड़ियां जिन्हे घड़ी बेचने वाले ने पानी के टब में डाल रखा था यह साबित करने के लिये कि वे पानी में भीगने के बाद भी खराब नहीं होतीं। कुछ देर तक बहुत ध्यान और आश्चार्य से घड़ियों को देखने के बाद छोटे भाईजान कोई जुगाड़ सुझा रहे थे बड़े वाले को जिससे कम से कम एक घड़ी तो खरीद ही लें वे। बड़े वाले अपने पद की पूरी गरिमा के साथ खासे गम्भीर हो सुन रहे थे भाई की बात। बचपन का मन भी न, जंगल में लगी खट्टी- मीठी बेरी सा होता है- चंचल, चटपटा, अपने आप में खुश, इर्द-गिर्द फ़ैले कांटो और जंगल से बेखबर।     




इन बच्चों की वेश भूषा और तौर तरीकों ने बचपन में गांव मे आते गाड़िया लोहारों या कहें बंजारों की याद दिला दी। इनकी मातायें मेले में सामान बेचने आयीं थीं। छोटे छोटे प्लास्टिक के मनकों से ब्रेस्लेट आदि बना रही थीं। मेले की इस गली में सरकस, टेंट सिनेमा, जादूगर का खेल, मौत का कुंआ, नाच के कार्यक्रम आदि के तम्बू और स्टेज  लाइन से लगे हुये थे। बच्चों की मातायें इन्हीं के सामने जमीन पर कपड़ा बिछा अपना साजो सामान रख कर बैठी थीं और ब्रेस्लेट पुहती भी जा रहीं थीं और बेचती भी। ये बच्चे आस पास खेलते हुये घूम रहे थे। सरकस वाले तम्बू का आकर्षण उन्हें उसके बंद गेट तक खींच लाया। बाहर से अंदर चलता हुआ खेल तमाशा दिखायी तो नहीं पड़ता पर एक झलक पा जाने की कोशिश करने में क्या बुराई है और अगर जब कहीं किसी बीच जो कुछ थोड़ा सा दिख जाता है न तो उस आनंद का क्या कहना। थोड़े में ही खुश हो लेने की इन बच्चों की सामर्थ्य कितना कुछ सिखा जाती है।

मेले की इस लाइन में तम्बुओं में स्टूडियो सजे हुये थे। तम्बू के भीतर पर्दे और कटआउट की सहायता से एक कोने में आसमान जमीन पर उतारा गया था तो दूसरी ओर ढेर सारे प्लास्टिक के रंग बिरंगे फ़ूल-पत्तियों से बाग बगीचे सजाये गये थे। एक तरफ़ मोटरसाइकिल थी तो दूसरी ओर झूला। तरह तरह के बैकग्राउंड थे, आप किसी मे भी फोटो खिंचवाइये और दस मिनट में प्रिंट ले लीजिये। ये बच्चे भी मेले में छोटा मोटा समान बेचने आये परिवार के बच्चे थे। तम्बू स्टूडियो के बाहर बुकिंग काउन्टर पर शीशे के नीचे कुछ खींची गयी तस्वीरें लगी हुयी थी। ये बच्चे उन्हीं तस्वीरों को देख रहे थे, तम्बू मे लगा सिनेमा देखने को मिले य न मिले पता नहीं, पर जो मिल रहा है उसे तो देख ही लिया जाय। अभाव तो बहुत हैं पर धूसर फ़ैलाव में रंगों के छींटे मारने के तरीके भी अपने ही आप सीखने होते हैं।

जादूगर के खेल की एक झलक पाने के इनके तरीके का क्या कहना.ये बच्चे तो मेला देखने आये थे, लेकिन हर खेल तमाशा टिकट ले कर मां-बाप दिखा पायें इतनी उनकी सामर्थ्य नहीं है तो भला क्या हुआ...खाने को न मिल पाये तो क्या सूंघने के सुख को भी छोड़ दिया जाय। जमीन पर लेट कर जो भी थोड़ा बहुत दिख जाय, उसमें कुछ कल्पना के रंग चढा़ आने वाले कितने ही दिन तक इन सबकी बातें होंगीं।
 इनसे मिलिये। ये हाथ में जुगनू फ़िल्म की सीडी लिये उड़ी चली जा रही हैं। सीडी की पटरी वाली दुकान पर से ’जुगनू’ की रंगीन शक्सियत ही शायद सबसे ज्यादा लुभा गयी। भला कितनी समझ होगी फ़िल्म की, पर रंगीन चित्रों के आकर्षण में एक अबोली कशिश होती है। ये सीडी भी इस बच्ची के लिये किसी खजाने से कम नहीं थी---सपनों सी दुनिया का पासपोर्ट।
ये साहब पूरी सज धज के साथ मेला देखने आयी थीं, परिवार के साथ--बूट वूट, गॉगल्स वैगैरह से लैस। जमीन पर बिछी इस दुकान ने इन्हे आकर्षित किया और बैठ गयीं ये जांचने -परखने। वैसे दुकान थी भी अपनी ओर बर्बस खींचने वाली। रंग बिरंगी छोटी-छोटी प्लास्टिक तार से बुनी, लकड़ी के फ़्रेम वाली चारपाइयां और नन्हे नन्हे छाते। रंगों के साथ साथ चीजों का छोटा आकार भी उन्हें लुभावना बना रहा था। लग रहा था खास मेले के लिये बनाई गयी थी ये गुड्डे-गुड़िया वाली चीजें। भाई जब तक दुकानदार से बात-चीत मोल-भाव कर रहा था, तब तक छोटी बहन ने चारपाइयों का जायजा लेना शुरु कर दिया। रंगीन चश्मा आंखों पर चढा़ कर रंग कुछ ठीक से नहीं समझ में आ रहे थे, इसलिये चश्मा ऊपर सरकाया और फ़िर पूरी तन्मयता से जुट गयीं। मम्मी तब तक निर्विकार पास खड़ी थी। उनका रोल आने में अभी समय था।
मेले में कई तरह और कई स्तर की दुकाने थीं। बीच में चौड़ा रास्ता छोड़ दोनों ओर तम्बू के नीचे तख्तों पर लगी दुकाने थीं और बीच में ठेलों पर, जमीन पर कपड़ा बिछा कर छोटी-छोटी दुकानें थी। इसके अलावा हाथों में समान ले फ़ेरी लगा कर बेचते लोग भी थे। इस बच्ची का परिवार जमीन पर कपड़ा बिछा कर माला, मनके बेच रहा था। बच्ची आस-पास खेलती हुई घूम रही थी। कुर्ती में बंद करने को बटनें नहीं थीं, बालों में कंघी नही हुई थी लेकिन बिखरे हुये बालों में केश सज्जा का स्टाइल था और गले, हाथों में आभूषण। अपनी थोड़ी हट के वेश-भूषा से बच्ची के हाव भाव में न कोई झिझक झलक रही थी, न बाधा। यही है शायद बचपन का करिश्मा। कच्ची धरती में हरी दूब सी खुशियां खुद ब खुद भीतर से उगती हैं।
मिलिये इन माइ फ़ेअर लेडी से। चमकती हुई लेस, झालर वाली फ़्राकष चूड़ी, बुंदे, माला, जूते-मोजे, यहां तक कि एक पर्स भी हाथ में। पर इस मन का क्या करें वह तो गुड़िया के लिये मचल गया और यह अंगूठा भी बार बार मुंह तक पहुंच जाता है।
इनका ऑरेंज बार खाना देख कर तो हमारा भी जी ललचा गया। आइस्क्रीम से बूंदे टपकने लगीं तो पूरी समझदारी से उसके नीचे हाथ लगाया, अब वह बात अलग की छोटी सी हथेली कहीं और फ़ैली थी और बूंदे कहीं और टपक रहीं थीं। मम्मी का निहाल होना हमें भीतर तक भिगो गया।
और ये हंसी तो जैसे धूप में चांदनी बिखेर गयी, सूरज ने कैद से तितलियां आज़ाद कर दीं।



इन जनाब का कैमरे के लेंस को फ़ॉलो करने का अंदाज देख कर मजा आ गया। जिधर जिधर कैमरा घूम रहा था, ये खुद को लेंस के सामने रखने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे। फ़ोटो इस छोटी बच्ची की खींची जा रही थी जो कैमरे से शरमा कर छिपने की कोशिश में थी और जनाब को फ़ोकस से बाहर जाना नहीं था। बच्चे आस पास हो तो खुशियों खुद ब खुद उमगती चली आती हैं।
ये बच्चे मेले में दस दिनों के लिये बने अपने अस्थायी घर के पिछवाड़े थे। झिलगी खटिया, आधे-अधूरे कपड़े तो क्या.....बचपन की हंसी को भला कब बैसाखियों की जरूरत पड़ी है। .
अलग अलग परिस्थितियों में जीते, अलग अलग परिवेश से आये इन बच्चों के संग उनका बचपन जीना जैसे हमारी हथेली में जिंदगी के कुछ अतिरिक्त पल रख गया। खुश रह पाते हैं बच्चे क्योंकि वे भविष्य की चिंता में आज को नहीं गंवाते, न ही मन में शिकायतों की ढेरों गांठें होती हैं। उनकी खुशियों के दरवाजे उनके भीतर की ओर खुलते हैं। एक बात और शिद्दत से मह्सूस हुयी इस गंवई मेले में, जो बचपन माटी के जितने करीब होता है उसकी खुशबू भी उतनी ही सोंधीं होती है।

(सभी चित्र- सुंदर अय्यर)

Monday, December 10, 2012

देवा मेले का वह एक अश्व...

गांव के मेलों की अपनी एक अलग आत्मा होती है-माटी सी सोंधी,पानी सी तरल और हर मेले मे आने वाली भीड़ मे होती हैं अनगिनित कहानियां। यूं तो हमारे देश की जमीन पर से धीरे धीरे गांव ही अंतर्ध्यान जा रहे हैं तो फ़िर गांव वाले मेले भला कैसे बचे रह पांयेगे पर फ़िर भी अब भी बहुत सारे मेले नियमित रूप से लगते है। सच है कि बदलते समय के साथ इन मेलो का मिजाज भी काफ़ी हद तक शहरी होता जा रहा है लेकिन अब भी इनमे बहुत सारी ऐसी चीजें देखने को, बहुत कुछ ऐसा अनुभव करने को मिल जाता है जिन्हें अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में कहीं बहुत पीछे छोड़ आये हैं।
हाल ही में हमने भी ऐसे ही एक मेले में एक दिन गुजारा.इस बात को तकरीबन एक महीना तो होने जा ही रहा होगा पर न तो मेले की यादें धुंधलायीं हैं, न ही वो कहानियां भूली है। यह देवा शरीफ़ के उर्स पर लगने वाला दस दिन का मेला था।
बाराबंकी से तकरीबन 12 कि.मी. और लखनऊ से करीब 24 कि.मी. की दूरी पर देवा मे सैयद वारिस अली शाह की दरगाह है.इस दरगाह के प्रति सभी धर्मो के लोगो के मन मे समान रूप से आदर और श्रद्धा है।
दस दिनों तक चलने वाला यह मेला बहुत बड़े क्षेत्र मे फ़ैला होता है। इस मेले में पशुओं की खरीद फ़रोख्त का कारोबार काफ़ी बड़े पैमाने में होता है। नहर किनारे के मैदान के बड़े हिस्से में घोड़े बंधे हुये थे। घोड़ों के व्यापारी परिवार सहित मेले मे आते हैं पूरे दस दिनों के लिये। उन दिनों उनका घर टेंट मे होता है और चूल्हा खुले आसमान के तले।
घोड़े तो बहुत थे मैदान में पर इस एक घोड़े ने बरबस हमें अपनी ओर खींच लिया। चारों पैरों में रस्सियां बंधी थी, जिनका दूसरा सिरा जमीन पर गड़े खूंटों से मजबूती से बंधा था। एक रस्सी गर्दन मे भी थी। इतने बंधनों के बावजूद इस घोड़े के वजूद मे बेइन्तहा ठसक थी। वो रस्सियां उसके कैद में होने का नहीं वरन उसकी ताकत का, उसकी सामर्थ्य का एह्सास दिला रही थीं। हल्के से खम के साथ तनी उसकी गर्दन मे आत्मसम्मान था पर अहंकार नहीं। पता नहीं क्यों इस घोड़े को देखते हुये हमें Victor E.Frankl की ये पंक्तियां याद आ गयीं...
" Everything can be taken from a man but one thing: the last of human freedoms- to choose one's attitude in any given set of circumstances,to choose one's own way."
मेले में पशुओं से सम्बन्धित सामानों की भी काफ़ी दुकानें थीं। समय के साथ साथ इस चीजों का स्वरूप भी बदल गया है। पशुओं को बांधने वाली रस्सी जिसे पगहा भी कहते हैं, उनके मुंह को बंद करने के लिये बांधी जाने वाली जाली, ये सब पहले रस्सियों से बनायी जाती थी, बान, मूंज, सन की रस्सियों से पर अब ये रंग बिरंगी प्लास्टिक की डोरियों से बनी हुयी थी। हां बैलों, गायों और भैसों के गले में पहनाई जाने वाली बड़े बड़े कांच के मनकों की मालायें अभी भी वैसी ही थीं।

इसके अंदाज ने इसे सबसे ऊपर ला खड़ा किया.

बिकने की तैयारी में बाज़ार मे खड़े घोड़े.पूरे मैदान में ऐसी कई कतारे थीं.
ग्रामीण क्षेत्र से आये ये लोग निश्चय ही अपने अपने पशुओं के हिसाब से चीजों का जायजा ले रहे हैं या फ़िर चीजों के बदलते स्वरूप का विष्लेशण चल रहा है.क्या पता इन दादा जी के हाथ मे कभी रही हो किसी इक्के,तांगे मे जुती उनकी प्यारी घोड़ी की रास और इन रंग बिरंगे आभूषण,अलंकारों को देख मन भीग रहा हो इस चाह से कि काश वो होती आज तो उसके लिये भी कुछ न कुछ जरूर ले जाता इस मेले से.या फ़िर घोड़ी अब भी हो पर मन की इच्क्षा और जेब के बीच का फ़ासला आड़े आ रहा हो.ये अबूझ सी कहानियां ही इन मेलों का सबसे बड़ा आकर्षण होती हैं मेरे लिये.

Tuesday, November 6, 2012

४ नवम्बर,रविवार,र. के घर हम चार महिलाये मिले और साथ गुजारा एक प्यारा सा दिन बाकी तीनों हमसे उम्र के लिहाज से काफ़ी छोटी हैं.हमारे लिये लड़कियां ही हैं पर बहुत कुछ सिखाती हैं ये लड़कियां.सबके अपने अपने दर्द हैं,शारीरिक,भावनात्मक और जीने के लिये खासी जद्दोजहद भी है पर शिकायत नहीं है.न ये दर्द इतने बड़े हो कर सामने खड़े हो पाते हैं कि उनका काम करने का,चलते रहने का उत्साह मंद कर सके.
शायद उन्होंने बहुत पहले समझ लिया है कि अपनी तकलीफ़ें झेलने का सबसे नायाब उपाय है दूसरों की तकलीफ़ मे साझेदारी.ये तीनों ही किसी न किसी रूप में अपने समाज मे हाशिये में पड़े लोगों के लिये काफ़ी कुछ कर रहीं हैं और करते रहने की दिशा में सोचती भी रहती हैं.
मं.नारी से सम्बन्धित विभिन्न मुद्दों पर शोध और दस्तावेजीकरण का काम लम्बे अरसों से कर रही है.उसकी अपनी एक छोटी सी टीम है जो सर्वेक्षण आदि का काम भी करती है.अपनी संस्था के अंतर्गत इन्हीं विषयों से सम्बन्धित पुस्तकें भी प्रकाशित की है और एक पत्रिका नियमित रूप से प्रकाशित होती है.विगत कई वर्षों से शहर की कुछ मलिन बस्तियों मे बच्चों के लिये विद्यालय भी चला रही है.यहां बच्चों को शुरुआती दौर के शिक्षा दे उन्हें आगे के लिये अन्य विद्यालयों में दाखिला भी करवाती है.इसके अतिरिक्त अभी हाल ही में उसने अपने एक बहुत पुराने सपने को जमीन भी दी है--एक ऐसे घर की शुरुआत कर के ,जहां निराश्रित व्रिद्ध,एकल युवतियां और अनाथ बच्चे सब एक छत के नीचे रह सकें.
रा.  एक स्थापित संस्था की सचिव है ,जिसका बीज बोने के समय से ही वह संस्था के साथ है. वह देश के विभिन्न क्षेत्रों मे विभिन्न मुद्दों पर काम करती है पर मात्र कागजी कार्यवाही नहीं जमीनी रूप से भी वह इन मुद्दों पर काम करती है ,लोगों से जुड़ती रहती है.एक परिवार या  एक व्यक्ति के आधार पर भी उनकी सम्स्यायों का  निदान करने का प्रयत्न करती है.
अ. इस क्षेत्र में  विभिन्न  तरीकों से अपना योगदान देती है.कभी सीधे स्वंय काम कर के और कभी गांव आदि मे लोगों की एक क्षेत्रीय टीम को तैयार कर के,उन्हें प्रशिक्षित कर के इस लायक बना कर कि वे अपने क्षेत्र की समस्यायों को स्वंय हल कर सकें और उन्हे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य मे भी समझ सकें.
आज की बैठक का मुख्य मुद्दा था अ. की नयी संस्था की शुरुआत करना और उसके कार्य प्रारूप पर थोड़ा विचार विमर्श करना तथा अपने आपको टटोलना कि हमारी अपने आपसे क्या अपेक्षायें है,हमारी क्या क्षमतायें है और हम क्या और कैसे कर सकते हैं
सबसे अच्छी बात यह है कि एक ही क्षेत्र में काम करने के बावजूद एक दूसरे का साथ देने की भावना है और चीजें मात्र वैचारिक धरातल पर ही नहीं तैरती वरन उन्हें व्यवस्थित रूप से कैसे कार्यान्वित किया जाय इसका भी पूरा प्रयत्न किया जाता है .सपने विचारों का और विचार कार्यों का रूप लेते हैं यानि सपने सच होते हैं
काम सम्बंधी बातों के बाद सबने मिल कर खाना बनाया और एक साथ बैठ कर खाया.काम करते करते बतियाना,हंसी -मजाक जैसे नानी की चूल्हे वाली रसोई के दिन जिन्दा हो उठे.
खाने के बाद र.ने बहुत ही उम्दा चाय बना कर पिलायी और फ़िर हम वापस आने के लिये उसकी बालकनी पर थे.सामने था पार्क जिसमे उसकी कोलोनी के लोगों के साझा प्रयत्नों से पनपी व्यव्स्था और सुरुचि साफ़ दिखायी दे रही थी.एक तरफ़ करीने से  बनी सब्जियों की क्यारियों मे नन्हें- नन्हें पौधे मुलुक -मुलुक कर झाक रहे थे,दूसरी ओर घास लगाने के लिये पार्क साफ़ किया जा रहा था और किनारे लगे लम्बे पेड़ों के बीच से सामने था डूबते सूरज का आरक्त चेहरा.विदा लेते सूरज की नरम हथेलियां हौले हौले सहला रहीं थी हर चीज को, आशीर्वाद देती सी.
चौड़ी -खुली सड़क पर बतियाते हुये हम आये टैम्पो तक. इंजीनियरिंग कालेज चौराहे पर टैम्पो से उतर कर हम अपने -अपने रास्ते की ओर बढ ही रहे थे कि मं. को दिख गया सड़क किनारे कढायी मे धीमी धीमी आंच में उबलता मलाई वाला दूध और जब मन ललक ही गया था तो इच्छा तो पूरी करनी ही थी.हम,अ. और मं जा खड़े हुये वहां और फ़िर दूध के संग कुल्हड़ का सोंधापन भिगो गया भीतर तक.
गाड़ियों का शोर,बेतरतीब ट्रैफ़िक,चारों ओर चिल्ल्पों लेकिन इन सबके बीच भी कुलहड़ की महक और अपनेपन का साथ जैसे अचानक कंक्रीट की इमारतों के बीच दिख गये हों पीपल के नर्म ,मुलायम ,गुलाबी हरे से दो पत्ते.

Tuesday, October 16, 2012

एक सैर उजाले की ओर

कल से नवरात्री शुरू हुई और सबेरे का प्रारूप भी थोड़ा बदल गया.यूं भी सितम्बर के आते ही भीतर बाहर सब धीरे धीरे करवट ले उठ सा बैठता है; कुछ ताज़ा -ताजा,खिला-खिला सा.
सबेरे उठ कर ,नहाया -धोया और पौने छः बजे तक हम सड़क  पर थे .कल से टहलने मे मंदिर हो कर आना भी शामिल हो गया है ,इसलिये नहाना भी निकलने से पहले ही होने लगा है.सड़क किनारे लगे पेड़ों पर सफ़ेद गुच्छे वाले फ़ूल आने लगे हैं.हरी पत्तियों के बीच से झांकते सफ़ेद फूलों के लट्टू जैसे गुच्छे,नट्खट बच्चों के झुंड से कभी  हवा के संग और कभी आपस में चुहल कर रहे थे.देख कर मुस्कुराहट खुद ब खुद होंठो पर आ गयी.
और आगे बढे और हम अपने पसंदीदा हरसिंगार के नीचे थे.हलकी सी नम सुबह के धुंधलके में आहिस्ता आहिस्ता झरते हरसिंगार  को  जीना हमें हमेशा अपने भीतर की यात्रा की ओर मोड़ देता है.बाहर का सब कुछ -सड़क,आते जाते लोग,सर्र से निकल जाती इक्का दुक्का गाड़ियां सब जैसे आंखों के सामने होते हुये भी नहीं होते हैं. कितना वीतरागी होता है ये हरसिंगार भी-पूरे उठान पर होता है,समूचा खिला और ताजा -तरीन ,फ़िर भी बिना किसी न-नुकर के,डाल से अलग हो जमीन पर आ जाता है.क्या डाल पर लगे लगे ,हवा के संग इठलाने का उसका मन नहीं करता होगा ?जिस शांति और इत्मिनान से वह जमीन की ओर कदम कदम बढता है ,उसे देख यह भी नहीं लगता कि उसे जबर्दस्ती धकेलना पड़ता है.अपनी नियति को अपना  प्रारब्ध मान उसे कर्म सा अंजाम दे जाने का कितना अद्भुत समन्वय है.और भी एक बात है ,अगर ये हर्सिंगार के फूल यूं ही डाल पर लगे लगे मुरझाते और उसके बाद झरते तो क्या उसकी डंडी का चटक केसरिया रंग हमें यूं याद रह पाता.शायद तब हम जान भी नहीं  पाते कि उन नन्हें-नन्हें सफ़ेद फूलों के पीछे इतने रंग भरे छंद भी रचे हुये हैं.तो क्या हमारी सुबहों में अंजुरी भर रंग भरने को ही यूं मुस्कुराते हुये अपने अंत को गले लगाता है हरसिंगार और एक हम हैं कि सुबह सबेरे सैर को जायेंगे तो दूसरों के द्वारा पाले पोसे पेड़ों पर लगे फूलों को एड़ियों के बल उचक उचक तोड़ेंगे लेकिन जमीन पर बिछे हरसिंगार को पैरों तले रौंदते हुये चले जायेगे.इन्सान हैं न हम-जो पहुंच से थोड़ा दूर है,जो मुश्किल से हाथ आता है उसके पीछे भागेंगे लेकिन जो हमारे लिये सब कुछ सहर्ष न्योछावर करने को तैयार है उसकी कद्र नहीं करेंगे.
चलिये अब आगे बढते हैं.हां तो हमने हरसिंगार के नीचे बैठ फूल इकट्ठा किये .हमें यूं जमीन से हरसिंगार के फूल चुनना हमेशा बहुत अच्छा लगता है.एक एक फूल को पोरों पर मह्सूसना और फ़िर उन्हें अंजुरी में सहेजना.हर पल एक रेशमी एह्सास भीतर उगता है और मन कैसा तो तरल हो उठता है.
और फ़िर सबेरे की सैर का आखिरी पड़ाव-मन्दिर.दियों की लौ से बिखरता प्रकाश,हवा में घुलती धूप,अगर की खूशबू,मुर्तियों पर चढे रंग-बिरंगे फूल,पूजा-अर्चना करते,इधर उधर आते- जाते भक्त,कोई किसी कोने में ध्यान मग्न है तो कोई शंकर भगवान को जल चढाते हुये सस्वर पाठ कर रहा है.मन स्वतः ही पावन हो उठता है.हमने भी मां के सामने बैठ पाठ पूरा किया,तब तक आरती शुरू होने का समय हो गया था.पुजारियों ने कई कई बत्तियों वाले बड़े दिये हाथों में ले लिये. शंख की गूंजती ध्वनि,  घंटियों की जलतरंगी टुनटुनाहट, घंटों की टंकार और एक लय मे उठती गिरती तालियों की धुन के ऊपर छाये आरती के बोल--अपना आप कीचड़ से बाहर निकल आये कमल सा सुथरा और ताज़ा लगने लगा.
कोलोनी के द्वार पर ,सड़क के बीचों बीच शंकर भगवान की तकरीबन पन्द्रह फ़ीट ऊंची प्रतिमा के पीछे सुर्य भगवान चमक रहे थे.सड़क किनारे गेंदे के फूलों की दुकानें पीली-लाल रंगोली सी सज रही थी.बच्चे स्कूल के लिये निकलने लगे थे.एक और दिन हुलसता सा हमारे इन्तज़ार मे था.









१७.१०.२०१२
सभी छायाचित्र सुंदर अय्यर द्वारा.









Tuesday, January 10, 2012

हमारे पुरखे ...बरगद दादा

वो विशाल बरगद का पेड़ हमारे गाँव के मुहाने पर हुआ करता था.बड़ा बहुत बड़ा,हरा और छायादार पेड़ .पेड़ के नीचे उसके तने से सट कर एक छोटी सी मठिया थी .मठिया नहीं समझे? चलिए ,समझिये एक बहुत छोटा सा मंदिर जिसमे हमारे गाँव के बरम देवता बिराजते थे.बरम देवता ,ब्रह्म देवता का अपभ्रंश भी हो सकता है ,या फिर भैरव देवता भी बदलते बदलते बरम देवता हो गए हो शायद .खैर शुरुआत कुछ भी रही हो ,हमने जब उन्हें जाना वे बरम देवता थे और हमारे गाँव के गार्डियन एंजेल ,रक्षक ,सुखकर्ता ,दुखहर्ता सब थे .बरम देवता गाँव के रक्षक थे तो उन्हें पराक्रमी तो उन्हें होना ही था इसलिए थोडा गरम मिजाज, क्रोधी देवताओ में उनकी गिनती होती थी और ऐसे देवता पर छत्र से छाये रहते थे हमारे बरगद दादा.
किसी परिवार में कोई शुभ कार्य सम्पन्न होना होता तो सबसे पहले सब लोग जाते बरम देवता की देहरी पर माथा टेकने कि भगवन अपनी कृपा बनाये रखना .सारा कार्य बिना किसी विपदा ,बाधा के सकुशल संपन्न हो जाय और जाते जाते बरगद दादा के पैर पड़ .चक्कर लगा ,माथा टेक ये विनती करना न भूलते कि बरम देवता को संभाले रहियो. उस पेड़ की छाया में कुछ ऐसा सुकून था की निर्विघ्न सब कार्य पूर्ण होने की दिलासा और विश्वास खुद ब खुद मन में पसर जाता . कोई हारी बीमारी हो ,आफत ,विपत हो तो फिर दौड़े जाते देवता की देहरी और दादा की छाया की शरण तले .चबूतरे के नीचे बैठ सारी समस्या विस्तार से कही ,बताई जाती .देवता तो ऊपर से यूं ही निर्विकार नजर आते पर बरगद की झूलती जड़े और झुकी पत्तियां जैसे धीरे से सर हिला दुःख में शामिल हो जाती और पत्तियों की सरसराहट यह आश्वासन देती लगती कि घबराओ मत सब ठीक हो जाएगा.
और होता भी ,मनौतियाँ भी पूरी होती ,विपदाए भी दूर होती . गाँव में प्रवेश करने वाली कोई भी बैलगाड़ी हो या पैदल मुसाफिर उस पेड़ के नीचे सुस्ताये बिना आगे बढ़ने की तो सोच ही नहीं सकता .घर की देहरी भले न छुई हो पर बरगद की छाया में घर वापस आने की आश्वस्ति पा जाते थे हम .गाँव की कोइ भी लड़की विदा होती थी ,डोली बरगद के पेड़ के नीचे थोड़ी देर जरूर रुकती थी .गाँव मोहल्ले के लोग वहां तक बिटिया के साथ आते थे .बरम देवता की देहरी पर माथा टेक बिटिया बरगद से भी वैसे ही लिपट कर रोती थी जैसे अपने सारे सगे सम्बन्धियों से .बरगद दादा छूटे तो घर छूटा. कितनी बार इनकी झूलती जड़ो से लटक कर झूला झूला है ,गुडिया का ब्याह रचा कर उसकी डोली जब यहाँ लाते थे तो क्या पता था की इक दिन खुद अपने को भी ऐसे ही आना है.और उस विछोह के दुःख के संग रची बसी होती थी एक प्रार्थना दादा हमारे अम्मा -बाबू को संभालना और अगले ही सावन हमें जल्दी से अपनी छाओं में बुलाना . न जाने कितनी आँख मिचौली खेली जाती थी ,न जाने कितनी प्रेम कहानियां परवान चदती थी ,कितने मिलन कितने विछोह सबके गवाह थे दादा.
जाने वाली ही क्यों ,आने वाली भी हर डोली सबसे पहले दादा के चरणों में ही रुकती .महावर रचे पाँव जब पायल,झांझर छनकाते उतरते थे जमीन पर तो जैसे बरगद की मजबूत बाहे अपना आशीष भरा हाथ रख देती उस घूंघट लिपटे सर पर .लाल लाल चूड़ियों से कोहनी तक भरे हाथ जोड़ जब नयी आयी दुल्हन परिक्रमा करती थी तो मन ही मन अपनी सारी साधे,सारी इच्छाये दादा को पकड़ा देती और उनके पूरा होने का विश्वास आँचल की मूठ में बाँध चल देती थी नयी गृहस्थी बसाने ,एक नया संसार रचाने . बरगद का वह वृक्ष ,मात्र वृक्ष नहीं इतिहास का दस्तावेज था जो अपने सीने में अनुराग,विराग के असंख्य अध्याय समेटे खड़ा रहता था .न जाने कितने सपने इस विश्वास के चलते देखे जाते थे की वट वृक्ष तो है उन्हें पूरा करने के लिए .
और अभी कुछ दिन पहले एक लम्बे अरसे बाद हमारी मुलाक़ात हुई अपने उन्ही बरगद दादा से .अगर हमें बताया नहीं जाता तो हम उन्हें पहचान ही नहीं सकते थे .वो दूर तलक चारो और फ़ैली बलिष्ठ छतनार बाहे कलम कर दी गयी थी .चबूतरा थोड़ा बड़ा हो गया था और देवता का मंदिर भी आकार में बड़ा हो गया था .वट वृक्ष के दोनों और ऊंची इमारते थी जिनके निचले हिस्से में होटल ,चाय की दुकाने वगैरह खुल गयी थी .चबूतरे से सट कर पक्की सड़क निकल रही थी और कुछ आगे एक बस स्टाप बन गया था .सारी आपा धापी चिल्ल पों के बीच हमारे बरगद दादा कितने निरीह लग रहे थे .ऊपर को उठती उनकी कुछ डाले अब भी बरकरार थी .बरगद दादा में हमें एक झुर्रियों भरा कंपकंपाता चेहरा नज़र आया जो ऊपर को हाथ जोड़ भगवान से यह मांग रहा हो कि हे ईश्वर अब हमारी संतानों को हमारा होना धरती पर जगह घेरना लगने लगा है ,हमें अपनी शरण में ले लो .हमारा कल्प वृक्ष खुद कलप रहा था और हम उनसे लिपट रो लेने को थोड़ी तन्हाई खोज रहे थे.
'kalpvriksh 'is our mythological wish tree.

 
(picture © sunder iyer)