Tuesday, January 10, 2012

हमारे पुरखे ...बरगद दादा

वो विशाल बरगद का पेड़ हमारे गाँव के मुहाने पर हुआ करता था.बड़ा बहुत बड़ा,हरा और छायादार पेड़ .पेड़ के नीचे उसके तने से सट कर एक छोटी सी मठिया थी .मठिया नहीं समझे? चलिए ,समझिये एक बहुत छोटा सा मंदिर जिसमे हमारे गाँव के बरम देवता बिराजते थे.बरम देवता ,ब्रह्म देवता का अपभ्रंश भी हो सकता है ,या फिर भैरव देवता भी बदलते बदलते बरम देवता हो गए हो शायद .खैर शुरुआत कुछ भी रही हो ,हमने जब उन्हें जाना वे बरम देवता थे और हमारे गाँव के गार्डियन एंजेल ,रक्षक ,सुखकर्ता ,दुखहर्ता सब थे .बरम देवता गाँव के रक्षक थे तो उन्हें पराक्रमी तो उन्हें होना ही था इसलिए थोडा गरम मिजाज, क्रोधी देवताओ में उनकी गिनती होती थी और ऐसे देवता पर छत्र से छाये रहते थे हमारे बरगद दादा.
किसी परिवार में कोई शुभ कार्य सम्पन्न होना होता तो सबसे पहले सब लोग जाते बरम देवता की देहरी पर माथा टेकने कि भगवन अपनी कृपा बनाये रखना .सारा कार्य बिना किसी विपदा ,बाधा के सकुशल संपन्न हो जाय और जाते जाते बरगद दादा के पैर पड़ .चक्कर लगा ,माथा टेक ये विनती करना न भूलते कि बरम देवता को संभाले रहियो. उस पेड़ की छाया में कुछ ऐसा सुकून था की निर्विघ्न सब कार्य पूर्ण होने की दिलासा और विश्वास खुद ब खुद मन में पसर जाता . कोई हारी बीमारी हो ,आफत ,विपत हो तो फिर दौड़े जाते देवता की देहरी और दादा की छाया की शरण तले .चबूतरे के नीचे बैठ सारी समस्या विस्तार से कही ,बताई जाती .देवता तो ऊपर से यूं ही निर्विकार नजर आते पर बरगद की झूलती जड़े और झुकी पत्तियां जैसे धीरे से सर हिला दुःख में शामिल हो जाती और पत्तियों की सरसराहट यह आश्वासन देती लगती कि घबराओ मत सब ठीक हो जाएगा.
और होता भी ,मनौतियाँ भी पूरी होती ,विपदाए भी दूर होती . गाँव में प्रवेश करने वाली कोई भी बैलगाड़ी हो या पैदल मुसाफिर उस पेड़ के नीचे सुस्ताये बिना आगे बढ़ने की तो सोच ही नहीं सकता .घर की देहरी भले न छुई हो पर बरगद की छाया में घर वापस आने की आश्वस्ति पा जाते थे हम .गाँव की कोइ भी लड़की विदा होती थी ,डोली बरगद के पेड़ के नीचे थोड़ी देर जरूर रुकती थी .गाँव मोहल्ले के लोग वहां तक बिटिया के साथ आते थे .बरम देवता की देहरी पर माथा टेक बिटिया बरगद से भी वैसे ही लिपट कर रोती थी जैसे अपने सारे सगे सम्बन्धियों से .बरगद दादा छूटे तो घर छूटा. कितनी बार इनकी झूलती जड़ो से लटक कर झूला झूला है ,गुडिया का ब्याह रचा कर उसकी डोली जब यहाँ लाते थे तो क्या पता था की इक दिन खुद अपने को भी ऐसे ही आना है.और उस विछोह के दुःख के संग रची बसी होती थी एक प्रार्थना दादा हमारे अम्मा -बाबू को संभालना और अगले ही सावन हमें जल्दी से अपनी छाओं में बुलाना . न जाने कितनी आँख मिचौली खेली जाती थी ,न जाने कितनी प्रेम कहानियां परवान चदती थी ,कितने मिलन कितने विछोह सबके गवाह थे दादा.
जाने वाली ही क्यों ,आने वाली भी हर डोली सबसे पहले दादा के चरणों में ही रुकती .महावर रचे पाँव जब पायल,झांझर छनकाते उतरते थे जमीन पर तो जैसे बरगद की मजबूत बाहे अपना आशीष भरा हाथ रख देती उस घूंघट लिपटे सर पर .लाल लाल चूड़ियों से कोहनी तक भरे हाथ जोड़ जब नयी आयी दुल्हन परिक्रमा करती थी तो मन ही मन अपनी सारी साधे,सारी इच्छाये दादा को पकड़ा देती और उनके पूरा होने का विश्वास आँचल की मूठ में बाँध चल देती थी नयी गृहस्थी बसाने ,एक नया संसार रचाने . बरगद का वह वृक्ष ,मात्र वृक्ष नहीं इतिहास का दस्तावेज था जो अपने सीने में अनुराग,विराग के असंख्य अध्याय समेटे खड़ा रहता था .न जाने कितने सपने इस विश्वास के चलते देखे जाते थे की वट वृक्ष तो है उन्हें पूरा करने के लिए .
और अभी कुछ दिन पहले एक लम्बे अरसे बाद हमारी मुलाक़ात हुई अपने उन्ही बरगद दादा से .अगर हमें बताया नहीं जाता तो हम उन्हें पहचान ही नहीं सकते थे .वो दूर तलक चारो और फ़ैली बलिष्ठ छतनार बाहे कलम कर दी गयी थी .चबूतरा थोड़ा बड़ा हो गया था और देवता का मंदिर भी आकार में बड़ा हो गया था .वट वृक्ष के दोनों और ऊंची इमारते थी जिनके निचले हिस्से में होटल ,चाय की दुकाने वगैरह खुल गयी थी .चबूतरे से सट कर पक्की सड़क निकल रही थी और कुछ आगे एक बस स्टाप बन गया था .सारी आपा धापी चिल्ल पों के बीच हमारे बरगद दादा कितने निरीह लग रहे थे .ऊपर को उठती उनकी कुछ डाले अब भी बरकरार थी .बरगद दादा में हमें एक झुर्रियों भरा कंपकंपाता चेहरा नज़र आया जो ऊपर को हाथ जोड़ भगवान से यह मांग रहा हो कि हे ईश्वर अब हमारी संतानों को हमारा होना धरती पर जगह घेरना लगने लगा है ,हमें अपनी शरण में ले लो .हमारा कल्प वृक्ष खुद कलप रहा था और हम उनसे लिपट रो लेने को थोड़ी तन्हाई खोज रहे थे.
'kalpvriksh 'is our mythological wish tree.

 
(picture © sunder iyer)