Monday, January 7, 2019

यहां वृक्ष भी प्रहरी हैं और समय भी

हमारे द्वारा लिखा गया यह यात्रा वृतांत दिसम्बर 1998 में , वाराणसी से अक समय निकलने वाली पत्रिका उपहार में प्रकाशित हुआ था। बस उसे यहां सहेज रहे हैं। यादों को जीने का एक  और प्रयास।


केरल की राजधानी त्रिवेन्द्रम को जिक्र आते ही मन में ठाठें मारने सगता है दृश्टि की परिधि तक फैला सागर। चेतना पर छाने सगते हैं धरती आसमान के बीच हरियाली का सेतु बांधते नारियल। पर इसी शहर से मात्र साठ -सत्तर किलोमीटर दूरी पर है, एक छोटा सा पहाड़ी पर्यटक स्थल जिससे हम सब अभी बहुत परिचित नहीं हैं। तो चलिए आज चलते हैं स्वप्निल खामोशी में लिपटे, हवाओं के देश पुनमुड़ी में।
त्रिवेन्द्रम शहर की सीमा से निकल जब हम कदम बढ़ाते हैं पुनमुड़ी की चढ़ाई की ओर तो प्रथम पड़ाव पर हमारा साक्षात्कार होता है गोल्डेन वैली से। ऊंची-नीची चट्टानों, पहाड़ियों पर खड़े खड़े हरे- भरे, ऊंचे-ऊंचे पेड़ों के बीच ऊपर से बह कर आती जलधारा एक कुंड सा बनाती है। पानी के नीचे बिखरी चट्टानोंने आपस में अपनी हथेलियां जोड़ ज्यों एक रेशमी चादर बिन रखी है और उस पर अलस पसरी है गुनगुनाती जलधारा।चारों ओर खड़े चिकने सशक्त तनों वाले पेड़ प्रहरी हैं, राजकन्या सी उस जलधारा के। ऊपर रास्ते से जलधारा तक पहुंचते पहुंचते आपकी अपनी आवाज भी स्वयंमेव वाथ छोड़ देगी और एक विमुग्ध खामोशी में लिपटे आप उतारते चले जायेंगे प्रकृति का होना अपने अंदर। पानी का स्पर्श ललचाता है पर इतना साफ और पारदर्शी है जल कि मन हिचकने लगता है उसमें पैर डालने से। पानी की धारा के दो किनारों पर खड़े हैं दो ऊंचे सतर पेड़और दोनों पेड़ों की एक-एक डाल कुछ इस तरह बढ़ी है एक दूसरे की ओर कि आपस में गुंथ गईं हैं और जलधारा की पूरी चौड़ाई में हवा में तन गया है एक प्राकृतिक पुल। नहीं आप इस पर चल नहीं सकते, छू भी नहीं सकते पर किनारों का यूं मिलना देख पाना ही अपने आप में क्या कम बड़ा अनुभव है।
 थोड़ा और ऊपर चलते ही शुरू होता है सिलसिला छाय बागानों का। पतली सड़क पर चड़ती बस, ऊपर छाया चटक नीला आसमान, सड़क के दोनों ओर हरे भरे चाय बागान और चाय की पत्तियां चुनती, नीली, हरी, लाल, पीली साड़ियों में लिपटी, हरीतीमा के बीच इंद्रधनुष रचती महिलाएं। चाय की पत्तियां चुनती महिलाओं का फोटो खींचते समय मासूम अदा से मुस्कुरा देना एक और कड़ी जोड़ जाता है इस गीत में।
बस और  आगे बढ़ती है। नीचे दृष्टि जाती है तो दूर दूर तक फैली हरी- भरी घाटियां जो दूर जा धुएं में गुम होती लगती हैं। ऊपर देखिए तो हर एक पहाड़ी का अपना एक अलग रूप। सामने पहाड़ी के सीने पर पांव रख अपना धानी आंचल लहराती हरियाली ु दूर ऊंची पहाड़ी की फुनगी पर कतार बांधे खड़े पेड़ या फिर बादलों से गलबहिया डाल बातें करती पहाड़ियां - सब मन में उत्सुकता जगाती हैं, कैसा होगा इनके फस पार बसा संसार।
हरियाली के बाच उगी, दूर से दिखती सपेद दीवारें और उन पर पसरी लाल छतें बता देती हैं कि हम अपने गंतव्य के करीब आ गए हैं। पुनमुड़ी में अभी कोई आबादी नहीं बसी है। गेस्ट हाउस, कुच कॉटेजेस, कैफेटेरिया, दुकानें , एक पार्क बस हरियाली के बीच इतने से ही मानव के हस्ताक्षर और सायद यही है पुनमुड़ी की खूबसूरती का राज-- आवाज नहीं, आहट नहीं, बस खामोशी गूंजती है, सन्नाटा बोलता है।
कैफेटेरिया की पारदर्शी दीवारों के पार हरियल घाटी में तिरते नीले बादलों को देखते - देखते  अपना आप भी विस्मृत होने लगता है और सच मानिए हम गुम ही हो जाते उन घाटियों में अगर वेटर ने न ला रखा होता मेज पर गरम कॉफी का प्याला। हलियों के बीच सुखद उष्मा देता गर्म काफी का मग, अपनी गुनगुनी उंगलियों से चेहरा सहलाता काफी का धुआं और शीशे के उस पार नीले धुयें की खामोशी में लिपटी घाटियों में रूक रूक कर गिरती बूंदों की सिहरन जगाती ठंडक, दो विरोधी चीजें होते हुए भी साम्य की लय में बंधी हैं। इनसे साक्षात्कार यानि अंदर तक खुशबू में डूबना।
और फिर पुनमुड़ी का वह आखिरी सिरा, जहां बस यात्रियों को उतारती है।इस पहाड़ी सिरे से एक ओर दिखती है नीचे हरी भरी घाटियां और घाटियों की गोद में अलस गिरते आसमानी छाया में डूबे सफेद बादल। बादलों का भ्रम नहीं सचमुच के बादल। सर झुका कर अपने से नीचे बादलों को देखना एकदम चमत्कृत कर जाने वाली अनुभूति। कुछ नीचे उतर घाटियों की ओर बढ़ो तो दूर खड़े लोगों को लगेगा कि आप बादलों के बीच हो। मन करता है उछल कर किसी एक बादल के झूले पर लेट जांय और फिर हवा की धीमी धीमी थपकियों के बीच समेट लें यूं चारों ओर बिखरी शांति अपने भीतर।
पगडंडी के उस ओर पहाड़ी पर चढ़ना शुरू करेंगें आप तो एक दूसरे को धकियाते हवा के झोंके दौड़ के आ लिपटेंगें आपसे। पूरे वातावरण में हवा ने ज्यूं अनगिनित झूले बांध रखे हैं। पेंग भी नहीं भरनी पड़ती और आप हिंडोले पर सवार सवार जा पहुंचते हैं आसमान के पास। ऊबड़- खाबड़ रास्ते से होतो हुए जब पहाड़ी के सबसे ऊंचे सिरे पर जा बैठते हैं तो लगता है हम हवाओं के देश में हैं। चारों ओर खामोशी। पर यह सन्नाटा डराता नहीं है, अकेला भी नहीं कर जाता क्यों कि इसमें हवाओं की अबोली गूंज है। हवाएं तेज हैं पर तूफानी नहीं। पुनमुड़ी की खामोेशी और उसकी हवाओं की अपनी एक अलग ही शख्सियत है। वातावरण में रची बसी एक मीठी सी चुप जो पूरे जोर शोर से अपने होने का एहसास कराती है। आंख बंद कर महसूसें इस चुप को तो इसकी हर धड़कन में ज्यूं वंशी के सुर हैं, नुपुर की मध्यम रूनझुन है। कुछ  ऐसा ही है मिजाज पुनमुड़ी की हवाओं का। हवाओं के सागर में आप हर लहर, हर झों के को अलग अलग पहचान सकते हैं। हर झोंका अपनी अलग जबान में बात करता है। कोई हाथ पकड़ दौड़ा ले चलेगा आपको ऊपर की ओर, कोई धीरे से आ गुजगुदा जाएगा, कोई बांध जाएगा आंचल का मूठ से अपनी मीठी याद, कोई गलबहिंया डाल कानों में गुनगुना जायेगा किसी भूले- बिसरे गीत की पहली कड़ी।
पुनमुड़ी में पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थल के रूप में भले ही बहुत अधिक बिंदु न हो, उनके अलग अलग नाम न हो लेकिन समूची पुनमुड़ी की अपनी आत्मा है। पहाड़, हरियाली, बादल, हवा सबके अनूठे सामंजस्य से प्रकृति ने जो रूप रचा है वह दृष्टि से अधिक मन-प्राण को झंकृत करता है। पुनमुड़ी एक अनुभूति है जो जीवन पर्यंत आपकी धड़कनों में बसी रहेगी।





इस लेख में लगे छाया चित्र सुंदर ने अपने निकॉन से रील से खींची थी । तब डि़जिटल कम से कम हम लोगों तक तो नहीं पहुंची थी।

Thursday, January 3, 2019

अक्सर ऐसा होता है कि हम दूर दूर तक घूम आते हैं। उन स्थानों के विषय में बहुत सारी जानकारी इक्ट्ठा कर लेते हैं, उनके विषय में चर्चाएं भी कर लेते हैं पर अपने आस - पास की बहुत सी खास जगहें, बातें अनदेखी, अनसुनी ही रह जाती हैं। जैसे कभी- कभी सड़कों पर कैंडल मार्च तो हम कर लेते हैं पर अपने ही घर के कोनों में दुबके बैठे अंधियारे तक हमारी नजर ही नहीं पहुंचती ।
ऐसा ही कुछ लगा हमें जब हमने देखा अपने शहर से कुछ किलोमीटर दूर कमलापुर में यह राधा- कृष्ण मंदिर।मंदिर का परिसर साफ सुथरा है पर उससे लगा रानी महल और उसके चारों ओर का बाग- बागीचा बहुत ही खस्ता हाल स्थिति में है। कुछ लोग रहने भी लगे हैं उसमें। कहा जाता है कि यह कसमाण्डा के राजाओं की व्यक्तिगत सम्पत्ति है। पास ही में उनके महल आदि भी हैं। रानी महल के पीछे एक बड़ा सा सीढियों वाला तालाब भी है और तालाब के दोनों ओर समाप्ति की ओर अग्रसर मंदिर भी । कितना अच्छा होता यदि किसी प्रकार इन्हें एक पर्यटक स्थल के रूप में सहेजा जा सकता। किंतु होंगी ऐसा करने में आने वाली कई बाधायें, तभी तो सब धीरे धीरे माटी में मिल रहा है। वैसे तो प्रकृति का नियम है जो आया है ,सो जायेगा, जो बना है ,वह ढहेगा। किंतु इन सबके बीच भी मंदिर ठीक अवस्था में है और उसकी अपनी कुछ विशेषतायें भी हैं।