Sunday, December 15, 2019

पृथ्वी के छोर पर--- डा. शरदिन्दु मुखर्जी





पृथ्वी के छोर पर, डा. शरदिन्दु मुखर्जी की अंटार्कटिक यात्राओं के उनके अनुभव.....नहीं, हम इस पुस्तक की समीक्षा नहीं लिख रहे हैं। समीक्षाओं पर मेरा बहुत विश्वास भी नहीं है। मुझे लगता है, प्रत्येक पुस्तक को विभिन्न पाठक अलग अलग प्रकार से ग्रहण करते हैं और यह निर्भर करता है उनकी अपनी रूचि, अपने दृष्टिकोण, अपनी संवेदनाओं पर। तो मैं भी यहां बस यही साझा करूंगी कि मैंने इस पुस्तक से क्या पाया, इसे मैंने कैसे जिया।
डा. मुखर्जी ने अंटार्कटिका की यात्रायें एक भूवैज्ञानिक की हैसियत से की अतः पुस्तक में हमारे देश के विभिन्न अंटार्कटिका अभियान, उनसे सम्बंधित तैयारियां, प्रशिक्षण और उपलब्धियों सम्बंधी प्रचुर जानकारी है, जिनका ज्ञान हमें देश का नागरिक होने के नाते होना चाहिए, लेकिन होता नहीं है। अमूमन इस प्रकार की किसी भी विशिष्ट क्षेत्र सम्बंधी उपलब्धि के सम्बंध में हमारी जानकारी मात्र उपलब्धि की हेडलाइन तक ही सीमित रहती है किंतु इस पुस्तक को आद्योपांत पढ़ने के पश्चात् मुझे लगा कि गूढ़ तकनीकी संदर्भों को छोड़ कर किसी भी अभियान के नेपथ्य में लगातार किये गये परिश्रम और तैयारी का भी हम आम नागरिकों को ज्ञान होना चाहिए। हम उस उपलब्धि का वास्तविक मूल्य तभी समझ पाने में सक्षम होंगें। इस पुस्तक का सबसे सुखद पहलू यह है कि इन समस्त
जानकारियों का उल्लेख बीच बीच में इस प्रकार किया गया है कि ये कहीं पर भी यात्रा वृत्तांत की रोचकता में बाधा नहीं उत्पन्न करती और इसका श्रेय मेरी राय में जाता है डां. शरदिन्दु के भीतर के लेखक को, जिसे हर प्रकार के पाठक को बांध लेना, उनकी रुचियों का ख्याल रखना आता है।
इस पुस्तक ने आनंदित किया मेरे भीतर के उत्सुक विद्दयार्थी को। हिम के रूप, आइस फ्लोस, शेल्फ आइस, फास्ट आइस हों या पॉलिनिया, शिर्माकर ऑएसिस, प्रियदर्शिनी झील,नुनाटक, ग्रूबर पहाड़ जैसे स्थान कल्पना के कोरे पन्ने पर जैसे जैसे चित्र आकार लेते रहते, मेरा मन उन सबके विषय में और जानने को उत्सुक होता रहता। अंटार्कटिका की यह दुनिया तो बिल्कुल अलग ही है न। वैसे भी प्रकृति वह भी निर्जन हमें हमेशा से आकर्षित करती है फिर यह परिदृश्य तो मेरी कल्पना से भी परे एक नये लोक का कपाट खोल रहे थे मेरे लिए और हमें यह भी पता था कि यह कोई कल्पना लोक नहीं मेरी अपनी धरती का ही हिस्सा है। हवा में उल्टा लटका जहाज हो या दूर दूर तक कुछ भी, कोई भी न होने के बावजूद गाड़ी की जलती लाइट, प्रकृति की जादूगरी और उनका वैज्ञानिक स्पष्टीकरण, बहुत कुछ है सीखने को इस पुस्तक में।
  य़े संस्मरण हमें मनुष्य और उसके भीतर की अपार संभावनाओं के विषय में भी बहुत कुछ बताते चलते हैं। हिम आच्छादित अंटार्कटिका की बर्फीली हवाओं,जोखिम भरे परिवेश में महीनों व्यतीत करना, जहां न जाने किसने पलों में मृत्यु जैसे सामने खड़ी दिखायी दे, समय ही मात्र नहीं व्यतीत करना अपने अपने हिस्से के कर्त्तव्यों का सफलता पूर्वक निर्वहन भी करना, मनुष्य की क्षमताओं पर हमारा विश्वास बढ़ाते हैं। प्रेरणादायी हैं ये संस्मरण । एक और बात जो हमे समझ में आयी, जहाज पर समुद्री यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व हुआ सांस्कृतिक आयोजन हो या अंटार्कटिका की भूमि पर सांस्कृतिक सामूहिक आयोजन इन सबका एक विशिष्ट उद्देश्य है। उत्स्वधर्मिता मनुष्य के मनुष्य होने में समाई हुई है। उत्सव पर्वों का आयोजन मात्र व्यवहारिकता नहीं है, वह अपरिहार्य है, मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए, उसके भावानात्मक संतुलन के लिए। हम जब प्रकृति के सान्निध्य में होते हैं और वह भी अत्यंत सीमित संसाधानों में अपने को बचाये रखने का संघर्ष करते हुए तो हमारा मन, व्यक्तित्व अपने सर्वाधिक सुंदरतम स्वरूप में होता है, निर्मल और पावन।  भौगोलिक सीमाओं से परे बस मनुष्य हो मनुष्य से जुड़ना, विपत्ति में एक दूसरे के काम आना, ऐसे ही कितने उद्धरण हैं इस पुस्तक में जिनसे गुजरते समय मेरा मन एक अवर्चनीय सुख से भर उठता था।
 और इन सबके साथ है, समुद्री यात्रा से ले कर अंटार्कटिका की भूमि तक के मनोहारी प्राकृतिक दृश्यों का शरदिन्दु जी द्वारा वर्णन। खुला खुला दूर दूर तक फैला नीला, हरा सागर, सागर में तिरते छोटे -बड़े अनगिनित ग्लेशियर, द्वीप, दूर तक फैली बर्फ की चादर, पक्षी, चमकती भोरें, धवल ज्योत्सनामयी रातें, बर्फ पर सूरज की चित्रकारी, ऐसे विलक्षण और अनुपम दृश्यों का वर्णन है कि मैं कब बाहर की यात्रा से विलग हो भीतर की यात्रा पर चल पड़ती पढ़ते पढ़ते मुझे खुद ही नहीं पता चलता।
गरज यह कि आपकी रुचि कुछ भी हो, भौगोलिक, वैज्ञानिक तथ्यों की, प्रकृति के बिलकुल ही अलग विलक्षण दृश्यों की, मानव मन एवं मानव प्रकृति के प्रेरणादायी प्रसंगों की, पृथ्वी के छोर सच में आपको एक अलग ही तरह के अनुभवों से गुजरने का अवसर प्रदान करती हैं।