Thursday, May 23, 2013

कल यानि ५.५.८० का जो पन्न उतर थ वह शायद त्रेन में जाते हुये लिखा था .आज वाला पन्न २३.५.८० का लिखा हुआ है और श्रीहरिकोटा में लिखा था.

पूर्ण निश्तब्धता.शांत ,चिकनी काली ,चमकीली  सड़कों पर पसरा सन्नाटा.दूर -दूर तक फ़ैला सर के ऊपर नीला चमकदार आसमान.सामने गेस्ट हाउस के लान में और उसके पीछे जंगल में ऊंचे-ऊंचे युकिलप्टस के लम्बे -लम्बे पेड़,ऊपर को मुंह उठाये मानो आकाश की चौड़ी छाती में मुंह छिपाने को व्याकुल हो रहे हों. समुद्र से बह कर आती हुयी ठंडी हवा हर बार उनके कानों में कुछ उत्साह भरे शब्द घोल जाती है और वे एक बार फ़िर नयी लगन से झूम कर और ऊंचे उठने के प्रयत्न में लग जाते हैं. कितने द्रिढ है ये अपनी लगन में.इनका स्वप्न कभी पूरा न होगा यह विचार उन्हें उनके पथ से किंचित मात्र भी विचलित नहीं करता  और वे दायें बायें किसी भी तरफ़ न देख कर केवल ऊपर की ओर ही सीधे बढते चले जाते हैं.न हो पूरा स्वप्न किंतु स्वप्न को साकार करने की लगन और आस्था में डूबे क्षण भी तो जीवन को एक मदमाती गंध से भर देते हैं.
इस शांत वातावरण को अपनी आंखों से पीते हुये जबरजस्ती संयम के लौह कपाटों को तोड़ कर सतरंगी स्वप्न दबे पांव आंखों लहराने लगते हैं.ठंडी हवा में उड़ते हुये बाल जब गालों पर अठखेलियां करते हैं तो न जाने कौन से अनछुये स्पर्शों की अनुभुतियां मन को कहीं ले उड़ती हैं.पर यह स्वप्निल वातावरण क्या जीवन की वास्तविकता बन पायेगा.गेस्ट हाउस  की हरी मखमली दूब पर खिले हुये लाल ,नीले ,पीले रंग के महकते फ़ूल समुद्री हवा के झोंको की ताल पर लहरा कर नाच रहे हैं और मन है कि सारी वास्तविकता पर छाये अनिशिचतता के बादलों को दूर हटा उन्हीं फ़ूलों के समान मचलने को व्याकुल हो उठता है.इन क्षणों में कभी कभी खुद को भुलावा देने को मन करता है.ऐसा लगता है कि यह मान ले कि सारे स्वप्न सच हो गये और अनिशिचितता की दमघोंट स्थिति से उबर प्रसन्न्ता एवं उल्लास की तरंगों पर मचल -मचल कर इतना थिरकें कि फ़िर न अपना होश रहे न अपने आस पास का.

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