Thursday, December 27, 2007

हमारे छोटे भैया रहेट वाले

आज कल सिक्वेल का जमाना है । हेरा फ़ेरी के बाद फ़िर हेरा फ़ेरी ,धूम के बाद धूम २ वगैरह वगैरह ,तो भाई हम अपने रहेट वाले भैया पर भाग २ क्यों नही लिख सकते जब कि हमारे पास कहने सुनने को अनुभव है । वैसे भी जब पहली बार छोटे भैया को याद किया था तो ब्लाग की शुरुआत थी ।ज्यादा टाइप करना भी हमारे लिये परेशानी का सबब था ।इसीलिये कतरा कतरा से काम चला लेते थे । नही ऐसा नही है कि हम अब कोई बहुत बड़े लिक्खाड़ हो गये है पर हांं पहले से ज्यादा दोस्ती तो हो ही गयी है की बोर्ड और पी।सी। से । पहले वाले ब्लाग पर कमेंट करते हुए नरेश ने कहा भी था कि ’अभी बहुत कुछ और लिखा जा सकता था ’ फ़िर लिखने वाले को लिखने का बहाना चाहिये । इसका नशा भी शर चढ कर बोलता है ।हां तो लुत्फ़ फ़र्माइये ,पेश है छोटे भैया की याद मे एक और पोस्ट।
पैर के सामने आये पत्थर को हमने जोर से दूर तक उछाल दिया . अब और क्या करते ? इतना गुस्सा आ रहा था ,किसि पर तो निकाल्ना था ना . इन बड़े लोगो को तो समझाने की कोशिश भी बेकार है . इनके लिये तो बच्चो की न कोई इज़्ज़त होती है न बात की कीमत . जैसे ये सारे भारी भरकम शब्द बस इन बड़े बुजुर्गों के लिये ही बनाये गये हो . कितनी कोशिश की थी अम्मा को सम्झाने की,बस एक बार वह नयी वाली पेन्सिल स्कूल ले जाने दो .पर नहि अच्छी चीज है तो उससे घर मे ही लिखो . अब भला ये क्या बात हुई .जब तक उसे क्लास मे सब्को दिखाया न जाये ,सबकी आखो मे उसे छू लेने की ललक को देखा न जाये तो नयी तरह की चीज का क्या फ़ायदा .
कल कितने रुआब से सबके बीच मे हमने अपनी नयी पेन्सिल का जिक्र किया था . मेरे मामा कान्पुर आई .आई .टी . मे थे . वहां बहुत सारे दूसरे देशो के लोग भी थे . उन्ही मे से एक ने हमे वह पेन्सिल दी थी . तब आज की तरह ग्लोब्लि जेशन का जमाना तो था नही कि दूसरे देश और वहां की चीज ,मोहल्ले पड़ोस की बात हो . फि र असली मुद्दा यह नही था कि पेन्सिल कहां से आयी या किसने दी . वह पेन्सिल थी ही इतनी अलग और खूब्सूरत .काही रंग की एच.बी. पेन्सिल्स और लाल रंग मे काली धारियों वाली एक जैसी पेन्सिल्स की भीड़ मे कैसी अलग चमकति वह पेन्सिल.
मूड बेतरह खराब होने के बाद भी उस पेन्सिल का ध्यान आते ही मेरे मन मे खुशी उमगने लगी .चेहरे पर अप्ने आप ही मुस्कुराहट आ गयी . दोस्तो ,सहेलियों द्वारा चिढाये जाने ,मजाक उड़ाये जाने की आशंकाओ की धुन्ध छट गयी और मेरी समूची चेत्ना पर बस वह पेन्सिल छा गयी .
कैसा चमकता सा धानी रंग है और उसकी छुअन भी कैसी रेशमी है . ये अपनी आम पेन्सिल्स जैसी नही कि ज्यादा लिखो तो उन्ग्लियां कड़ी पड़ जायें .उसके हाथ मे आते ही ऐसे लगता है जैसे वह हमे सहला सहला कर और लिखने के लिये उकसा रही हो.और धानी रंग पर नन्हे नन्हे बसंती फ़ूल . बिल्कुल सर्सों के फ़ूले खेत सी जिसमे दोनो हाथ फ़ैला कर बस हवा के साथ दौड़ते जाने का मन करे.
हम अपने कल्प्नालोक मे ऐसे खोये थे कि हमे पता हि नही चला कि हम कब आधे से ज्यादा रास्ता पार कर चुके थे और स्कूल पास आने वाला है . हम वापस धरातल पर थे .सबके चेहरों पर छाने वाली
मुस्कान हमे अभी से डरा रही थी .
कल जब हम अपनी पेन्सिल का वर्णन कर रहे थे तो आधे से ज्यादा को तो विश्वास ही नही हो रहा था और अब जब हम उन्हे दिखा नही पायेगे तो सब कहेगे कि यह तो बस हर चीज की कल्पना कर लेती है इसलिये हमे बेव्कूफ़ बना रही थी . हमे कोई झूठा कहे तो सच कित्ता गुस्सा आता है पर अब हम कर भी क्या सकते है ? मेरा बस चलता तो आज स्कूल नही आते पर फ़िर वही मुश्किल अम्मा को क्या सम्झाते कि हम क्यो नही जायेगे .मेरी इतनी बड़ी परेशानी और उनके लिये तो बस हसने की बात हो जायेगी . हम तहे दिल से मना रहे थे कि आज कोई करिश्मा हो जाये और सब पेन्सिल के बारे मे भूल जाय़ॆ.या तो आज किसी कारण्वश जाते ही छुटटी हो जाये . एक दो दिन बाद तो वैसे भी सब कुछ कुछ भूल ही जायेगे और तभी करिश्मा हो गया
सड़क के उस पार वाले मैदान मे हम लोगो के छोटे भैया अपने लावा लश्कर के साथ मौजूद थे . ये छोटे भैया यूं तो रहट वाले थे , अरे रहट यानि आज के जांइट व्हील का पुराना संस्करण ,लेकिन हम सब के लिये वे ’मिनि ’ के ’काबुलिवाला ’ से कम नही थे .रहट झूलने से ज्यादा मजा हमे उनके यात्रा संसमरण सुनने मे आता था .उन दिनो वैसे भी बच्चो के लिये घूमने जाने की जगहे निश्चित सी हुआ करती थी ...छुट्टियों मे दादी -नानी के घर .ऐसा नही कि हम इन जगहो मे जाने के लिये लालायित नही रहते थे पर इन जानी समझी जगहो से एक्दम अलग होता था छोटॆ भैया की यात्राओ का संसार .
हर दो तीन महीने मे एक बार वे हमारे स्कूल के पास वाले मैदान मे अपना रहट गाड़ते थे और जिस दिन वे आते थे हम लोगो के मन जैसे रस्सी तुड़ा कर उनके पास भग जाने को आतुर रहते थे .कोई और बात हम लोगो के बीच होती ही नही थी . रहट के हिडोले मे बैठने से पहले ही हम पूछते ’छोटे भैया ,इस बार कहां हो आये ’और फ़िर हिंडोले की ऊपर नीचे लहराती गति के साथ हमारी आंखो के आगे सजने लगता कभी किसी गांव का मेला ,हरी ,नीली ,गुलाबी चूड़ियों की दुकाने ,मिट्टी के खिलौने ,कठपुतली का नाच ,मुंह मे घुलने लगता खोये की मिठाइयों का सोंधा स्वाद या फ़िर गन्ने के खेत ,आम का बगीचा,नाच्ता मोर ,कभी आंधी पानी,कभी काली रात मे छोटे भैया की भूत से मुठ्भेड़ ,कुश्ती,दंगल,नौटंकी और न जाने क्या क्या .गरज यह कि हम हर बार छोटॆ भैया की वंडर्लैंड मे एलिस होते .विषय से अधिक हमे सम्मोहित करता था उनके कहने का अंदाज ..कैसी नयी नोखी होती थी उनकी शब्दावली और कैसा आवाज का उतार चढाव . हर द्रिशय आंखो के सामने चित्र सा सजीव हो उठता था .
लेकिन छोटॆ भैया और हमारे रिश्तो मे इससे भी इतर बहुत कुछ था .स्कूल जाते समय हम लोग कितनी भी जिद करे वे हमे कभी रहट नही झुलाते थे . उनका कहना था कि पढने जाते समय मन बिल्कुल पढाई की तरफ़ ही होना चाहिये . स्कूल से लौटते समय भी एक राउंड के बाद दूसरा नही .अम्मा घर मे रस्ता देख रही होगी . हां शाम को खेलने के समय अम्मा को बता कर आने पर हम उनके पास रुक सकते थे . हिंडॊले मे बैठने के पैसे तो सीमित होते थे ,इस्लिये झूलने के बाद हम लोग वही आस पास ईट पत्थर पर बैठ उनकी बाते सुनते थे . हां एक बात और बहुत प्यार करते थे वे हम लोगो को .नही इसमे कहने सुनने की क्या बात है .बच्चे थे तो क्या हुआ इतना तो हमे समझ मे आता ही था. हां सारे प्यार दुलार के बाव्जूद वे बिना पैसे के हमे एक चक्कर भी नही झुलाते थे . नहीं नहीं आप बिल्कुल गलत समझे .इसका कोई विशुद्ध व्यवसायिक कारण ही नही था मात्र . वे हमारी आदते नही बिगाड़ना चाहते थे .अगर कारण मात्र व्यव्सायिक ही होता तो हमारे पास ज्यादा पैसे होने के बाव्जूद वे हमे सारे पैसे रहट मे ही ना खर्च करने की सलाह नही दिया करते .
रहट चलाना उनका जीव्कोपार्जन का साधन जरूर था पर देखिये न वे अपने होने को कितना अर्थ्पूर्ण बनाते चलते थे . उनके हर पड़ाव पर हमारे जैसे कितने ही बच्चे होगे जिनमे उन्होने अच्छाई के बीज बोये होगे .उनके अनुभव सुनते समय हम लोग उनसे अक्सर कहते थे ,छोटे भैया आपके कितने मजे है ,कभी यहां, कभी व्हां ...कितनी नयी नयी चीजे देखते है . असल मे उनका यूं कांधे पर ग्रिहस्थी लादे कभी भी कही भी चल देना हमे बड़ा फ़ैसीनेट करता था .कैसा तो एक मुक्त होने का एह्सास दिलाने जैसा . पर हमारी बात सुन कर उनके चेहरे पर जो एक अबूझी सी मुस्कान छा जाती थी उसका अर्थ हमे आज समझ मे आता है . हमारा तिल्स्म नहीं तोड़ना चाहते थे इसीलिये शायद कुछ नही कहते थे पर अपनी देहरी से दूर कभी ना खत्म होने वले रास्तो पर लगातार चलने की मज्बूरी का दर्द समझने लायक हम तब कहां थे .
हमे याद है एक बार उन्के छोटॆ से तम्बू के बाहर बने ईटो के चुल्हे को देख हमने उनसे अचानक पूछा था ,’छोटे भैया आपका घर नही है कही क्या ?’
है ना ,बिटिया और घर मे आपकी जैसी एक बिटिया भी है .उसी के लिये पैसा कमाने तो हम निकलते है रहट ले कर ’
सच कहे तो उन्के चेहरे पर अचानक फ़ैली ढेर सी खुशी और ममता देख हम अन्दर कही थोड़ा दुखी हो गये थे .हमे लगा अरे कोई और है जिसे ये हमसे ज्यादा प्यार करते है. लेकिन अगले ही पल हमे उस नन्ही सी बच्ची पर दया आयी कि उसे अपने पिता से कितने कितने दिन दूर रहना पड़ता है
लेकिन छोटॆ भैया ने बताया कि चाहे केवल रात भर के लिये ही क्यों ना हो वे हफ़्ते मे एक दिन े घर ज्रूर हो आते है . उस दिन के बाद से हम जब भी उनसे मिलते उनकी बिटिया के बारे मे जरूर पूछते .
देखिये छोटे भैया दिखाई पड़ गये तो हम बस उन्ही के बारे बिना रुके बोले चले जा रहे है और वह हमारी पेन्सिल तो जाने कहां रह गयी .लेकिन यही तो चम्त्कार है हमारे छोटॆ भैया का हमे पता था उनके आने की खबर सुन कर बस उनकी ही बाते होने वाली हैं
हम दौड़ कर उनके पास गये ,’कब आये छोटे भैया ?देर रात क्या?
’हां ,बिटीय़ा .जब तक स्कूल से लौटोगी तब तक रहट खड़ा हो जायेगा .अरे आज अकेले कैसे ? तुम्हारे साथी कहां है ?
बस सब आ ही रहे होगे . हमने खुश हो कर कहा और जल्दी से स्कूल की ओर बढ गये .सबको बताना भी था ना कि आज खाने की छुटी मे कोई भी बाहर खड़े ढेलो से कुछ भी खरीद कर नही खायेगा .रहट झूलने के लिये पैसे जो बचाने थे .जैसा हमने सोचा था वैसा ही हुआ उस दिन पेन्सिल का ध्यान किसी को नही रहा . लेकिन मेरे मन मे तो उसे दिखाने की चाह थी ना .
आखिर अपने लगातार प्रयासो से हमने एक दो दिन मे अम्मा को मना ही लिया और उस दिन पेन्सिल मेरे बैग मे थी . हम उस दिन भी स्कूल अकेले जा रहे थे .हमने सोचा कि यदि कोलोनी के बच्चो के साथ जायेगे तो पेन्सिल बैग मे है यह बात पचा पाना मेरे लिये जरा मुश्किल होगा और रास्ते मे रुक कर बैग से पेन्सिल निकाल कर दिखाने मे वह बात नही आयेगी जो क्लास मे अचानक उसे सबके सामने लाने मे होगी .हम यही सब सोचते चले जा रहे थे कि मैने दूर से छोटॆ भैया को अपने दोनो हाथो मे सर थामे बैठे देखा .
अरे ऐसे तो वे कभी नही रहते .कल शाम ही तो बता रहे थे कि इस बार बस तीन चार दिन ही रुकेगे .इस बार मेले मे कमायी अच्छी हो गयी थी .वे तो इधर आने वाले नही थे मगर अब्की बिटिया और उसकी माई को लेकर बिटिया की नानी के यहां जाना है .रहट ले कर लम्बे समय तक नही आ पायेगे इसीलिये रास्ते मे तीन चार दिन हम लोगो के पास रुक ने आ गये थे .बहुत खुश थे कि बिटिया के लिये इस बार अ आ की किताब भी खरीदेगे .आज तो उन्हे सब सामान खरीद्ना था और रात को चल देना था.
हम धीरे से उनके पास जा खड़े हुए . छोटॆ भैया क्या हुआ ?
बहुत बार बुलाने पर उन्होने धीरे से सर उठाया .हम धक से रह गये .हमेशा मुस्कुराती रहने वाली उनकी आंखो मे पानी था .
हम लुट गये बिटिया .बर्बाद हो गये .कल रात जाने कौन हमार पैसा वाला बैग चुरा ले गया . अब कौन मुह ले कर घर जाये . बिटिया और उसकी माई कितने उछाह से रस्ता तकत होगीं .अब हम का ले जा पायेगे अपनी बिटिया के लिये .
छोटॆ भैया का प्रलाप जारी था . धीरे धीरे उनके चारो ओर बच्चो का गोल घेरा हो गया था . हम सब दुख और आक्रोश से भरे थे . क्या करे हम अपने छोटॆ भैया के लिये .अचानक हम सब्के हाथ अपने अपने बस्ते मे गये और फ़िर छोटे भैया के सामने फ़ैल गये . सबकी हथेली पर पांच पैसे का सिक्का था और मेरे हाथ मे पीले फ़ूल वाली धानी पेन्सिल .

Sunday, December 9, 2007

सफर ....2

देखिये परसों कहा था कि आगे की यात्रा पर कल चलेगें पर एक दिन यूं ही खिसक गया । यही तो जिन्दगी है ,सब कुछ जैसा सोचा ,जैसा चाहा वैसे ही हो जाये तो फिर अग्यात के आकरष्ण का आनन्द तो गया ही सम्झिये ना ।
खैर चलिये आगे की यात्रा पर ।
अब तक हम लोग माथुर साहब की प्रतिक्रियायों के अंदाज से परिचित हो चुके थे इस्लिये श्रिवास्तव जी के आते ही हम समझ गये थे कि वे पहले सुरछात्मक मुद्रा मे आ चुके है । और वही हुआ । एक सूट्केस जिसमे शायद कुछ कीमती सामान होगा उसे किनारे की ओर रखने के श्रिवास्तव जी के प्रयास को माथुर साहब ने सिरे से निरस्त कर दिया ।
’मेरे बैग को हटा कर अप्ना सामान रखने की सोच रहे हैं । यह नही हो पायेगा । ’
सच तो यह था कि वे किसी भी छोटे बड़े परिवर्तन से आशंकित हो उठते थे ।होता है ऐसा अक्सर जिस तरह की जिन्दगी जी होती है हमने , जैसे अनुभव होते है हमारे ,अन्जाने ही हम उनके अनुसार ही व्यवहार करने लग जाते है । ठहरी ,सपाट जिन्दगी काट लेने के बाद आदमी का रद्दो बदल के प्रति आंशकित होना स्वाभाविक ही है ।
हम सब ने मिल कर जगह बनायी और सब कुछ फिर से व्यवस्थित हो गया । गाड़ी चल दी । परिचय ,बातों का सिल्सिला शुरु हो गया । अब माथुर साहब भी फिर से निश्चिन्त थे ।
श्रिवास्तव जी से बोले ,’असल मे उस बैग मे मेरी दवाये है। आपने बुरा तो नही माना । अब चौसठ साल की उम्र हो गयी है । आप क्या समझेगे अभी । ’
बात सुन कर श्रिवास्तव जी और उनका बेटा एक दूसरे को देख कर मुसकराये फिर श्रिवास्तव जी बोले ,’ अरे तो मै कोई लड़का हू। मै भी बासठ साल का हो गया हूं ।’
लेकिन यह सच था कि उम्र का फ़र्क भले ही केवल दो साल का रहा हो , दोनो लोगो के व्यव्क्तित्व और तौर तरीको मे बहुत अन्तर था । बात फ़िर वही आ जाती है घूम फ़िर कर जिन्दगी ने आपको कैसे ट्रीट किया है इसका आपके हर क्रिया कलाप ,आत्म्विश्वास पर बहुत फ़र्क पड़ता है ।
माथुर साहब ने अपनी नौकरी मे दोनो बेटॊ को अच्छी शिक्छा दे दी । बेटे अच्छी नौकरियो मे है । सब साथ मे अच्छी तरह रह रहे है पर उन्होने जो जीवन जिया है और बच्चे जो जिस स्तर पर जी रहे हैं ,उसमे बहुत अन्तर है । बच्चो की उन्नति पर गर्व है खुद भीअब ऐसी कई चीजे देख सुन और भोग रहे है जिसकी शायद कभी सपने मे कल्पना भी ना की होगी । लेकिन इतनी तेजी से आये परिवर्तन से सामंजस्य बिठाना शायद स्वाभाविक तरीके से नही हो पा रहा था ।वो लगता है ना कि जैसे आपको अपने धरातल से उठा कर एक्दम कही हवा मे उछाल दिया गया हो । ऐसा केवल उन्ही के साथ नही हो रहा वरन आज अधिक्तर मधयम्वर्गीय मातापिता जो उम्र के इस दौर मे है ,उनकी ऐसी ही स्थिति है । जीवन स्तर से ले कर तक्नीकी चीजो मे जिस तेजी से विकास हुआ है कि तेजी से दौड़ते हुए हांफ़ रहे है फ़िर भी पीछॆ होने का डर साथ लगा ही रहता है ।
श्रीवास्तव जी इसी उम्र के दूसरे वर्ग का प्रतिनितिध्व कर रहे थे । बेटो से पहले ही उन्होने परिवर्तनो के साथ चलना शुरु कर दिया था और आज भी काम कर रहे है । एक लैपटाप बेटा ले कर चल रहा था तो दूसरा वे स्वयम । जितनी आफ़िसियल काल बेटा अटेन्ड कर रहा था उससे कम उनके सेल पर नहीं आरहीं थी । और इन सबका फ़र्क साफ़ दिख रहा था ।
उम्र और व्यक्तितव के सारे भेदो के बाव्जूद हम लोग काफ़ी अच्छी तरह से घुल्मिल गये । वत्र्मान से ले विगत तक की बातो का सिल्सिला शुरु हो गया । हम सब लोग किसी न किसी की शादी मे शरीक होने जा रहे थे ।
श्रीवास्तव जी की भतीजी की शादी थी । पुणे से लख्नऊ के बीच उनके अन्य रिश्तेदारो को भी इसी गाड़ी मे चढ्ना था । कोपर्गांव मे उनकी छोटी बहन और बह्नोई को आना था । हम लोगो की गाड़ी मे पैन्ट्री कार नही थी ।सुनीता जी यानि श्रिवास्तव जी की छोटी बहन चिकन बना कर लाने वाली थी । बेसब्री से कोपर्गांव का इन्त्जार हो रहा था । गाड़ी लेट हो गयी थी । हम लोग अपना खाना खा चुके थे ,पर सब लोग उनकी प्रतीक्छा कर रहे थे । वे लोग आये । परिचय हुआ । बाते हुई । सुनीता जी के पति ने माथुर साहब से कहा ,’ हम लोगो की वजह से आपको कष्ट हुआ । अभी तक बैठे रहना पड़ा । बड़े हैं आप ।’
माथुर साहब बोले ,’अरे बड़े हम कहां । आप हमारे मान्य है। आप के लिये तो हमे दर्वाजे पर खड़े होना चाहिये था ।’और जोर से एक आत्मीय ठहाका लगाया .
तो अब हम लोग सब एक परिवार के सदस्य थे । श्रीवास्तव जी ने कुशल पारिवारिक मुखिया का पद बखूबी सभाल लिया था । किस स्टेशन पर क्या चीज बढिया मिलाती है , कहां चाय पीना है ,कहां फल खाना है , सब उनके निर्णय पर था और हम सब मिल बांट कर खा ,बतिया रहे थे । रास्ते भर गाने गाए गए । सुनीता जी और स्नेहा की मधुर और सुरीली आवाज , सोनाली की धीमी आवाज मी सुरीची पूर्ण गाने , और इन सब मे श्रीवास्तव जी के साथ साथ माथुर माथुर साहब की भी भागेदारी । बहुत अच्छा लग रहा था । माथुर साहब बहुत सहज और फुर्तीले हो गए थे । शायद पुणे मी आई । टी । कम्पनी के बच्चो के बीच अपने समय के गुजर जाने का एहसास होता होगा । यहाम पुरानी बातो के दौर के बीच अपने होने का भान हो रहा होगा । उन्हें ही क्यो हम लोग भी कैसे मगन थे । श्रीवास्तव जी और सुनीता जी का बचपन भी मेरी तरह कानपुर मे बीता था । बालिका विद्यालय ए बी विद्यालय और जुहारी देवी , मेस्टन रोड की मूम्ग्फली और भी ना जाने कितने पुराने स्थान , रीगल टाकीज की इग्लिश फिल्म्स । खूब सैर हुई अतीत के गलियारों की ।
और फिर लखनऊ आ गया .माथुर साहब का भतीजा उन्हें लेने आ गया था । अपने सामान के साथ ट्राली पर श्रीवास्तव जी ने मेरा सूटकेस रखवाया । उनके बहनोई ने मेरे हाथ से एयरबैग ले लिया और बाहर आ कर पूरी पार्किग मे नंबर देख कर हमे लेने वाली गाड़ी देखी । सच तो यह है कि उन लोगो के बिना हम सच अकेले बहुत परेशान हो जाते । सूटकेस और बैग ले कर अकेले इतनी दूर का चक्कर लगाना संभव नही था । गाड़ी काफी लेट हो गयी थी इसलिए अंधेरा भी हो गया था । हमे गंतव्य की और सुरक्छित रवाना करने के बाद ही वे दोनो अपनी गाड़ी मे बैठे । जब कि उनका वाहन तो शुरू से ही वहा मौजूद था । वे लोग अपने घर के फंकशन के लिए लेट भी हो रहे थे लेकिन वह परिवार हमे अकेला छोड़ कर नही गया
यूं समाप्त हुआ हमारा यह सफर । काश जिन्दगी भी इस सफर की तरह हो पाती । जितनी देर साथ रहो ,मिल जुल कर एक दूसरे का ख्याल अपने से ज्यादा रखते हुए रहो और फिर बिना किसी अपेक्छा के अपने अपने रास्ते .अपेक्छाये जहा होती है वहा शिकायतों का होना लाजमी है । और फिर जिन्दगी इस सफर जितनी छोटी थोड़ी होती है । शायद इसीलिए सारे आध्यात्मिक गुरु कहते है कि जिस पल मे हो बस उसी पल तक अपना ध्यान सीमित रखो ।पल मे जीने से तकलीफे ,तनाव कम होते है ।
अविश्वास और शंकाओं के इस दौर मे विश्वास बनाए रखने की वजह तो थमा ही गया यह सफर.

Saturday, December 8, 2007

्सफ़र-१....

बहुत दिनों बाद अपने से बतियाने बैठे हैं । हां ब्लाग मे लिखने को हम अपने आप से बतियाना ही कहते हैं। ब्लाग ही क्यों जो मह्सूस किया या जिया उसे शब्दों मे ढालने के लिये अपने अन्दर की यात्रा तो करनी ही पड़्ती है। ये दस्तावेज बनाने का मेरा अपना कारण है । हमे लगता है कि अगर कभी जिन्दगी से शिकायत करने का मन करे तो ये सनद रहे कि उसने हमे क्या क्या दिया है । छोटी छोटी खुशियों ,खुश्नुमा पलों ,प्यार दुलार के भावो का खजाना हम सब्के पास होता है, ऐसा मेरा विस्वाश है । हां यह बाद अलग है कि अक्सर हम ऐसी सौगातों को लम्बे समय तक याद नही रख पाते । इसीलिये हम इन्हे जब ,जहां, जैसे जिया के तर्ज पर सहेज कर रखते चलते हैं।

अब इसी बार की पुणे से लखनऊ की यात्रा की बात ले लीजिये । चलिये आपको ले चलने के बहाने हम भी एक बार फिर चलते है उस सफ़र पर । सफ़र कैसा रहा इसका फ़ैसला आप पर छोड़ते हैं।
गाड़ी का छूटने का समय तो तकरीबन सवा चार बजे शाम को होता है पर हम लोग जब साढे तीन पर स्टेशन पहुचे तो गाड़ी प्लेट्फ़ार्म पर लगी थी । गाड़ी शुरु ही इसी स्टेशन से होती है। हम जब अपनी सीट पर पहुचे तो देखा एक नाजुक सी कन्या पहले ही वहां बैठी थी। आपस मे बात्चीत हुई और हम दोनो ने राहत की सांस ली की चलो सफ़र का एक साथी तो ठीक ठाक मिला । सामान व्यव्स्थित कर हम लोग बैठ लिये ।
थोड़ी देर बाद एक छोटा सूट्केस हाथ मे लिये और कांधे पर एक बैग लादे एक सज्जन प्रविश्ट हुए। उम्र यही कोई बासठ तिर्सठ साल रही होगी मगर बेजार कुछ अधिक ही नजर आ रहे थे । सांस धौकनी की तरह चल रही थी । आते ही सूट्केस और बैग खिस्काया बर्थ के नीचे और सीट पर बैठते ही बिना किसी भूमिका के बोले ’देखा इतना जरा सा चलने मे ही सांस फ़ूल गयी । हम लोगो ने पूरी सहान्भूति से सर सह्मति मे हिलाये । अभी हमारे सिर हिलने बंद भी नही हुए थे कि उधर से एक वाक्य उछ्ला ’जब मेरी उम्र के होगे ,तब पता चलेगा ।’ हमारी समझ मे नही आया कि हमने भला कब उनकी उम्र के प्रति बेअन्दाजी की । पता नही उनकी शिकायत अपनी उम्र से थी या हमारी । खैर अभी हम इस धक्के से सभले भी नही थे कि एक सूचना और आयी ’एक बार हार्ट अटैक पड़ चुका है । ’यह शायद हमे चेतावनी थी कि हम उनसे कोई बह्स मुबाहसा ना करे रास्ते भर वर्ना लेने के देने पड़ सकते है । हमने इस सूचना को भी शालीनता से आत्म्सात करते हुए उन्हे आराम से बैठने को कहा । पानी की बोतल ले कर वे थोड़े व्यव्स्थित हो कर बैठे ही थे कि काफ़ी साजो सामान और शोरो गुल के साथ एक युवा दम्पति अपनी सात आठ साल की बिटिया को ले दाखिल हुआ । माथुर साहब पुनः व्यग्र ।
’कौन सा सीट नम्बर है आपका ? अरे इधर कहां सारा सामान रख रहे है? वगैरह वगैरह....
उनकी सारी चिनताओं को अपने हाथ के झटके से एक किनारे करते हुए नव्युवक ने कहा,’हां हां सब ठीक है । ना हमे सीट बांध कर ले जानी है ना आपको ।’
भला माथुर साहब इस अवग्या को चुप्चाप कैसे बर्दास्त करते । उन्होने तुरुप का पत्ता फ़ेका’उस बैग मे मेरी दवाये है । एक बार हार्ट अटैक हो चुका है ।’
इस बार युवक ने थोड़ा रुक कर उन्हे देखा और सारा गुस्सा जींस क्लैड अपनी स्मार्ट सी पत्नी पर उतार दिया ।
’अरे उधर रखो ना सामान ।’
पैसेज के उस तरफ़ की सीट वाले लड़कों से कुछ बात्चीत कर वे लोग उधर खिसक लिये ।
अभी गाड़ी छूटने ने मे काफ़ी समय था पर हम ठीक ठाक रूप से जम गये थे इस्लिये हमने अपने पति से कहा कि अब वे घर को चले । उन्हे भी लगा कि सारे सह्यात्री तो लग्भग आ ही गये हैं इस्लिये चला जा सकता है ।
हम लोगो ने एक दूसरे की ओर हाथ बढाया और विदा के हैंड्शेक के बाद वे नीचे उतर गये ।
अभी वे दो कदम भी नही चले होगे कि माथुर साहब ने फ़र्माया ’ये आपके पति तो थे नही ।’
हम हत्प्रभ। भला ऐसा क्या हुआ कि माथुर साहब हमारे अच्छॆभले बाइस साला पुराने रिश्ते के अस्तितव को बिल्कुल सिरे से नकार रहे है और वह भी पूरे आत्मविश्वास के साथ ।
हमने भी थोड़ा तुर्शी मे आ कर कहा ’क्यों आपको ऐसा कैसे लगा ?
हंमारी नाराजगी से बिल्कुल भी प्रभावित ना होते हुए वे बोले ,’अपने यहां पति पत्नी हाथ तो मिलाते नही हैं ।’
हमने थोड़ा व्यंग करते हुए कहा ’हां ,जिन्हे पन्जा लड़ाने से फ़ुर्सत नही मिलती ,वे भला हाथ कैसे मिलायेगे ।’
लेकिन मेरे व्यंग को बेकार करते हुए माथुर साहब पहली बार हसे और बोले ’मैडम मजाक अचछा कर लेती हैं।’
हमारी दोनो महिला सह्यात्री मुस्करा रही थी । उस बच्ची की मम्मी ने तो कहा ,अरे क्या करे अंकल गाड़ी है ना इसीलिये आंटी ने हाथ ही मिलाया ।
वातावरण सहज और आत्मीय हो चला था कि श्रीवासतव जी अपने बेटॆ बहू के साथ पधारे और कूपे की आठो सीटे भर गयीं । अभी तो गाड़ी प्लेट्फ़ार्म से खिसकी भी नही है ।
बाकी की यात्रा कल।