Tuesday, November 15, 2022

महेश्वर में दूसरा दिन -- रानी अहिल्या बाई होल्कर का किला

दूसरे दिन भी हम लोग रिसोर्ट में नाश्ता कर के घूमने निकल पड़े। आज हम घाट ही घाट पहले दिन वाले घाटों को पार कर आगे बढ़े और जा पंहुचे मुख्य घाट जहाँ स्थित है रानी अहिल्या बाई होल्कर का किला । रास्ते में नर्मदा तो बांह थामें चलती ही हैं, घाटों पर होते स्नान, ध्यान और अन्य क्रिया- कलाप भी आपको लोगों से जोड़ते चलते हैं। बीच बीच में घाटों पर एक दो छतरियाँ भी बनी हैं, जिनके बरांडों में तीर्थ यात्री रात को शरण ले लेते हैं। न जाने कौन थे वे हमारे पूर्वज, पर हम पर छत्र-छाया अभी भी बनाए रखते हैं। मुख्य घाट पर किला प्रारम्भ होने से पहले, किले के बाहर ही छोटी सी समाधि जैसी बनी है, जिस पर लिखा था कि रानी अहिल्या बाई को उस स्थल पर ही मुखाग्नि दी गई थी। अहिल्या बाई के व्यक्तित्व में एक मुख्य बात थी कि इतने बड़े साम्राज्य की महारानी, इतनी कुशल शासक किंतु सादगी एवं आध्यात्मिकता में रचा-बसा अस्तित्व। आज भी महेश्वर की हवाओं में रानी अहिल्या से अधिक माता अहिल्या का वात्सल्य एवं संरक्षण लहराता है। वहां की आज की भी पीढ़ी उनको इसी रूप में याद करती है। पीढ़ी दर पीढ़ी उनके इसी रूप की गाथायें अधिक कही जाती रहीं हैं। उस घाट पर पहुंचते ही सबसे पहले ध्यानाकर्षित करती हैं अर्ध अष्टभुजाकार आकृति में बनी काफी बड़े दायरे को घेरतीं,खूब ऊंचाई तक जाती सीढ़ीयाँ। ये सीढ़ीयाँ समाप्त होती हैं एक बड़े अर्ध वृत्ताकार धरातल पर, जिस पर खड़ा है किले का भव्य द्वार। उस द्वार में प्रविष्ट होने से पूर्व हम थोड़ा थमे। सिर उठा कर ऊंचे फाटक के आखिरी सिरे को देखा, ऐसा लगा जैसे ऊपर फैला नीलाकाश भी घुटनों के बल बैठ उस साध्वी रानी की स्मृति को नमन कर रहा हो। द्वार के दोनों ओर और उसके ऊपर पत्थरों में उकेरी कलात्मक मानवीय आकृतियाँ हैं, देवताओं की आकृतियाँ हैं, महीन जाली, फूल- पत्तियाँ हैं और यह सब इतनी सुंदरता से उकेरा गया है कि मन आह्लादित भी होता हौ और चमत्कृत भी। कहा जाता है कि रानी अहिल्याबाई ने किले को नवीन और वर्तमान रूप देने के लिए राजस्थान से कारीगर बुलाए थे और राजस्थान की भवन निर्माण कला का स्पष्ट प्रभाव दिखता है किले के इस भाग में। महीनताई से कटी पत्थर जालियाँ, झरोखें और हाथियों की आकृतियाँ आदि अद्भुत कारीगरी के अनुपम दृष्टांत हैं। फाटक में प्रवेश करते ही सामने है खुला प्रांगण जिसके दोनों ओर, उसे घेरते हुए हैं छतदार बरांडे। एक तरफ के बरांडे में नर्मदा की ओर खुलते हुए झरोखे हैं। इन झरोखों से बाहर का दृश्य मंत्रमुग्ध कर देता है। घाट से लगभग सौ फीट की ऊंचाई पर हैं ये झरोखे।घाट पर बने शिवलिंग, जल अर्पण करते, स्नान-ध्यान करते लोग और मंथर गति से अनवरत बहती नर्मदा, सब आत्मसात करते हुए मन अहिल्या बाई के भव्य, स्निग्ध, बहुआयामी व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धावनत हो उठता है। इस खुले प्रागंण में सामने है विठो जी राव होल्कर की छतरी। विठो जी राव होल्कर, यशवंत राव होल्कर के छोटे भाई थे। ये दोनों तुको जी राव होल्कर के पुत्र थे। तुको जी राव होल्कर ने रानी अहिल्या बाई के पश्चात गद्दी संभाली थी। विठो जी ने पेशवा बाजी राव के राज्य में लूट- पाट कर चुनौती दी थी। अंत में बाजी राव पेशवा विठो जी को पकड़ने में सफल हो गए थे और हाथी के पाँव के नीचे कुचला कर उन्हें मृत्युदंड दिया था। बाद में विठो जी की अस्थियां महेश्वर लायीं गईं थीं और किले के प्रांगण में उनकी समाधि बनाई गयी। यह छतरी अत्यंत कलात्मक है। इसकी वाह्य दीवार पर हाथियों की एक पंक्ति वाली पट्टी दूर से ही ध्यानाकर्षण करती है। कुछ सीढ़ीयां चढ़ कर हम छतरी के द्वार तक पहुंचते हैं। केंद्र में समाधि है जो चारों ओर से बंद है और इस समाधि को चारों ओर से घेरता हुआ संकरा गलियारा है, जिसमें आसानी से चला जा सकता है। यहाँ दीवारों पर नक्काशी, जालियाँ आदि बहुत ही कलात्मकता से उकेरी गईं हैं। मैंने विठो जी की समाधि के भीतर घूमते हुए कुछ समय बिताया। कुछ बातें जो मस्तिष्क में घुमड़ रही थीं उस समय - कैसी दर्दनाक रही होगी विठो जी की मृत्यु, क्या चला होगा उन क्षणों में उनके मन में जब शायद हाथृ पैर बाँध कर डाला गया होगा हाथी के सम्मुख। भय तो नहीं ही होगा। राष्ट्र के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले ये रणबांकुरे किस माटी के बने होते हैं? ये सवाल किन्हीं जवाबों की प्रतीक्षा में नहीं थे, बस अजब से भाव घुमड़ रहे थे मन में। इस समाधि की वाह्ल दीवार पर दैड़ते हुए हाथियों की बनी पट्टी जो समूची दीवार पर दूर से ही अलग दिखती है, उसे देख कर भी आया था एक विचार मन में कि क्या यह पट्टी इसीलिए यहाँ बनायी गई है कि आने वाली पीढ़ी के मन -मस्तिषक में कभी धुंधली न पड़े स्म़ति विठो जी के बलिदान की। इस समाधि के ठीक सामने बायीं ओर है अहिलेश्वर मंदिर। यहां समाधि है रानी अहिल्या बाई की, जिसके ऊपर स्थापित है शिवालय। सीढ़ीयाँ चढ़ ऊँचे दरवाजे से भीतर जाने पर सामने हैं कुछ और सीढ़ीयाँ जो पहुचाती हैं एक बरांडे तक, जिसके अंतिम छोर पर सामने हैं एक बड़े से प्रकोष्ठ में शिव लिंग । बरांडे में शिवलिंग के सम्मुख एक बड़ा हवन कुंड है। ड्यूटी पर तैनात गार्ड ने बताया कि आज भी होल्कर राजपरिवार के वंशजों का विवाह उसी वेदी में जलती अग्नि की पावन उपस्थिति में होते हैं। यह बरांडा तीन तरफ से खुला है। ऊंचे-ऊंचे खम्बे और हर दो खम्बों के बीच मेहराबदार खुला स्थान, जहाँ से सामने दिखती है नर्मदा। किले के विभिन्न स्थानों से नर्मदा का सानिध्य और आशीर्वाद सी मन को सहलाती नर्मदा के पावन जल का स्पर्श कर हम तक पहुंचाती हवाएं, यह विशिष्टता है इस किले की। हम भी चारों ओर घूम कर बरांडे में महादेव के सम्मुख खम्बे से टिक कर बैठे बैठे, तो मन आसीम तृप्ति से भर उठा। रानी अहिल्या बाई भगवान शिव की अनन्य भक्त थी। उन्होंने तो समूचे भारत में अनगिनित स्थानों पर शिव मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया है, किंतु महेश्वर में शिव और नर्मदा की ऐसी लय मिली है कि आज-तक वो आध्यात्मिक रस धार लोगों के मन-प्राण आप्लावित करती रहती है। इस बरांडे के खम्बों के ऊपरी सिरों पर विष्णु के अवतार उकृत हैं, प्रत्येक खम्बे पर एक अवतार और एक खम्बे में वह स्थान खाली है, कलकी अवतार की प्रतीक्षा में।कितनी अद्भुत दृष्टि एवं विचारों का वितान हुआ करता था उस समय कलाकारों का। विठो जी की समाधि एवं अहिलेश्वर मंदिर के बीच के स्थान से सीढ़ीयां एक और विशाल फाटक की ओर जाती हैं। इस फाटक से बायीं ओर जाता एक थोड़ा ऊबड़ृखाबड़ रास्ता है, थोड़ा ऊपर को उठता हुआ, जो जाता है रानी अहिल्याबाई के महल की ओर। महल की बात हम करेंगे अगली पोस्ट में। अभी तो हम आपको चित्रों की दुनिया में ले चलते हैं, जहाँ आप किले की सैर करेंगे।
All pictures@ Sunder Iyer

Wednesday, October 19, 2022

महेश्वर में पहले दिन की घुमक्कड़ी

जैसा कि हमने पहले बताया हम लोग पाँच तारीख को यानि पाँच सितम्बर 2022 को महेश्वर पंहुच गए थे। रिसोर्ट में दोपहर का भोजन कर के हम लोग निकल पड़े घूमने। रिसोर्ट शहर के शोर शराबे से अप्रभावित शांत स्थल पर स्थित है। गेट के बाहर सड़क के पार एक रास्ता सप्तमातृिका मंदिर के बगल से नीचे की ओर जाता है। सीढ़ीयाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ीयों से उतर हम नर्मदा के घाट पर पहुंच गए। यहाँ से घाट-घाट ही आगे बढ़ते जाने का रास्ता है। यह छोटा सा घाट है। नीचे चौड़ी वाली सीढ़ी पर एक छोटी सी मठिया बनी है जिसमें शिवलिंग स्थापित हैं। हम लोग नदी किनारे के संकरे रास्ते पर चल दिए। थोड़ी दूर चल कर रास्ते से सटा एक लम्बा चौड़ा कच्चा चबूतरा था और इस चबूतरे से लगा थोड़ी और ऊंचाई पर बड़ा टीन शेड था जिसमें बैठने की जगह बनी हुई थी। इस टीन शेड के पीछे बायीं तरफ को ऊपर जाती सीढ़ीयाँ थी जो एक मंदिर तक जाती थीं। सीढ़ीयों के आस- पास कुछ घने- पुराने पेड़ भी थे। हम लोग जब रास्ते से जा रहे थे तो उसके पास वाले ऊँचे चबूतरे पर कंडे की आग सुलगा कर कुछ लोग बाटी सेंक रहे थे। मिट्टी पर ही ढेर लगी बहुत सारी बाटियाँ। उन लोगों ने हम लोगों को भी बाटी खाने को आमंत्रित किया। यह एक समूह था जो धार से आया था, छोटी काशी में मंदिर भ्रमण हेतु। हमें बहुत अच्छे लगते हैं ऐसे समूह। एक साथ अपने गाँव मोहल्ले से निकलते हैं तीर्थाटन के उद्देश्य से। थोड़े दिन को रोजमर्रा की चिंताओं से मुक्त और जिस भी स्थान पर जाते हैं, जाने अनजाने लोगों से खुले दिल से मिलते हैं, बतियाते हैं। हम लोग रिसोर्ट से भर पेट लंच कर के न निकले होते तो उनकी बाटियों का स्वाद जरूर चखा होता, पर उस समय तो उनसे थोड़ा बतिया कर आगे बढ़ गए।
आगे एक और घाट मिला। घाट था तो रास्ते ने चौड़ा हो कर एक समतल चबूतरे का आकार ले लिया था। नर्मदा की ओर सीढ़ीयाँ जल तक उतर गयीं थीं। सीढ़ीयाँ चबूतरे के दूसरी ओर भी थीं जो ऊपर उठती हुई एक जर्जर से दरवाजे की देहरी पर रूक गईं थीं। यह दरवाजा एक ऊंची चाहरदीवारी में जड़ा था जिसके भीतर से बड़े- बड़े पेड़ बाहर को झाँक रहे थे। दरवाजा बंद था। देह जर्जर हो गई थी पर कपाट अपने दायित्व बोध के प्रति पूरी तरह सजग थे। पता नहीं क्या था वहाँ जिसके व्यक्तिगत गोपनीयता के अधिकार की रक्षा में वे पूरी तरह से सजग थे। बड़े -बड़े पेड़ सीढ़ीयों के दोनों तरफ भी थे। सीढ़ीयों के दोनों तरफ ऊँचे चबूतर भी थे। हम लोग थोड़ी देर यहाँ रुक कर बैठे। इ्क्का- दुक्का लोग जल में स्नान कर रहे थे। सीढ़ीयों चबूतरों पर भी एक दो लोग लेटे हुए थे। एक अजब सी विश्रांति छाई थी।ऐसा असर था कि हम लोग भी बस चुपचाप बैठे थे, ऐसा लग रहा था कि उस पल, उस जगह जैसे शब्दों, आवाजों की आवाजाही पर निषेध है या फिर बेमानी से हैं शब्द। क्यों ऐसा लग रहा था पता नहीं, पर था ऐसा। कोई उद्गिनता या बेचैनी नहीं बस एक अजब सा ठहराव अनुभव कर रहे थे। जब वहाँ से उठ कर हम लोग चलने लगे तब नजर पड़ी चबूतरे की एक दीवार पर लिखा था कि इस घाट पर लोग पूर्वजों के तर्पण अनुष्ठान आदि करते हैं। तो क्या अनजाने ही कोई बात हमारे मन तक पहुंच गई थी। क्या अनुष्ठानों के श्लोकों, मंत्रों ने उतनी जगह की हवा में अपनी कालजयी उपस्थिति बना ली थी।
कुछ देर सुस्ता कर थोड़ा और आगे बढ़े। एक और घाट मिला। यह पहले वाले से अधिक व्यवस्थित था। यहाँ पर भी सीढ़ीयाँ ऊपर को जा रहीं थीं पर सीढ़ीयों के अंत में एक बड़ा फाटक था। फाटक के दोनों ओर ऊंची दीवार थी।
हम लोग फाटक के अंदर गए तो आयताकार खुले प्रांगण सें आमने- सामने दो छतरियाँ बनी हुईं थीं, जिनकी बाहरी दीवारों पर बहुत सुंदर नक्काशी थी। ये छतरियाँ अवश्य ही किंन्हीं राजसी व्यक्तित्वों की समाधियाँ रहीं होंगी, जिन पर मंदिर बने हुए थे। जिस समय हम लोग वहाँ पहुंचे मंदिर खुले नहीं थे। इनके विषय में हमें कोई विशेष जानकारी नहीं प्राप्त हो पाई, किंतु ये छतरियाँ स्थापत्य कला की अनुपम दृष्टांत हैं। दीवारों पर बनी जालियाँ, मेहराबें और दीवारों पर उकेरी आकृतियाँ सब मिल कर ऐसी शोभन लगती हैं कि वर्षों बाद इन्हें निहारते हुए हमारा मन उन अनाम कलाकारों के प्रति श्रद्धा एवं प्रशंसा से भर उठता है।
उस समय प्रांगण में हम लोगों के अतिरिक्त एक बाबा जी और थे। ये बाबा जी यात्रा पर थे। वे बिहार से यात्रा करते हुए महेश्वर पहुंचे थे। एक बैग में अपना सामान साथ लिए चल रहे थे।आगे का बहुत कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं था उनका। ऐसे लोगों से मिलने के बाद मन में बहुत कुछ उठता है। बाबा जी बहुत शांति से बैठे थे और बहुत बातें करने का मूड नहीं था उनका,वरना पूछते कहाँ से चला जीवन और कैसे यहाँ तक पहुचा। लेकिन होता है न कई बार कि हमारे भीतर का जंगल ही इतना हुआहाती होता है कि बाहर की यात्रायें भी आसानी से उससे बाहर नहीं निकाल पाती हमें।
खैर, बाबा जी को उनके अपने साथ छोड़ हम बढ़ गये प्रागंण के दूसरे सिरे पर बने एक और फाटक की ओर। फाटक तक पहुंचने को बनी सीढ़ीयों पर चढ़ हम फाटक के दोनों ओर बने चबूतरों में से एक तक पहुंच कर बैठ गए।वहाँ बैठे हुए चारें ओर देखते, वातावरण को आत्मसात करते ऐसा लग रहा था जैसे हम इतिहास के किसी बिसरे सफे पर ठिठक गए हों। दीवारों के कंगूरों पर मौसम दर मौसम बारिश की भेंट शैवाल हरियल घाघरा फैलाए जम कर बैठी थी। कहीं कहीं बीच-बीच में इक्का- दुक्का पौधे भी सिर उठाए खड़े थे। दीवार पार से कुछ बड़े और बहुत पुराने पेड़ों की शाखाएं भी अंदर को झांक रहीं थीं। एक अजब सी शांति और ठहरापन था वातावरण में। थोड़ी देर में फाटक से निकल कर एक और बाबा जी आए और फाटक के दूसरी तरफ वाले चबूतरे पर बैठ गए। इन बाबा जी ने स्वयं ही बातों का सिलसिला शुरू किया और काफी देर बतकही हुई। वर्तमान में बाबा जी सपत्नीक महेश्वर में ही निवास करते हैं पर महेश्वर न उनका पैतृक निवास स्थल है, न ही वे किसी पूर्व योजनानुसार वहाँ आ कर बसे । कुछ यूं समझिए कि महेश्वर ने उन्हें एक बार आने पर जाने ही नहीं दिया। बाबा जी के घर में एक पारिवारिक दुर्घटना के कारण दोनों पति- पत्नी का मन बहुत व्यथित था। उसी समय उनके गाँव घर के आस- पास से कुछ लोग नर्मदा परिक्रमा के लिए निकलने वाले थे तो बाबा जी और उनकी पत्नी भी उनके साथ हो लिए। मैया नर्मदा ही मन की हलचल को शांत करने का कोई रास्ता निकालेगीं। उस क्षेत्र में माँ पर ऐसा ही अगाध विश्वास है लोगों का और माँ भला कब निराश करती हैं। परिक्रमा करते हुए यह समूह पहुंचा महेश्वर। जैसी की प्रथा है परिक्रमावासियों को लोग रुकने का स्थान भी देते हैं और उनके खाने- पीने की व्यवस्था आदि भी अपनी सामर्थ्य अनुसार करते हैं। तो महेश्वर के एक परिवार ने भी इन लोगों का आथित्य सत्कार किया। हुआ कुछ यूं कि उसी दौरान मेजबान पति- पत्नी मोटर साइकिल से कहीं जा रहे थे कि रास्ते में दुर्घटना हो गई। परिक्रमावासी जो लोग उनका आथित्य ग्रहण कर रहे थे उस स्थान तक गए और दम्पति को घर तक लाए। दोनों लोगों को बहुत चोट आई थीं। घर में छोटे बच्चे थे। परिक्रमावासी दो- चार दिन तो वहाँ रुके, उनकी सहायता की तदोपरांत अपनी बाकी की परिक्रमा पूरी करने को जाने के लिए तत्पर हुए। दम्पति ने उनसे कुछ दिन और रुकने का आग्रह किया किंतु अब वे लोग अपनी परिक्रमा पूरी करने को आतुर थे। बाकी सब लोग तो आगे बढ़ गए किंतु बाबा जी और उनकी धर्मपत्नी ने निश्चय किया कि वे रुकेंगें और जब वह दम्पति पूर्णतया स्वस्थ हो जाएंगे तब फिर वे अपनी परिक्रमा पूरी करने के लिए जाएंगे। तो बाबा जी सपत्नी उनके यहाँ तकरीबन तीन- चार माह एकदम घर के सदस्यों की भाँति रहे और उन सज्जन और उनकी पत्नी की देखभाल अपने स्वयं के बच्चों के समान की। उनके स्वस्थ हो जाने पर जब बाबा जी परिक्रमा पर जाने को उद्दत हुए तो उन सज्जन ने बाबा जी से अनुरोध किया कि वे परिक्रमा पूर्ण कर के पुनः वहीं आयें और रहें।बाबा जी परिक्रमा पर निकले थे घर से अपना छोटा बेटा सदा के लिए खो देने के बाद और उन्हें यहाँ महेश्वर में जैसे एक और बेटा मिल गया था, वह भी बहु और बच्चों के साथ। यद्यपि बाबा जी के घर में उनका बड़ा बेटा- बहु और उसके बच्चे थे, बाबा जी का अपना घर आदि भी था, किंतु दोनों लोगों का जैसे वहाँ से मन उचाट हो गया था। परिक्रमा पूरी करने के उपरांत बाबा जी पत्नी सहित महेश्वर में ही आ बसे। उनका अपने स्वयं के बेटे से संपर्क है, शायद कभी कभार जाना- आना भी होता है किंतु अब वे महेश्वर में रह कर एक मंदिर की देख- भाल करते हैं और पूजा- पाठ में व्यस्त रहते हैं। कैसी- कैसी होती हैं जीवन यात्रायें और जीवन सचमुच यात्रा ही है। सामने प्रवाहित होती माँ नर्मदा जैसे अपनी झिलमिल मुस्कारहटों में यही कह रहीं थीं,रूक जाय सो जीवन कहाँ। जब जो थमाये नियति उसे सहजता से स्वीकारना ही सार है जीवन का।
उसके बाद हम बाबा जी के साथ बड़े फाटक के अंदर गए और एक प्राचीन शिव मंदिर के दर्शन किए।
दूसरी तरफ के गेट से निकल हम भर्तहरि गुफा पंहुचे। ऊंची चाहरदीवारी के भीतर एक बहुत बड़ा वृक्ष था, जिसके चारों ओर ऊंचा चबूतरा था। जिस चबूतरे पर कुछ पुरानी मुर्तियाँ स्थापित थीं। वृक्ष के एक तरफ था केदारेश्वर मंदिर। कुछ बहुत भव्य इमारत नहीं, नीची छत वाले एक छोटे से कमरे में जो शायद पहले कभी गुफा रहा होगा शिवलिंग स्थापित था। शिवलिंग भव्य था और वहाँ कि शांति, बाहर पेड़-पौधे उस स्थान को तपोवन सी गरिमा प्रदान कर रहे थे। इसी के पास थी भर्तहरि गुफा। यहां एक देवी जी स्थापित थीं। बाबा जी के ही सौजन्य से हमें यह जानकारी प्राप्त हुई कि इन्हीं देवी के सम्मुख, इसी गुफा में राजा भर्तहरि ने तपस्या की थी। इस गुफा को भी थोड़ा काट-छाँट कर, पुताई कर के व्यवस्थित सा कर दिया गया था। इस गुफा की दीवारों में दो ओर दो सुरंगे बनी थी, जो इस समय बंद थीं। बताया जाता है कि इस गुफा से भीतर ही भीतर एक सुरंग उज्जैन और दूसरी ओंकारेश्वर को जाती थीं। हम लोगों ने ओंकारेश्वर में शंकराचार्य वाली गुफा में भी एक रास्ता, सीढ़ीयों जैसा ऊपर को जाता दिखा था. कैसा रहा होगा वह समय और इन सब स्थानों का उस समय का स्वरूप, घने जंगल, ऊँचे पेड़, गुफायें, भीतरी रास्ते और पद यात्रा करते लोग- तपस्वी, तीर्थयात्री और बाहर से अधिक भीतर की यात्रा करते लोग। कितना कुछ खोजा है हमारे मनस्वियों ने सृष्टि के विषय में, सृष्टि को संचालित करती उस महाशक्ति के बारे में, मनुष्य के अपने भीतर के गव्हरों के बारे में।
वहाँ से निकल कर हम सड़क पर आए तो बगल में दिखा एक वृद्धाश्रम। आश्रम के बाहर एक विशाल पेड़ था, ऊँचे चबूतरे वाला। उस चबूतरे पर कुछ महिलाएं और लड़कियाँ बैठीं थीं।थोड़ी देर उनसे बतियाये। सुंदर ने कैमरा फोकस किया तो लड़कियाँ तो धीरे से उठ किनारे हो गईं पर माता जी ने खूब खुश हो कर फोटो खिचवाई भी और कैमरे के स्क्रीन पर देखी भी। फोटो देख कर मुंह पर आंचल रख जो शरमाईं हैं न कि हम सब खिलखिला पड़े। चाहे बच्चियों का थोड़ा झिकझिकते हुए कैमरे के फोकस से बाहर जाना हो या माता जी का शरमाना, आज के समय में ऐसे अनुभव मन पर जेठ के बाद की पहली बारिश सा सोंधापन भर जाते हैं।
उन्हीं लोगों ने सामने ऊपर को जाती सीढ़ीयाँ दिखा कर बताया कि सामने गणेश मंदिर है। हम लोग मंदिर गए। वहाँ दो व्यक्ति घणेश जी का श्रृंगार करने की तैयारी कर रहे थे। उन लोगों ने बताया कि गणेश चतुर्थी वाली दस दिन की अवधि में प्रति दिन अलग- अलग तरीके से गणेश जी का श्रंगार करते हैं। हम लोगों को संध्या आरती के समय पुनः वहाँ आने का निमंत्रण भी दिया। मंदिर बहुत बड़ा या भव्य नहीं था किंतु तरह- तरह के वृक्षों से घिरे खुले स्थान में बना छोटा सा मंदिर शांत और सुरम्य था।
दिवस का अवसान समीप था और अब तक हम लोग काफी थक भी गए थे तो वापस रिसोर्ट की ओर चल दिए। गणेश जी की संझा आरती में हम लोगों रिसोर्ट में शामिल हुए। ऐसा रहा महेश्वर में हमारा पहला दिन, स्थापत्य कला के अनुपम दृष्टांतों में डूबते उतराते, इतिहास के कतिपय भूले- बिसरे पन्ने पलटते, मंदिरों की पावन देहरियों पर माथा टेकते और अलग- अलग लोगों के बीच जीवन के अनुभव सहेजते। यात्रायें, सच कितना कुछ सिखाती हैं, कितना कुछ दे जाती हैं। All pictures@ by Sunder Iyer

Saturday, October 1, 2022

महेश्वर में नर्मदा रिसोर्ट

हम लोग पाँच तारीख को तकरीबन दोपहर एक बजे महेश्वर मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग के गेस्ट हाउस नर्मदा रिसोर्ट पंहुच गए थे। गाड़ी से बाहर आते ही एक नजर गेस्ट हाउस पर पड़ी और मन प्रसन्न हो गया। चेक इन टाइम दो बजे का था और हमारा कमरा अभी साफ हो रहा था अतः रिसेप्शन पर फॉर्मेलिटी पूरी कर के हम लोग चाय पीने के लिए पीछे की तरफ चले गए। बाहर काँच के पार नर्मदा का चौड़ा पाट दिख रहा था। हम लोग जहाँ बैठे थे वहाँ से बाहर खूब बड़ा खुला टेरस था जिसके बाद बस थीं तो नर्मदा, दूर- दूर तक। हम लोग तीन दिन महेश्वर में रहे और भोर के धुंधलके, अलस सुबह के फूटते उजास, नभ से धीरे- धीरे नर्मदा पर उतरती साँझ से ले कर खूब खिले चाँद वाली रात तक, गरज यह कि दिवस के हर मूड को हमने इस टेरस और टेरस के बगल से सीधे नर्मदा तक जाती सीढ़ीयों पर जिया और खूब छक कर जिया। टेरस और सीढ़ीयाँ ही क्यों नर्मदा और जल में स्थित बाणेश्वर मंदिर के दर्शन तो हमें अपने कमरे से भी होते थे।चाय का कप ले कर टेरस पर खड़े हो या फिर नीचे उतर कर सीढ़ी पर बैठे हो.ऐसा लगता था हम किसी बड़े से समुद्री जहाज पर सवार हैं और जहाज हौले- हौले नर्मदा पर डोल रहा है। हम लोगों ने पहले दिन का सूर्योदय वहीं रिसोर्ट से देखा था, सीढ़ीयों पर बैठ कर। ओस में भीगी ताजा भोर, आस-पास की घास और अनाम वनस्पतियों से उठती गंध, गुलाबी, लाल, पाीले आंचल लहराती, आकाश के सीने पर अपने नाजुक पंजों पर धीरे- धीरे डोलती किरणें, सामने बाणेश्वर मंदिर की उजागर होती आकृति,दूर नर्मदा के जल पर तिरती नावें और इस चमत्कारिक क्षण को अपने भीतर बूंद बूंद उतारते हम - अहा, कैसी तो शांति में डूब गए थे मन प्राण। उस दिन थोड़ी -थोड़ी दूरी के अंतर में अलग- अलग सीढ़ीयों पर बैठे थे हम सब और फिर गाया था भजन। इतनी अलौकिक ्अनुभूति थी, वर्णननातीत। ऐसे ही उस चाँद वाली रात टेरेस पर बिताए गए पल भी जैसे सपनों की नीली रौशनाई में डुबो लिखे गए थे। नीचे नर्मदा अंधेरे में डूबी थी पर हवा के हर झोकें में उसकी छुअन थी। नर्मदा के उस पार किनारे पर कहीं- कहीं बत्तियाँ तारों सी टिमटिमा रहीं थीं। दूर कहीं कोई मल्लाह कुछ गा रहा था। शायद अकेला नर्मदा में नाव खेते अपने भीतर के किसी अनजाने द्वीप की यात्रा कर रहा था। ऐसे ही हैं एक दोपहर के कुछ पल जो खाना खा कर कमरे में लोटते समय, लॉन के पास वाले बड़े पेड़ के चबूतरे पर बिताए थे। वैसे भी हमें सुनहरी, शांत दोपहरें, बड़े बड़े छायादार पेड़ों के बीच बहुत मनभाती हैं। तो उस दिन भी दोपहर कुछ ऐसी थी। एक आध माली ल़ॉन में काम कर रहे थे। ताजा कटी हुई घास के ढेर से भीनी खुशबू उठ रही थी। कुछ बेमकसद कीट- पतंगे दोहपर की शांति में अपनी गुनगुनाहटें बिखेर रहे थे। उनकी गुनगुन चारों ओर पसरी शांति को जैसे और गहरा रही थी। महेश्वर के नर्मदा रिसार्ट की बात करें और वहाँ के डाइनिंग हॉल के विषय में कुछ न कहें तो बात पूरी नहीं होती। डाइनिंग हॉल का नाम है हैंडलूम कैफे और यह नाम बहुत कलात्मक तरीके से धागों के द्वारा लिखा गया है। हमने जब पहली बार इसे देखा और पढ़ा तो सोचा कि रिसोर्ट के भीतर ही कोई महेश्वर हैंडलूम का शो रूम वगैरह है। भीतरी सजावट भी बहुत कलात्मक है। लूम की पूनियों से बनी हुई वॉल हैंगिंग, सीलिंग से लटकते झाड़फानूस आदि सबमें कपड़ा बिनाई में प्रयुक्त होने वाली चीजों का ही उपयोग किया गया है। हम लोगों ने इस रिसोर्ट मे अपने दिन बहुत इंज्वॉय किए। यहाँ के स्टाफ का व्यवहार भी बहुत ही अपनत्व से भरा था। यूं भी वो गणपति बप्पा के दिन थे तो रोज शाम रिसेप्शन वाले हॉल में धूप. दीप, अगर के साथ आरती होती थी, प्रसाद वितरण होता था। दस दिन के लिए बप्पा स्थापित थे वहाँ। हमें तो चहुं ओर बप्पा और मैया की ही कृपा बरसती नजर आ रही थी।
यह पहला वह दृश्य था जो रिसोर्ट पंहुचने पर हमने देखा।
भोर की प्रार्थना, रिसोर्ट की सीढ़ीयों पर बैठ
एक और सुबह उन्हीं सीढ़ीयों पर
कमरे के बाहर से ही दिखता मनभावन दृश्य
रिसोर्ट में वह दोपहर
रिसोर्ट के डाइनिंग हॉल की कलात्मक साज-सज्जा की कुछ झलकियाँ
रिसोर्ट से ही सुबह- सबेरे बाणेश्वर महादेव के दर्शन
और जब उतरी साँझ
एक सुबह ऐसी भी All pictures @Sunder Iyer

Tuesday, September 20, 2022

यात्रा के दूसरे दिन का प्रारम्भ -- ओंकारेश्वर 2

05.09 22 -- यात्रा के दौरान हम लोग वैसे भी जल्दी उठ जाते हैं। असल में जितना अधिक हो सके उस स्थान की आत्मा, अलग- अलग पहरों में उसके भिन्न रंगों को आत्मसात करने की ललक रहती है,न। हाँ तो, नहा- धो कर हम लोग छत पर आ गए। रात हमने अंधियारे के सागर में रौशनी के द्वीप सरीखे ओंकारेश्वर के दर्शन किए थे और इस समय सामने था भोर के फूटते उजास में खिलते कमल सा ओंकारेश्वर। अभी सूर्य भगवान नेपथ्य में ही थे पर स्वर्णिम आभा ने बाअदब, बामुलाहजा की आवाज लगानी प्रारम्भ कर दी थी। प्रतापी सम्राट किसी भी पल राजसभा में पधारने वाले थे। मंदिरों से आती शंख, घंटो की मद्धम आवाजें हवा में लहरा रहीं थीं। हल्के उजियारे में नहाई नर्मदा की कोमल तन्वंगी काया मन पर चंदनी लेप कर रही थी। हम लोगों ने निश्चित किया था कि नाश्ता वगैरह ओंकारेश्वर भगवान के दर्शन के बाद ही करेंगे, सो हम लोग मंदिर की ओर चल पड़े। इस बार हम झूला पुल पर से हो मंदिर तक पहुंचे। यद्यपि अभी दर्शनार्थियों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी फिर भी पर्याप्त आवा-जाही प्रारम्भ हो गई थी। पुल पर फूल, प्रसाद की दुकानें सज गईं थीं। हम लोगों ने भी पुष्प आदि लिए और गर्भगृह की ओर प्रस्थान किया। एक पंडित जी को साथ ले हमने भगवान को जल अर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त किया। बड़ा सा चमचमाता काँसे का लोटा और जल आदि का प्रबंध पंडित जी ने ही किया था। हमने अपनी पहली पोस्ट में भी जिक्र किया था कि ओंकारेश्वर में प्रसाद-पुष्प आदि के मूल्य और पंडितों के व्यवहार से हम अत्यंत प्रभावित हुए थे और इन पंडित जी के आचरण ने भी हमारी धारणा को पुष्ट किया। मुख्य गर्भगृह मध्य वाली मंजिल में है।
वह मंजिल जिस पर ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर स्थापित है। वहाँ से कुछ सीढ़ीयाँ चढ़ कर एक गलियारा आता है जिसमें भगवान भैरव जी का स्थान है और एक स्थान पर शिवलिंग स्थापित हैं, जहाँ एक परिवार को पंडित जी कोई पूजा आयोजन करा रहे थे। इस गलियारे में दीवारों पर कुछ प्रचीन मूर्तियाँ मिलीं जो मंदिर की प्राचीनता की एक मात्र गवाह हैं,वरना तो समय और समय की माँग के साथ-साथ मंदिर में बहुत सा नवीनीकरण हो गया है, जो कि बहुत सी दृष्टि से आवश्यक भी है।
भैरव महाराज
मंदिर की बाहरी दीवार पर बनी एक प्रतिमा। यद्यपि वस्त्र आदि से अलंकृत होने के कारण पूर्णतया दिखलाई नहीं पड़ रही किंतु दीवार पर उकेरी गई प्रतिमा प्रचीन है, ऐसा पता लगता है।
मंदिर की बाहरी दीवार पर एक खंडित मूर्ति। थोड़ी और सीढ़ीयाँ चढ़ कर हम लोग मंदिर की सबसे ऊपरी मंजिल पर पंहुंचे। यहाँ पर भगवान महाकालेश्वर स्थापित हैं। इस मंजिल पर उस समय बहुत अधिक लोग नहीं थे। एक ओर गर्भगृह में शिवलिंग है और सामने दरवाजे के बाहर नंदी महाराज विराजमान हैं।
महाकालेश्वर का स्थान नंदी महाराज के पीछे खूब बड़ा खुला- खुला सा बरंडा है, जहाँ पंडितों द्वारा हवन आदि कराने की व्यवस्था हो जाती है और इस बरांडे के आखिरी सिरे पर चारदीवारी पर स्थापित है भोले बाबा के विराट त्रिशूल और डमरू। यहाँ हम लोगों को मिली नन्हीं वैष्णवी। बमुश्किल पाँच-छः वर्ष की वैष्णवी, चंदन के टीके की कटोरी ले कर घूम रही थी, यात्रियों को टीका लगाती। यद्यपि वैष्णवी से बात कर के अच्छा लगा पर उसके विद्यालय न जाने की बात सुन कर मन थोड़ा दुःखी हुआ। ऐसा नहीं है कि सारी समझदारी किताबी पढ़ाई करने से ही आती है, किंतु एक नीव तैयार हो जाय तो विवेक को जागृत होने के लिए हवादार वातायन तो मिलता ही है।
महाकाल के सम्मुख बड़ा- खुला बरांडा। यहाँ से चारों ओर का विहंगम दृश्य दिखता है और अपूर्व शांति का अनुभव भी होता है।
महाकाल वाले बरांडे में त्रिशूल
वैष्णवी के संग
बरांडे में रखी कुछ मूर्तियाँ
बरांडे से दिखता नर्मदा नदी, झूला पुल का मनभावन दृश्य और ओंकारेश्वर मंदिर के नीचे एक अनमोल खजाना है, जहाँ अधिकतर यात्री जाते ही नहीं हैं। नीचे उतर, बाहर से रास्ता है एक गुफा का जिसमें आदि शंकराचार्य ने तप किया था। वे रुके थे इस गुफा मे। आज भी गुफा में पुरानी मूर्तियाँ और स्तम्भ आदि हैं जिन्हें धातु के गर्डिल आदि से सहारा दे कर संरक्षित किया गया है। सारी गहमा-गहमी और बाजार के कोलाहल के बीच यह शीतल शांति द्वीप मन को ऊर्जावान तो कर ही गया साथ ही हम श्रद्धानत हो गए एक बार फिर उस महान व्यक्तित्व के सम्मुख जिसने कश्मीर से कन्याकुमारी तक हमारे देश को एक सूत्र में बाँध दिया था। कैसे यात्राएं की होंगी इस महान योगी ने उस समय? कितनी दृढ़ इच्छाशक्ति, कैसा तप? सच अद्भुत है हमारी माटी, कैसे- कैसे रत्नों की खान।
हम ओंकारेश्वर में मांधाता द्वीप की परिक्रमा नहीं कर पाए थे। सुना है दो मार्ग हैं परिक्रमा के एक बड़ा और एक छोटा। परिक्रमा पैदल ही की जा सकती है। कई पुराने और सुंदर मंदिर हैं इस मार्ग पर । काफी बड़ा मार्ग है और उतार- चढ़ाव वाला भी। मंदिर दर्शन के उपरांत हम लोग गेस्ट हाउस आए। नाश्ता किया और फिर निकल पड़े अपने अगले पड़ाव महेश्वर की ओर।
लौटते समय पुल से नर्मदा मैया का भव्य स्वरूप All photos by Sunder Iyer