Friday, May 24, 2013

२४.५.८०
आज SHAR के Sea Beach और SPROBगये.सुनसान चिकनी सड़क.दोनों ओर हरियाली फ़ैलाते हुये जंगल और उस शांत सड़क पर लम्बी drive.बहुत अच्छा लग रहा था फ़िर भी मन उस तरह से उल्लासित नहीं हो रहा था.जिन प्राक्रितिक द्रिश्यों को देख कर मेरा मन इस दुनिया के दमघोंटू वातावरण से दूर कल्पना के पंखों पर सवार हो अपना ही एक अलग संसार बना थिरकने लगता था उसे अब सब कुछ सुखद लगते हुये भी कल्पना की दुनिया का वह उल्लास नहीं मिलता.शायद जैसे जैसे चारों ओर की वास्तविकता की समझ बढती जाती है मन के स्वयंएव खुश रहने के क्षमता कम होती जाती है.SPROB घूमा पर Sea Beach पहुंचने से थोड़ा पहले ही कार खराब हो गयी.एक बार के लिये तो सब लोग घबरा गये कि इस जंगल में तो कोई सहायता भी नहीं मिलेगी,घर कैसे पंहुचेंगे पर खैर अंततः security department की एक jeep last round पर थी ,वह हमें मिल गयी. उसी के पीछे रस्से से कार बांध कर लायी गयी.बड़ा मनोरंजक अनुभव था.समुद्र के किनारे का द्रिश्य तो हमें सदैव ही रोमांचित करता रहा है.सुनसान जन विहीन sea beach  पर पसरा हुआ सन्नाटाऔर किनारे पर बार बार सर पटक कर लौटती हुयी लहरों का गर्जन.ऐसा लगता था ये उद्दाम लहरें अपने अकेलेपन की शिकायत कर रही हैं और तभी बार-बार दौड़ कर किनारे का आलिंगन करने आती हैं.कितनी कलक,कितनी छटपटाहट होती है उनके दौड़ कर आने में पर समुद्र बार बार उन्हें अपनी सीमा में वापस ले जाता है.ये सीमायें,ये बन्धन,सच ,ये ही तो जन्म देते हैं इस छटपटाहट को .
किनारे पर खड़े casorina  के पेड़ साक्षी हैं लहरों की इन पीड़ा के.कितने पास होते हुये भी वे वंचित रहते हैं लहरों के स्पर्शों से.केभी कभी जब इन मचलती लहरों के सीनों में भावनाओं का झंझावत जोर मारता हैतो वे सारी सीमाओं के बंधन तोड़ ,वेग से भागती हैं और अपने मीत [casorina trees] के चरणों में सर रख असीम शांति का अनुभव करती हैं . सच कितनी शीतलता होती है उन स्पर्शों में .सारी उत्तेजना,क्रोध,चिंता,आवेग,आक्रोश एवं दुख आंखों के रास्ते गल गल केर बह जाता है.जब शांत हो जाती हैं तो पुनः अपनी सीमाओं में लौट जाती हैं और फ़िर प्राम्भ हो जाता है पीड़ा और छटपटाहट का लम्बी सिलसिला.सीमा तोड़ कर जो असीम सुख प्राप्त करती हैं उसे छोड़ कर फ़िर क्यों लौट जाती हैं उसी वेदना को गले लगाने.शायद आवेग में सीमा तोड़ कर कुछ कर बैठना हितकारी नहीं होता पर सीमा के अंदर  वह पावन सुख क्या मिल पाता है? यही तो अनुत्तरित प्रश्न चिन्ह हैं जीवन के.
जब कार बिगड़ गयी तो यह दुःख हुआ कि इतने पास आ कर भी समुद्र नहीं देख पायेंगे .पास आ कर छिन जाने की पीड़ा तो असहनीय होती ही है.पर जितनी देर जीप रस्साअ लेने गयी उतनी देर में केसोरिना के पेड़ों के बीच से गुजरते हुये ,डालों को हटा कर,संभल.सभंल पैर रखते हुये किसी अद्रिश्य,अनुपस्थित बांह की कल्पना आगे बढाती रही.हम गये थे यह सोच कर कि लहरों के किनारे बैठ कर कुछ उनकी व्यथा सुनेगें ,कुछ स्वंय को दुलरायेंगे पर इइश्वर को कुछ और ही स्वीकार था.कभी कभी लगता है झलक दिखला कर वंचित कर देना ही तो  कतिपय जीवनों का प्राप्य नहीं होता.

1 comment:

अभिषेक मिश्र said...

सागर किनारे की अनुभूतियाँ अलग सी ही होती हैं। अच्छा लगा यात्रा वृतांत और ब्लॉग आपका...