Friday, December 21, 2012

देवा मेले में बचपन

देवा मेले में अधिकांश भीड़ आस पास के ग्रामीण अंचलों से आती है। चाहे मेले में दस दिन तक लगने वाली दुकानों को लेकर आये दुकानदारों के परिवार हों या फ़िर मेला घूमने आये परिवार,  सबमें बच्चे होते हैं और मेरे लिये ये बच्चे इस मेले का बहुत बड़ा आकर्षण थे। उनका भोलापन, उनकी उत्सुक्ता, उन्मुक्तता और बिना किसी बनावटीपन के निखालिस स्वाभाविक आचरण जैसे हमे जीवन के और करीब ले आये।
मेले में जी गयी इन कही अनकही कहानियों को हमने अपने मन में पर्त दर पर्त वैसे ही सहेजा जैसे कभी छत पर, रास्ते पर कहीं भी पड़े मिल जाते चिड़ियों के लाल-पीले-धानी-गुलाबी पंखों को किताब के पन्नों में, मुलायम हाथों से धीरे से दबा कर रखते थे। कितना अनमोल खजाना होते थे वो पंख, जो हमारे लिये इंद्रधनुष को जमीन पर उतार लाते थे और फ़िर सहेलियों के झुरमुट के बीच किसी तिलस्मी खजाने को चाभी लगाने जैसी गर्व मिश्रित खुशी से जब आहिस्ता से किताब का पेज पलटा जाता था,  तो बाकी सखियों के मुंह से निकलती वह आह, उनकी आंखों से टपकती खुशी के पीछे कहीं दबी हल्की सी ईर्ष्या और चाह,  भीतर तक अमीर कर जाती थी। बिना बांटे खुशियां अधूरी रह जाती हैं न, तो फ़िर चलें मेले के उन क्षणों को एक बार फ़िर से जीने। तो हम अब पन्ने खोलना शुरु करते हैं,



इस तस्वीर में यूं कुछ खास नहीं लग रहा है न। है भी आम सभी मेलों में दिखने वाले दृश्यों की तरह का एक दृश्य। बड़े बड़े झूले और झूलों में झूलते बच्चे।  पर सामने यह जो झूला दिख रहा है न,  इसमें मिला हमें अपना पहला रंगीन पंख।  इसमें छोटी-छोटी कारें थीं, गोल गोल चक्कर में तेजी से घूमने वाली। इन्हीं में से एक में बैठे थे एक छोटे से साहबजादे। बिल्कुल नयी नकोर चटक रंग की पूरी आस्तीन की कमीज, सबसे ज्यादा ध्यान खींच रहीं थी मोटे मोटे काजल से अंजी आंखें। आंखों के नीचे से मोटी सी काजल की लकीर आंखो के कोनों से कान की ओर खिंची हुयी। अपनी विषेश रूप से हुयी साज सज्जा का पूरा एह्सास था उन्हें और जब झूले की कार पर बैठाला झूले वाले ने,  तो स्टियरिंग को दोनों हाथों से पकड़ कर थोड़ा तन कर बैठते हुये, मुस्कुरा कर देखा उन्होंने घेरे से बाहर खड़े अपने पिता और माता जी को। रूके हुये झूले पर बैठे साहबजादे का अन्दाज देख ऐसा लग रहा था कि सारी दुनिया उनके ठेंगे पर। क्या अकड़ थी, क्या रोब था। एक आध बच्चों के और बैठने पर झूला चलना शुरु हुआ। झूले के गोल गोल घूमना शुरु करते ही उनके चेहरे के भाव बदलने लगे। भीतर उठते डर के बगूले को वह भरसक दबाने का प्रयास कर रहे थे पर जैसे जैसे झूले की गति बढ़ती जा रही थी और किनारे खड़ी मम्मी धुंधलाती जा रही थी, साहस का दामन भी हाथ से छूटता जा रहा था। बड़े वेग से फ़ूटती चली आ रही रुलाई को भीतर ही भीतर दबाने के सारे प्रयास विफ़ल हो रहे थे। मुंह से निकल बाहर आने को बेताब चीखों को तो उन्होंने किसी तरह दबा रखा था पर ये बेमुराद आंसू नहीं माने तो नहीं माने और काजल की देहरी तोड़ गालों तक लुढ़क ही आये और जैसे ही रुकने के लिये धीमा हुआ झूला और पापा के बढे हाथों ने थामा उन्हें,  बुक्का फ़ाड़ के रो पड़े बच्चू मियां गले मे बांहे डाल, छाती से चिपट--न झूला, न मेला, न कार, सबसे ऊपर पापा की गोदी, मम्मी का प्यार। 

ये परिवार मेले में अपनी छोटी सी दुकान लगाये हुआ था। देवा मेला दोपहर से शुरु होता है और लगभग पूरी रात चलता है। दुकानें भी पूरी रात खुली रहती हैं। हम लोग जब मेले में पंहुचे थे तब कुछ दुकानें खुल चुकी थीं और कुछ खुलने की तैयारी में थीं। ये मां भी बच्चों को तैयार कर रही थी क्योंकि मेले में आमद रफ़्त होने लगी थी। बचपन दो कदम पीछे ठिठकने लगे और सामने से किशोरावस्था लुक-छिप आवाज देने लगे तो लड़कियों का आइने से इश्क दीगर सी बात हो जाती है। हमारी इन मुनिया रानी का भी कुछ ऐसा ही दौर शुरु हो गया है। भाई को लगा कि दीदी तो शीशे में खुद से मुखातिब है तो मौके का फ़ायदा उठाया जाय और उसके हाथ का खिलौना पार कर लिया जाय पर दीदी की पकड़ खिलौने पर भी है और अपने चेहरे से नज़र हटाये नहीं हट रही। मां की नजर कैमरा फ़ोकस करते सुंदर पर पड़ी तो बच्चों के प्रति लाड़ और परिवार होने का सुख मन से होठों तक पसर गया।


इस गाड़ी के साथ मेले में आये थे और अभी-अभी खरीदा है ये हवाई जहाज। इस गाड़ी को यहां खड़खड़ा कहा जाता है और अम्मा बताती हैं कि पहले इसमें लकड़ी के चक्के लगते थे। अब तो बाबू ने टायर लगवा लिये हैं इसमें। सुनते हैं ऐसे ही बदलता है सब कुछ धीरे धीरे। देखो, आज ये हवाई जहाज हमारे हाथों में है और एक दिन हम किसी हवाई जहाज में होगें। सपनों को पंख देंगें तभी तो उड़ान भी मयस्सर होगी और आसमान भी.-----आमीन।

इस बच्ची ने तो सच मेरा दिल जीत लिया। इसकी दुकान में सजी रंग बिरंगी लिपिस्टिक, बिंदी, क्रीम, पाउडर की शीशियों और डिब्बों से ज्यादा आकर्षित कर ही थी यह नन्हीं सी बिजनेस वूमेन। बहुत सलीके से सजी संवरी यह गुड़िया अपनी दुकान की कन्वेसिंग बिना बोले ही कर रही थी।



इन दोनों को देखते ही हम बरबस मुस्कुरा उठे। हमें अपने बचपन के वे दिन याद आ गये जब हम बहनें एक जैसी ही प्रिंट वाली फ़्राक्स पहनते थे और ऐसा मोहल्ले के हर घर में होता था। एक साथ ही सब बच्चों के कपड़े बनते थे और वह भी त्योहारों या फ़िर किसी विशेष शादी -ब्याह के मौके पर। ये दोनों भी एक ही परिवार के बच्चे थे, सर से पांव तक एक ही तरह की साज सज्जा में लैस। इनके आकर्षण का केंद्र उस समय थीं वे घड़ियां जिन्हे घड़ी बेचने वाले ने पानी के टब में डाल रखा था यह साबित करने के लिये कि वे पानी में भीगने के बाद भी खराब नहीं होतीं। कुछ देर तक बहुत ध्यान और आश्चार्य से घड़ियों को देखने के बाद छोटे भाईजान कोई जुगाड़ सुझा रहे थे बड़े वाले को जिससे कम से कम एक घड़ी तो खरीद ही लें वे। बड़े वाले अपने पद की पूरी गरिमा के साथ खासे गम्भीर हो सुन रहे थे भाई की बात। बचपन का मन भी न, जंगल में लगी खट्टी- मीठी बेरी सा होता है- चंचल, चटपटा, अपने आप में खुश, इर्द-गिर्द फ़ैले कांटो और जंगल से बेखबर।     




इन बच्चों की वेश भूषा और तौर तरीकों ने बचपन में गांव मे आते गाड़िया लोहारों या कहें बंजारों की याद दिला दी। इनकी मातायें मेले में सामान बेचने आयीं थीं। छोटे छोटे प्लास्टिक के मनकों से ब्रेस्लेट आदि बना रही थीं। मेले की इस गली में सरकस, टेंट सिनेमा, जादूगर का खेल, मौत का कुंआ, नाच के कार्यक्रम आदि के तम्बू और स्टेज  लाइन से लगे हुये थे। बच्चों की मातायें इन्हीं के सामने जमीन पर कपड़ा बिछा अपना साजो सामान रख कर बैठी थीं और ब्रेस्लेट पुहती भी जा रहीं थीं और बेचती भी। ये बच्चे आस पास खेलते हुये घूम रहे थे। सरकस वाले तम्बू का आकर्षण उन्हें उसके बंद गेट तक खींच लाया। बाहर से अंदर चलता हुआ खेल तमाशा दिखायी तो नहीं पड़ता पर एक झलक पा जाने की कोशिश करने में क्या बुराई है और अगर जब कहीं किसी बीच जो कुछ थोड़ा सा दिख जाता है न तो उस आनंद का क्या कहना। थोड़े में ही खुश हो लेने की इन बच्चों की सामर्थ्य कितना कुछ सिखा जाती है।

मेले की इस लाइन में तम्बुओं में स्टूडियो सजे हुये थे। तम्बू के भीतर पर्दे और कटआउट की सहायता से एक कोने में आसमान जमीन पर उतारा गया था तो दूसरी ओर ढेर सारे प्लास्टिक के रंग बिरंगे फ़ूल-पत्तियों से बाग बगीचे सजाये गये थे। एक तरफ़ मोटरसाइकिल थी तो दूसरी ओर झूला। तरह तरह के बैकग्राउंड थे, आप किसी मे भी फोटो खिंचवाइये और दस मिनट में प्रिंट ले लीजिये। ये बच्चे भी मेले में छोटा मोटा समान बेचने आये परिवार के बच्चे थे। तम्बू स्टूडियो के बाहर बुकिंग काउन्टर पर शीशे के नीचे कुछ खींची गयी तस्वीरें लगी हुयी थी। ये बच्चे उन्हीं तस्वीरों को देख रहे थे, तम्बू मे लगा सिनेमा देखने को मिले य न मिले पता नहीं, पर जो मिल रहा है उसे तो देख ही लिया जाय। अभाव तो बहुत हैं पर धूसर फ़ैलाव में रंगों के छींटे मारने के तरीके भी अपने ही आप सीखने होते हैं।

जादूगर के खेल की एक झलक पाने के इनके तरीके का क्या कहना.ये बच्चे तो मेला देखने आये थे, लेकिन हर खेल तमाशा टिकट ले कर मां-बाप दिखा पायें इतनी उनकी सामर्थ्य नहीं है तो भला क्या हुआ...खाने को न मिल पाये तो क्या सूंघने के सुख को भी छोड़ दिया जाय। जमीन पर लेट कर जो भी थोड़ा बहुत दिख जाय, उसमें कुछ कल्पना के रंग चढा़ आने वाले कितने ही दिन तक इन सबकी बातें होंगीं।
 इनसे मिलिये। ये हाथ में जुगनू फ़िल्म की सीडी लिये उड़ी चली जा रही हैं। सीडी की पटरी वाली दुकान पर से ’जुगनू’ की रंगीन शक्सियत ही शायद सबसे ज्यादा लुभा गयी। भला कितनी समझ होगी फ़िल्म की, पर रंगीन चित्रों के आकर्षण में एक अबोली कशिश होती है। ये सीडी भी इस बच्ची के लिये किसी खजाने से कम नहीं थी---सपनों सी दुनिया का पासपोर्ट।
ये साहब पूरी सज धज के साथ मेला देखने आयी थीं, परिवार के साथ--बूट वूट, गॉगल्स वैगैरह से लैस। जमीन पर बिछी इस दुकान ने इन्हे आकर्षित किया और बैठ गयीं ये जांचने -परखने। वैसे दुकान थी भी अपनी ओर बर्बस खींचने वाली। रंग बिरंगी छोटी-छोटी प्लास्टिक तार से बुनी, लकड़ी के फ़्रेम वाली चारपाइयां और नन्हे नन्हे छाते। रंगों के साथ साथ चीजों का छोटा आकार भी उन्हें लुभावना बना रहा था। लग रहा था खास मेले के लिये बनाई गयी थी ये गुड्डे-गुड़िया वाली चीजें। भाई जब तक दुकानदार से बात-चीत मोल-भाव कर रहा था, तब तक छोटी बहन ने चारपाइयों का जायजा लेना शुरु कर दिया। रंगीन चश्मा आंखों पर चढा़ कर रंग कुछ ठीक से नहीं समझ में आ रहे थे, इसलिये चश्मा ऊपर सरकाया और फ़िर पूरी तन्मयता से जुट गयीं। मम्मी तब तक निर्विकार पास खड़ी थी। उनका रोल आने में अभी समय था।
मेले में कई तरह और कई स्तर की दुकाने थीं। बीच में चौड़ा रास्ता छोड़ दोनों ओर तम्बू के नीचे तख्तों पर लगी दुकाने थीं और बीच में ठेलों पर, जमीन पर कपड़ा बिछा कर छोटी-छोटी दुकानें थी। इसके अलावा हाथों में समान ले फ़ेरी लगा कर बेचते लोग भी थे। इस बच्ची का परिवार जमीन पर कपड़ा बिछा कर माला, मनके बेच रहा था। बच्ची आस-पास खेलती हुई घूम रही थी। कुर्ती में बंद करने को बटनें नहीं थीं, बालों में कंघी नही हुई थी लेकिन बिखरे हुये बालों में केश सज्जा का स्टाइल था और गले, हाथों में आभूषण। अपनी थोड़ी हट के वेश-भूषा से बच्ची के हाव भाव में न कोई झिझक झलक रही थी, न बाधा। यही है शायद बचपन का करिश्मा। कच्ची धरती में हरी दूब सी खुशियां खुद ब खुद भीतर से उगती हैं।
मिलिये इन माइ फ़ेअर लेडी से। चमकती हुई लेस, झालर वाली फ़्राकष चूड़ी, बुंदे, माला, जूते-मोजे, यहां तक कि एक पर्स भी हाथ में। पर इस मन का क्या करें वह तो गुड़िया के लिये मचल गया और यह अंगूठा भी बार बार मुंह तक पहुंच जाता है।
इनका ऑरेंज बार खाना देख कर तो हमारा भी जी ललचा गया। आइस्क्रीम से बूंदे टपकने लगीं तो पूरी समझदारी से उसके नीचे हाथ लगाया, अब वह बात अलग की छोटी सी हथेली कहीं और फ़ैली थी और बूंदे कहीं और टपक रहीं थीं। मम्मी का निहाल होना हमें भीतर तक भिगो गया।
और ये हंसी तो जैसे धूप में चांदनी बिखेर गयी, सूरज ने कैद से तितलियां आज़ाद कर दीं।



इन जनाब का कैमरे के लेंस को फ़ॉलो करने का अंदाज देख कर मजा आ गया। जिधर जिधर कैमरा घूम रहा था, ये खुद को लेंस के सामने रखने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे। फ़ोटो इस छोटी बच्ची की खींची जा रही थी जो कैमरे से शरमा कर छिपने की कोशिश में थी और जनाब को फ़ोकस से बाहर जाना नहीं था। बच्चे आस पास हो तो खुशियों खुद ब खुद उमगती चली आती हैं।
ये बच्चे मेले में दस दिनों के लिये बने अपने अस्थायी घर के पिछवाड़े थे। झिलगी खटिया, आधे-अधूरे कपड़े तो क्या.....बचपन की हंसी को भला कब बैसाखियों की जरूरत पड़ी है। .
अलग अलग परिस्थितियों में जीते, अलग अलग परिवेश से आये इन बच्चों के संग उनका बचपन जीना जैसे हमारी हथेली में जिंदगी के कुछ अतिरिक्त पल रख गया। खुश रह पाते हैं बच्चे क्योंकि वे भविष्य की चिंता में आज को नहीं गंवाते, न ही मन में शिकायतों की ढेरों गांठें होती हैं। उनकी खुशियों के दरवाजे उनके भीतर की ओर खुलते हैं। एक बात और शिद्दत से मह्सूस हुयी इस गंवई मेले में, जो बचपन माटी के जितने करीब होता है उसकी खुशबू भी उतनी ही सोंधीं होती है।

(सभी चित्र- सुंदर अय्यर)

Monday, December 10, 2012

देवा मेले का वह एक अश्व...

गांव के मेलों की अपनी एक अलग आत्मा होती है-माटी सी सोंधी,पानी सी तरल और हर मेले मे आने वाली भीड़ मे होती हैं अनगिनित कहानियां। यूं तो हमारे देश की जमीन पर से धीरे धीरे गांव ही अंतर्ध्यान जा रहे हैं तो फ़िर गांव वाले मेले भला कैसे बचे रह पांयेगे पर फ़िर भी अब भी बहुत सारे मेले नियमित रूप से लगते है। सच है कि बदलते समय के साथ इन मेलो का मिजाज भी काफ़ी हद तक शहरी होता जा रहा है लेकिन अब भी इनमे बहुत सारी ऐसी चीजें देखने को, बहुत कुछ ऐसा अनुभव करने को मिल जाता है जिन्हें अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में कहीं बहुत पीछे छोड़ आये हैं।
हाल ही में हमने भी ऐसे ही एक मेले में एक दिन गुजारा.इस बात को तकरीबन एक महीना तो होने जा ही रहा होगा पर न तो मेले की यादें धुंधलायीं हैं, न ही वो कहानियां भूली है। यह देवा शरीफ़ के उर्स पर लगने वाला दस दिन का मेला था।
बाराबंकी से तकरीबन 12 कि.मी. और लखनऊ से करीब 24 कि.मी. की दूरी पर देवा मे सैयद वारिस अली शाह की दरगाह है.इस दरगाह के प्रति सभी धर्मो के लोगो के मन मे समान रूप से आदर और श्रद्धा है।
दस दिनों तक चलने वाला यह मेला बहुत बड़े क्षेत्र मे फ़ैला होता है। इस मेले में पशुओं की खरीद फ़रोख्त का कारोबार काफ़ी बड़े पैमाने में होता है। नहर किनारे के मैदान के बड़े हिस्से में घोड़े बंधे हुये थे। घोड़ों के व्यापारी परिवार सहित मेले मे आते हैं पूरे दस दिनों के लिये। उन दिनों उनका घर टेंट मे होता है और चूल्हा खुले आसमान के तले।
घोड़े तो बहुत थे मैदान में पर इस एक घोड़े ने बरबस हमें अपनी ओर खींच लिया। चारों पैरों में रस्सियां बंधी थी, जिनका दूसरा सिरा जमीन पर गड़े खूंटों से मजबूती से बंधा था। एक रस्सी गर्दन मे भी थी। इतने बंधनों के बावजूद इस घोड़े के वजूद मे बेइन्तहा ठसक थी। वो रस्सियां उसके कैद में होने का नहीं वरन उसकी ताकत का, उसकी सामर्थ्य का एह्सास दिला रही थीं। हल्के से खम के साथ तनी उसकी गर्दन मे आत्मसम्मान था पर अहंकार नहीं। पता नहीं क्यों इस घोड़े को देखते हुये हमें Victor E.Frankl की ये पंक्तियां याद आ गयीं...
" Everything can be taken from a man but one thing: the last of human freedoms- to choose one's attitude in any given set of circumstances,to choose one's own way."
मेले में पशुओं से सम्बन्धित सामानों की भी काफ़ी दुकानें थीं। समय के साथ साथ इस चीजों का स्वरूप भी बदल गया है। पशुओं को बांधने वाली रस्सी जिसे पगहा भी कहते हैं, उनके मुंह को बंद करने के लिये बांधी जाने वाली जाली, ये सब पहले रस्सियों से बनायी जाती थी, बान, मूंज, सन की रस्सियों से पर अब ये रंग बिरंगी प्लास्टिक की डोरियों से बनी हुयी थी। हां बैलों, गायों और भैसों के गले में पहनाई जाने वाली बड़े बड़े कांच के मनकों की मालायें अभी भी वैसी ही थीं।

इसके अंदाज ने इसे सबसे ऊपर ला खड़ा किया.

बिकने की तैयारी में बाज़ार मे खड़े घोड़े.पूरे मैदान में ऐसी कई कतारे थीं.
ग्रामीण क्षेत्र से आये ये लोग निश्चय ही अपने अपने पशुओं के हिसाब से चीजों का जायजा ले रहे हैं या फ़िर चीजों के बदलते स्वरूप का विष्लेशण चल रहा है.क्या पता इन दादा जी के हाथ मे कभी रही हो किसी इक्के,तांगे मे जुती उनकी प्यारी घोड़ी की रास और इन रंग बिरंगे आभूषण,अलंकारों को देख मन भीग रहा हो इस चाह से कि काश वो होती आज तो उसके लिये भी कुछ न कुछ जरूर ले जाता इस मेले से.या फ़िर घोड़ी अब भी हो पर मन की इच्क्षा और जेब के बीच का फ़ासला आड़े आ रहा हो.ये अबूझ सी कहानियां ही इन मेलों का सबसे बड़ा आकर्षण होती हैं मेरे लिये.