Saturday, April 14, 2018

सुनो, तुमने कभी जिया है, फूले पलाश वनों का भीतर तक उतरते जाना। नहीं, हम किसी पार्क के कोने में खड़े फूलों से लदे, इक्का- दुक्का पेड़ों की बात नहीं कर रहे। ना ही मेरा इशारा किसी डामर की काली सड़क के दोनों ओर कतार बद्ध खड़े फूल लदे पेड़ों की ओर है। नहीं हम कब मना कर रहे हैं, वे भी सच बेइन्तहा खूबसूरत लगते हैं। पर हम न बात कर रहे हैं बीहड़ में गदराए पलाश वनों की। दूर दूर तक खाली हाथों वाले पेड़ों का जंगल। हां तो, पलाश चटकता ही उन दिनों है जब जेठ के ताप की आहट भर से ही हरियाली पेड़ों पत्तों का साथ छोड़ भागने लगती है और पात सारे विरह में सूख, निर्जीव हो फिर माटी हो जाने की राह पकड़ लेते हैं। समूचा जंगल हो उठता है, हड़ीला, निर्वस्त्र कंकाल सरीखा। हरी रसीली घास के झुंड हो या माटी में बिछी घास की चादर, सब भुरिया जाती है और ऐसे रसहीन, प्राण विहीन से वन में जीने की जिजीविषा से लबालब भर फूल उठता है, पलाश।
दूर दिखती ऊंची भूरी पहाड़ियों की चंद्रहार सी श्रंखलायें, बीच बीच में बिखरी छोटी बड़ी काली चट्टानें, और बस दिग दिगंत तक पसरा वन, कहीं कहीं झलक जाती बित्ते भर चौड़ी पगडंडी जो बस कुछ कदम चल ही बिला जाती, जैसे कान में फुसफुसा जाने भर को आई हो कि हमसे पहले भी इस बीहड़ के पलाश को आत्मसात किया है किसी और बावरे मन ने। कैसा तो आत्मीय सा नाता जुड़ जाता है उस अजाने, अदेखे मन से।
और पलाश, यह तो है ही निरा जोगी। इसे न फिकर कि रस, रूप,रंग से सराबोर इसकी काया पर किसी की नजर पड़ रही है या नहीं। न, यह नहीं खिलखिलाता किसी को लुभाने, पागल बना देने का मंतव्य मन में पाले। इसका तो धर्म है मुस्कुराना। बीहड़ों में गलबहियां डाल झूमते पलाश को देख हमें लगा कि सुगढ़, सुडौल आदिवासी कन्यायों के लयबद्ध कदमों ने ढोल की थाप संग थिरकना इसी से सीखा होगा। चट्टानों के सीने लग कुछ यूं गुदगुदाते हैं ये उन्हें कि उनके भीतर भी रस संचार होने लगता है और फिर कहीं और फूटती जलधारा को देख हम अटकलें लगाते हैं कि कहां है उद्गम उसका।
जानते हो और क्या कहता है, अपनी ही मौज में डूबा यह पलाश वन। चल पड़ो बीहड़ की यात्रा के लिए, बीहड़ भीतर का हो या बाहर का, इसमें निस्संग डूबने का आनंद ही कुछ और है, नारंगी सपन भी चटकते हैं तो जोगिया रस में पग और फिर भीतर बाहर सब बस उसके रंग रचा । कर आओ न यात्रा एक बार तुम भी फूले पलाश वनों की।











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