Tuesday, October 30, 2007

वो सर्दियों का आना

आज बाहर धूप नही है । मौसम बदल रहा है ।सर्दियों का मौसम बस आया ही समझो । यहा पुणे मे तो उतनी ठंड नही पड़्ती पर फिर भी मौसम के बदलते मिजाज का अह्सास तो हो ही जाता है । बचपन मे सर्दियों के मौसम का मतलब था खूब करारी भुनी मूंग्फली ,लैया पट्टी,रजाई मे घर के अन्दर एक और घर । बाबू मेस्टन रोड से बड़ी बड़ी मूंग्फली लाते थे ,एक साथ खूब सारी ।पूरी सर्दियों का इन्त्ज़ाम होता था ।कन्स्तर मे भर कर रखी जाती थी मूंग्फलिया। अम्मा सिल-बट्टे पर धनिया का नमक पीसती थी । रोज़ रात को रेडियो पर ’हवामहल’के प्रसारण् के समय यानि रात के सवा नौ बजे मूंग्फली खायी जाती थी ।
इस मूंग्फली खाने वाली बात से हमे सिहारी याद आ गया । सिहारी यानि राम्विनोद मिश्रा । सिहारी बाबू से इंग्लिश ग्रामर पढ्ने आता था ।सिहारी अब नही है पर उन दिनो की कितनी सारी बाते है जो हमे याद आ रही है । सिहारी के आने का समय हमेशा हवामहल वाला होता था और जिस दिन वह बाबू को अपने उत्तरों से संतुष्ट नही कर पाता था उस दिन बाबू जरूर डांट्ते थे ,’हियां हवामहल सुनै और गपिआवैं आवत हो कि पढैं’।जिस दिन पढाई ज्यादा हो जाती थी उस दिन सिहारी इशारों से पूछ्ता था अम्मा को काम खत्म कर मूंग्फली ले कर आने मे कितनी देर है ।
सुनने मे लग रहा होगा कि ये कितनी साधारण बातें हैं पर उन दिनो हम लोग हर छोटी छोटी बात का लुत्फ उठाना जानते थे । हमारे पास चीजें बहुत कम होती थी पर बोर शब्द हमारे कोष में नही होता था ।
बात सर्दियों की शुरुआत की हो रही थी और हम कहां निकल गये । ऐसा ही होता है मन के साथ । अगर ’राह पकड़ एक चला चले तो मधुशाला ’पाही जाये पर ऐसा करना आसान कहां होता है ।
लेकिन बात अगर सर्दियों के शुरु होने की है तो हमे चन्दन मित्रा का वह लेख जरूर याद आता है जिसमे रजाइयों के बक्से खुलने से ले कर नींबू के अचार रखने की तैयारी का इतना सटीक और भव्नात्मक वर्ण्न है कि मन अपनेआप सर्पट जा अतीत के गलियारों ंमे रुके ।
लेकिन अब मेरा आज मे वापस आना जरूरी हो गया है । चले रसोई की ओर ,बालक के स्कूल से लौटने का समय पास आ रहा है।फिर मिलेगें
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Friday, October 26, 2007

कोजागिरी ्पुर्णिमा

२६ अक्टूबर २००७ - आज सबेरे करीब चार बजे आंख खुल गयी । खिड़की के पास गये तो लगा कि आज सोसायिटी के कम्पाउन्ड मे कुछ ज्यादा उजाला है । पार्किंग की लाइट्स तो रोज जलती हैं पर आज रौशनी मे कुछ और बात है । अचानक याद आया कि रात पेपर मे कोजागिरि पूर्णिमा ’ के विष्य मे खबर पढी थी कि आज रात यानि २५ और २६ के बीच वाली रात का चांद वर्ष का सब्से बडा और चमक्दार चांद होगा । अरे ,आज तो शरद की पूनो थी । क्या इसी को महारषट्रा मे कोजागिरि पूर्णिमा कहते हैं ।हमने सोचा यह पड़्ताल बाद में करेगे पहले चले जरा चांद देख आये।
पीछे सोमेश्वर्वाड़ी के पांडुरंग मन्दिर से कीरतन की आवाज आ रही थी । हम भी मन्दिर की ओर की सड़क पर मुड़ लिये । सड़क पर दूर तक सन्नाटा था ।अंधेरा तो छटा नही था अब तक पर साम्ने सड़क पर दूर तक चांदनी बिछी हुई थी ।किनारे खड़े लाइट पोस्ट भी अप्ना योग्दान देने की कोशिश कर रहे थे ।किसी झोपड़ी के बाहर ब्वाय्लर सुलग रहा था ।उसके पाइप से निकलता धुआ इठ्लाता हुआ सड़्क पार कर पे ड़ों की फुन्गियों पर फूलो के गुच्छों सा खिला था ।सीधी सड़क के अंत मे शिव मन्दिर के पार चां द पीपल की डाल पर हिंडोला झूल रहा था । सच कित्ना बड़ा चांद ,दोनो हाथो संभाला न जाये इतना बड़ा और चमक्दार कितना .... चांद य़ूं तो नीली धुंध के पार चम्कता लगता है पर आज जैसे झल्मल कर रहा था ।इत्ना पास लग रहा र्हा था कि हाथ बढाओ तो झप्प से कूद आयेगा । अब तक हम मंदिर के बिल्कुल पास पहुंच गये थे । उधर पांडुरंग मन्दिर मे कार्यक्रम खतम हो गया था और लोग शिव मंदिर की ओर आ रहे थे । हमने पूछा आज इतनी जल्दी भजन कीरतन क्यों ? कुछ विषेश क्या?
हमे पता चला कोजागिरि पूर्णिमा मूलतःखरीफ की फसल के खेत से कट घर आ जाने का त्योहार है । इस दिन सारी रात जग कर धन धान्य की देवी लक्छ्मी का आह्वान एवं प्रतीक्छा की जाती है ।रात भर जगते रहे इस्लिये लोग एक जगह एक्त्र हो भजन-कीर्तन,गाना -बजाना,अन्त्याक्छरी,खेल ,तमाशा,आदि करते हैं। हमे याद आया कि हमारी अम्मा भी बताती हैं कि वे जब छोटी थी तो शरद पूर्णिमा की रात गांव मे टोला मोहल्ला की औरते इक्ठ्ठा हो खेल खेलती थी , स्वांग रचाये जाते थे । पर उत्तर प्रदेश मे क्या अब भी ऐसा होता है ? हमारा बचपन तो यू पी के शहरो मे बीता है । हमे तो शरद पूर्णिमा की बस इत्ती याद है कि जब हम छोटॆ थे तो अम्मा खीर बना कर बर्तन के मुह पर कपड़ा बांध आंगन की चांदनी मे रख देती थी ।कहती थी इस रात चांद से अम्र्त बरसता है ।खीर मे अम्र्त मिला हमे खिलाती थी ...शायद भग्वान से परिवार जनो की लम्बी उम्र की दुआ की जाती होगी इस तरह ।
लेकिन पुणे जैसे आधुनिक अवम विक्सित शहर मे आज भी इस त्योहार का इत्ने परम्परागत ढंग से मनाया जाता देख मन जुड़ा गया । नव्रात्री मे देवी नौ दिन महिषासुर से युद्ध कर विश्राम की अवस्था मे चली जाती है। कोजागिरि पूर्णिमा की रात उन्हे जगाया जाता है और घर मे प्रविश्ट होने का आह्वान किया जाता है ।ऐसी मान्य्ता है ।काजोगिरि का मत्लब कौन जग रहा है । अस्विन माह मे चौधवे दिन पड़्ती है यह। इस दिन लोग उप्वास भी रख्ते हैं ,मात्र पेय पदार्थो का सेवन करते हैं जैसे नारियल पानी , दूध आदि । पुणे नगर महापालिका द्वारा सन्चालित दो बड़े उद्यान इस पूर्णिमा की रात खुले रहे ताकि लोग बाग अप्ने दड़्बों से बाहर आ प्रक्रिति के सानिध्य मे चांद के इस चम्त्क्रित करते रूप का पूर्ण आनन्द ले सकें । चांदनी मे सराबोर हो सके ।अनुकर्णीय है ना उन्का यह कदम ।
बन्गाल मे भी शरद पूर्णिमा के दिन लक्छ्मी की पूजा होती है । देवी के छोटॆ छोटे पैर बनाये जाते है घर के दर्वाजे से अन्दर तक । देवी का प्रवेश हेतु आह्वान ।
हम रात भर तो नही जागे इस कोजागिरि पूर्णिमा पर लेकिन चांदनी मे जरूर भीग लिये । देवी के इस प्रभास से मन की तिजोरी भर गयी वरड्स्वर्थ के डैफोडिल की तरह ।जैसी क्रिपा देेवी की हम पर हुई भग्वान करे सब पर होये ।

Thursday, October 11, 2007

त्वीटी की जिन्दगी ...


श्वेता के घर में कार पार्किंग के शेड को थामे लोहे के पतले से खंभे पर एक बुलबुल अपना घोसला बना रही थी .जब उसने तिनके ला कर रखने शुरू किये तभी हम लोग सोचते थे कि घर के बाहर इतनी सारी और भी जगहें हैं ,जहाँ छाया भी है और तेज हवा से भी बचाव है फिर वह ऎसी जगह क्यों घोसला बना रही है जहाँ उसका सधना भी मुश्किल लग रहा है .पर सच पूछो तो हम इस मुद्दे पर राय भी व्यक्त करने वाले होते कौन है .वह मकान नही घर बना रही थी .हम लोग तो मकान बनवाते हैं और फिर उसे घर बनाने में ताउम्र मशक्कत करते रहते हैं .कभी इधर से सीवन उघरती है कभी उधर से .प्रयास ही जारी रह जाय तो हम मान लेते हैं कि घर बनाने में सफ़ल हो गए .पर ये चिड़यायें तो अपने घर को बनाती भी खुद हैं और बसाती तो हैं हीं ।
हाँ तो हम बात बुलबुल की कर रहे थे । हमारे देखते देखते उसका घर बन कर तैयार हो गया .बिल्कुल गोल कटोरी जैसा छोटा सा घोसला ,उस आरे गोल खंभे पर रखा भर था जैसे .हम सच में हैरान थे कि यह टिका कैसे है .खंभे के नीचे से जाती कोई तिनके या रस्सीनुमा चीज हमे नज़र ही नही आती थी पर साहब घोसला तो अपनी जगह बिल्कुल फिक्ष् था जैसे फेविकोल से चिपका हो .जब हमारी सारी चिंतायों को बेबुनियाद साबित करते हुये घोसला जस का तस् रहा तो हम उसके आकार को ले कर उधेड़बुन में पद गए .इतना छोटा घोसला ? क्या बुलबुल के मिजाज और चिड़ियों से अलग होते हैं ?इस घोसले में तो बमुश्किल एक ही बच्चा आ पायेगा शायद .गरज यह कि बुलबुल तो दीं दुनिया से बेखबर अपना काम किये जा रही थी और हम बेगानी शादी में अब्दुल्ला हुए जा रहे थे ।
खैर कुछ दिन बाद घोसला आबाद हो गया आवाजे आनी तो शुरू नही हुई मगर ममी -पापा की घर आव जाही बढ़ गयी थी .हम भी जब फुरसत में होते तो बडे प्यार से उनकी गतिविधियां देखा करते .हमे उनकी भाषा तो समझ में नही आती मगर चोंच में कुछ दबाये उनकी भागा दौदी देख बड़ा लाड आता .हमे लगता आदमी हो या जानवर या फि नन्ही सी चिड़िया ममता का श्रोत सबके सीने में एक सा ही होता है और फिर अचानक सब उलट पुलट गया ।
उस दिन ऑफिस से लौटते ही श्वेता का फोन आया ,'न्म्मो ,बुलबुल का एक बच्चा नीचे गिर गया है .'उसकी आवाज में चीख की गूँज थी और हम आम बुजुर्गों की तरह बुलबुल के फूहडपन पर बरस रहे थे .पहले ही लग रहा था कि इतने छोटे से घोसले बच्चे कैसे समां पाएगे .इतने ऊपर से गिरा है .एक या दो दिन का होगा .कितनी चोट लगी होगी .बच थोड़े ही पायेगा बिचारा .बुलबुल दम्पति का कहीँ पता नही था .घोसले में बिल्कुल सन्नाटा था । हम लोगों ने यह तो सुन रखा था कि चिड़िया के बच्चे को यदि आदमी का हाँथ लग जाय तो वे उसे फिर स्वीकार नही करती हैं .एक स्टूल बाहर निकाला गया .मनु ,सुंदर को बुला कर लाया और फिर बेहत एहतियात के साथ सुन्दर ने उसे कागज़ में चध्या (बिना हाथ लगाए)और वापस घोसले में रख दिया .हम निश्चिंत थे कि हमने बच्चे को सही जगह पहुचा दिया है .बुलबुल दम्पती जब वापस आएगा तो बच्चे को पा कर खुश होयेगा .यदि अभी तक उसकी अनुपस्थिति पता ही नही चली होगी तो भी अपने तरीक़े से बच्चे कुछ तो बताएँगे .यही सब सोच कर हम लोग अपने अपने कामो में लग गए ।
पर अगली सुबह बच्चा फिर जमीन पर था .हम हतप्रभ थे .दुबारा तो इतनी जल्दी फिर वैसी ही दुर्घटना तो नही हो सकती .फिर क्या बुलबुल ने बच्चे को अपनाने से इनकार कर दिया .मगर क्यों ?यह तो नन्हा सा बच्चा है जवान हुई लड़की तो नही कि अनजानो के हाथ लग गए तो दरवाजे हमेशा के लिए बंद .जीतेजी ही मरा समझ लिया .फिर हमने तो सच हाथ ना लगे इसके लिए कितने जतन किये थे .सुन्दर ने कहा कि हमने कहीं सूना या पड़ा है कि चिदियाँ अपने उन्ही बच्चों को दाना देती हैं जिनके बचने की उन्हें उमीद होती है .जो सबसे कमजोर बच्चा होता है वह वैसे भी सबसे पीछे रह जाता है और माँ के मुँह से दाना नही ले पाटा .ठीक है बच्चे तो सब एक जैसे नहीं होते पर माँ का कलेजा तो अपने सबसे कमजोर बच्चे के लिए सबसे ज्यादा उमड़ता है .ऐसे कैसे बिना दाना पानी के मरने के लिए छोड़ सकती है .हमे मालूम नही कि बुलबुल ने ऐसा क्यों किया .पर हम सब बहुत दुखी थे .और वह बच्चा दो दो बार उतनी उचायी से गिराने के बाद भी साँसे ले रहा था ।
अब हमने वही किया जो कर सकते थे .छोटी सी एक दलिया में पत्ते ,घास रख कर उसका घर बनाया गया .द्रोप्पेर से उसके मुहं में दूध की बूंदे तप्कानी शुरू की गयीं .बच्चे की आँखें नही खुली थी पर चोंच अछे से खोल ले रहा था .एक दो बार दूध की बूंदे अन्दर गयीं तो मुहं के पास द्रोप्पेर के स्पर्श से ही मुहं उठा कर चोच खोल देता था .श्वेता का छ वर्षीय बेटा मनु सारे क्रिया कलापों में पूरे जुडाव से भाग ले रहा था । रात को भी उठ उठ कर देखा गया कि उसकी साँसे चल रही हैं या नहीं /
जब एक दिन और एक रात पार हो गयी तो हम लोगों के मन में आशा उपजने लगी .लगा शायद यह बच जाएगा । मनु और हमने उसका नामकरण भी कर दिया -त्वीटी .हम लोगों ने यह भी सोचा कि हरसिंगार के पेड पर इसे बडे होने पर रखा जाएगा .इन्तजार होने लगा कि उसकी आंखें कब खुलेगी ।
दूसरा दिन शुरू हुआ उस दिन हम उसे दलीय सहित धुप में ले गए .हमने सोचा इसे तो बाहर की हवा की आदत है .सच मानिए बाहर जाते ही जैसे उसके शरीर में नयी जान आ गयी .उसने चेहरा ऊपर उठा कर चारों ओर घुमाना शुरू किया .क्या महसूस कर रहा होगा ?अपने असली घर की निकटता का अंदाजा लग गया होगा क्या उसे .पता नहीं कहाँ से बुलबुल दम्पती को पता चल गया और वे भी आ कर शोर मचाने लगा .उनकी आवाज सुन कर बच्चे ने जितनी उसके शरीर में जान थी उतनी हरकत की .पता नहीं क्या कहना सुनना चल रहा था .पर ऐसा लग रहा था कि मेरे हाथ की दलिया में बच्चे को देख कर उसके माता पिता कुछ खास खुश नहीं थे .थोड़ी देर बाद बुलबुल तो उड़ गए और बच्चा दलीय में रखी दाल पर सर रख कर जैसे सो गया .हमे लगा उसने दूध तो पी ही लिया है अब बाहर की हवा खा कर ,अपने ममी पापा की आवाज सुन कर निश्चिंत हो सो रहा है .पर उसी रात हमारे त्वीटी ने आंखें सदा के लिए बंद कर ली .बंद क्या कर ली उसने तो आंख खोली ही नही ।
हम लोगों ने सबेरे बगीचे में उसकी समाधी बना दी .फूल भी चढ़ाये गए .हम और मनु सीढियों पर चुपचाप बैठे थे .अचानक मनु ने कहा ,'नानी ,नाना कह रहे थे कि जब चिदियाँ अपने बच्चे को दाना नही खिला पाती है तो मरने के लिए छोड़ देती है .''हाँ शायद ' क्यों क्या उसके बच्चे कोई खरीदता नही है क्या ?हम सन्नाटे में थे .अखबारों की कई पुरानी हेअद्लिनेस और उन पर हुई हम लोगों की चर्चाएँ मेरे जेहन में घूम रही थी .

Monday, October 8, 2007

डाकिया डाक लाया ..


अपने पोस्ट पर अंशु की कमेंट्स मिली .जब यह ब्लोग शुरू किया था तो मन में कही यह था कि उस समय और स्थान से जुडे लोग भी अपनी यादो को शेयर करें .अंशु ने उस समय के कुछ और लोगों की बात की जो हमारी जिन्दगी का एक अटूट हिस्सा हुआ करते थे तब .उनमे से एक हैं हम लोगों के पंडितजी यानी हमारी कॉलोनी के पोस्टमैन .पंडितजी हमारे घरों में केवल चिट्ठी फ़ेंक कर नही चले जाते थे बल्कि पते की लिखावट से अक्सर जान जाते थे कि चिट्ठी कहॉ से आयी है .अब सोचो तो कितनी आश्चर्यजनक बात लगती है कि कॉलोनी में कितने सारे घर थे और हर घर में कितनी जगहों से चिट्ठी आती थी .कैसे याद रखते होंगे पंडितजी इतनी सारी हन्द्व्रितिंग .पर कहते हैं ना कि the more involved you are with your work ,the more efficient you will be .हमारे पंडितजी तो काम के साथ साथ लोगों से भी involved रहते थे तो फिर भला कैसे ना होते वे extra efficient।
पंडितजी की आवाज़ आयी नही कि आगे आने वाले घरों में उनका इंतज़ार शुरू हो जाता था .आवाज़ आयी नौ नंबर (हाँ यही नंबर हुआ करता था कॉलोनी में हमारे घर का ).उस दिन चिट्ठी नौ नंबर की थी इस लिए साइकिल हमारे घर के सामने रुकी लेकिन अगर पड़ोस वाली चाचीजी बाहर काम करती दिख गयीं तो एक सवाल उधर की ओर उछला 'और बडके भैया के यहाँ सब ठीक है ना '.कल पंडितजी आसाम में posted सपन दादा का पत्र दे कर गए थे चाचीजी को ।
दूसरे शहरों के ही संदेश केवल नही पहुँचाते थे पंडितजी हम लोगों तक .'पंडितजी आप पुराने सेंटर की ओर हो आये हैं क्या '। 'नाही अबे जैबे बिटिया .काहे कौनो काम रहए का .''हाँ पंडितजी ,वो १२१ ब्लॉक में टंडन जी की बिटिया नीरु को यह किताब दे दीजियेगा .'इसी तरह की सेवायें कॉलोनी की सभी लड़कियाँ पंडितजी से ले लिया करती थी .और ये सेवायें थी भी exclusive for girls .लड़कियों को पैदल कम चलना पडे ,उनका बाहर निकलना बच जाये ,पंडितजी के ये कुछ अपने कारण हो सकते हैं .पर यह सच है कि इस वजह से हम लड़कियाँ खुद को कुछ खास महसूस करते थे .पता नहीं आज के बच्चे इस बात को समझ पायेंगे या नहीं पर उस समय बहुत से घरों की लड़कियों को पंडितजी का यह काम एक अलग तरह की ख़ुशी देता था .कोई तो था जो कोई काम केवल उनके लिए करता था .कहीँ तो उन्हें अपने भाइयों से ज्यादा तवज्जो मिलाती थी .वो भी बुजुर्ग पंडितजी द्वारा ,जिनकी इज़्ज़त हर घर में होती थी .यूं शायद यह बहुत छोटी बात लगे पर जब अपना वजूद हर घडी दांव पर लगा अनुभव हो तो ये छोटे दिखने वाले काम और बाते ही तो आसमान की ओर खुलती खिडकी से नज़र आते हैं ।
इतना ही नही ,कॉलोनी के किसी भी घर के किसी भी दुखद समाचार की खबर वे बिना किसी के कहे कॉलोनी में उसके आत्मीय स्वजनों तक पहुचा देते थे ,फिर भला उसके लिए उन्हें कितना भी लम्बा चक्कर क्यों ना लगाना पडे या फिर से उसी ओर जाना पडे जहाँ से वे आ रहे होते थे । यह उनकी सरकारी ड्यूटी का हिस्सा तो था नही पर इसे भी वे उतनी ही गंभीरता ओर जिम्मेदारी से निभाते थे .मौसम के तेवर कितने भी बिगाड हुए क्यों ना हो पंडितजी बिना किसी रुकावट के अपना काम करते थे और वह भी अपनी चिर परिचित मुस्कराहट के साथ .ना उनके चेहरे पर कभी परेशानी झलकती थी ना उनकी आवाज़ में शिथिलता .जेठ का प्रचंड ताप हो ,मूसलाधार बारिश या फिर कडाके की सरदी पंडितजी की उपस्थिति हमारी दिनचर्या का अंग थी जैसे .घर गृहस्थी वाले आदमी थे ,रोज़ पास के गाँव से साइकिल चलाते हुए आते थे .परेशानियाँ ,झंझटें ,तो उनकी ज़िंदगी में भी आती ही रही होगीं पर उसका प्रभाव वे अपने काम और जिम्मेदारी पर नही पडने देते थे .और जिम्मेदारियां भी कैसी ,जिसमें से बहुत सारी तो उन्होने खुद ओढ़ रखी थी .हमारी कॉलोनी में पंडितजी की पोस्टिंग काफी लंबे समय तक रही थी .हमारी किशोरावस्था से हमारी शादी तक । इतने लंबे समय में मेरी याद में वे केवल एक बार छुट्टी गए थे .अपनी बिटिया की शादी के समय ।
हमारी बड़ी बहन जब शादी के बाद त्रिवेंद्रम चली गयीं थी तो पूरे घर को उनकी चिट्ठी का इन्तजार रहता था .हमारी अम्मा की बेचैनी और उत्कंठा का पंडितजी को पूरा पूरा अंदाजा रहता था .जिस बार जिज्जी की चिट्ठी ज़रा देर से आती थी ,वे अपना नियमित रास्ता छोड़ कर पहले चिट्ठी हमारे यहाँ पहुचाने आते थे भले ही उसके लिए उन्हें उल्टा चक्कर क्यों ना लगाना पडे .अम्मा के मन को दो घंटे पहले निश्चिन्तता पहुचाना ज्यादा मायने रखता था .बात केवल ससुराल गयी बिटिया की अम्मा के मन पडने की ही नही थी .पंडितजी को सबके मन में होने वाली उठा पटक का अंदाज़ा रहता था .किस बहु को मायके में होने वाली शादी के कार्ड का इन्तजार है ,किस लडके के लिए नौकरी का appointment लैटर जीवन मरण का प्रशन बना हुआ है ,किस बहु का moneyorder या चिट्ठी उसकी सास के हाथ में देने में कोई हर्ज़ नही है और किसके लिए मौका तलाशना है .पंडितजी की पकड़ हर नब्ज़ पर बिल्कुल सही थी ।
कॉलोनी में बडे हुए हर बच्चे की ज़िंदगी के हर महत्वपूर्ण पड़ाव में पंडितजी की साझेदारी थी .वे केवल आने वाली चिट्ठी ही नही पहुचाते थे वरन इन्तजार की जा रही चिट्ठी के ना आने की भी खबर दे जाते थे .'आजव नही आयी बिटिया/भैया 'कहते समय पंडितजी की आवाज़ में इतनी लाचारी होती थी कि चिट्ठी का इन्तजार करने वाला अपनी बेचैनी छुपाने लगता था .ऐसा लगता था कि वे चिट्ठी ला कर हाथ में नही रख पा रहे हैं तो जैसे चूक उनसे ही हो रही है ।
अपनी ड्यूटी के प्रती इतना गम्भीर होने का यह मतलब बिल्कुल नही था कि पंडितजी को हँसना चिढ़ाना नही आता था .और भी रस थे उनमे.पंडितजी पर यह पोस्ट हमारे romance में उनकी अहम भूमिका के जिक्र के बिना तो पूरा हो ही नही सकता .वो पंडितजी और हमारे कॉलोनी में आखिरी दिन थे .उनकी सेवानिवृति का समय पास आ रहा था और हमारे अम्मा बाबु की देहरी छोड़ने का .सुन्दर उन दिनों दिल्ली में थे .ई connectivity और ई मेल ,chat के जमाने वाले लोग समझ ही नही सकते कि चिट्ठी लिखने और उसके इन्तजार का मज़ा क्या होता है .क्या होती है धड़क्नो की रफ्तार हाथ में पकडे लिफाफे के खुलने से पहले .पर हमारे पंडित जी को सब पता था .हमने तो उस जमाने में भी दिल्ली और कानपूर की दूरी को बालिश्त भर का कर दिया था .और उसमे पंडितजी ने हमारा पूरा साथ दिया था .कभी कभी सबेरे नौ बजे ही गेट पर आवाज़ आती ,बिटिया लेव ,दिल्ली वाली चिट्ठी रहे ,तो हम कहे सबेरे पहुँचा देयी .तुम्हारे बैंक जाये से पहिले .और फिर साइकिल में चढ़ते चढ़ते अम्मा की ओर देख कर हस्नते हुए कहते ,'और का अब दिन भर चैन तो पड़ जई ।' यही नही एक दिन में आने वाली दो दो चिट्ठियों को भी वे सुबह शाम दोनो समय उतनी ही मुस्तैदी से पहुँचा जाते थे .पर हमे यह बताना भी नही भूलते थे कि यह वे मेरी मनोदशा के मद्देनज़र कर रहे है
तो ऐसे थे हमारे पंडितजी .हमारे दुःख सुख ,उतार चदाव में हमारे साथ .हमे तो ऐसा लगता है कि भगवान ने उन्हें डाकिया बनाने के हिसाब से ही बनाया था .he was cut for that job .

Tuesday, October 2, 2007

फुलवा माली


माली का नाम -फुलवा .सुनते ही मजा आता है ना । हमें भी आया था जब हमने पहली बार सुना था .पर फुलवा माली की इस नाम से जुडी जो कहानी हम कहने जा रहे हैं ,उसका दर्द हमने उस समय कहीँ महसूस तो किया था पर पूरी तरह समझे तो अब हैं ।
सफ़ेद धोती ,बंडी नुमा कुरता और कंधे पर अंगोछा ,कुछ ग्ठा बदन ,छोटा क़द ,और एक निस्छ्ल हँसी -ये थे हमारी कॉलोनी के वेलफेयर सेंटर के माली । जब हम बच्चे थे तो इस सेंटर का जो रूप रंग ,जो गतीविधिया थी ,उसकी नए आये लोग कल्पना भी नहीं कर सकते .खैर उस पर बात फिर कभी .अभी तो अपने माली काका पर वापस चलते हैं .सेंटर में उस समय पूर्ण रूप विक्सित बागीचा हुआ करता था ,सामने कीओर .बागीचा यानी लोँन .इसी बागीचे में काम करते हमे माली काका दीखायी पड़ते थे .खुरपी से कभी घास साफ करते ,कभी पौधे सवार्ते ,वे हमें बागीचे का एक हिस्सा ही लगते थे जैसे .हमने उन्हें कभी बागीचे से अलग और बगीचे को उनके बिना देखा ही नही था .और एक दिन माली काका बागीचे में नही थे .यूं तो शायद मेरा ध्यान इस बात पर नही जाता पर उस दिन किसी कारण वश हम सामने की सीढ़ीयों में अकेले बैठे थे .शायद अम्मा की सिलायी क्लास छूटने का इंतज़ार कर रहे होंगे और कोई साथी सगाथी नही होगा .हाँ तो अचानक हमें लगा कि बगीचे में कुछ मिसिग है .फिर ध्यान गया की माली काका नहीं हैं .एक छोटा सा अचरज का भाव उगा -अरे हाँ सच माली काका बागीचे से अलग कोई चीज हैं .हमने पहली बार माली काका का नोटिस लिया .अब रोज आते जाते हम बागीचे में देखते । कभी कभी पौधों को पानी डालते कोई एक अपरचित व्यक्ति दिख जाता .और करीब द्स बारह दिन बाद अचानक एक दिन माली काका बागीचे में थे .हमे लगा आज बागीचा फिर से ज्यादा भरा पूरा लग रहा है .हम बागीचे में उनकी उपस्थिति के अनजाने ही कितने आदी हो गए थे .ऐसा जीवन में बहूत सारी चीजो के साथ होता है कि वे हमारे पास ,हमारे साथ थी यह हमें उनके ना होने पर ही पता चलता है ।
हाँ ,तो इतने दिन बाद उन्हें बागीचे में देख हम अन्दर से बहुत खुश हुए .यह भी शायद मानव स्वाभाव है कि वह अपने चारों तरफ जो है ,जैसा है ,जहाँ है वैसा ही चाहता है .कहीं भी कुछ हिल्ने से असुर्छा सी पनपने लगती है शायद .हम दौड़ते हुए माली काका के पास गए .ve सर jhukaye ghas में कुछ khod रहे थे .'kahan थे इतने दिन '.इतने पास से aayii aawaj सुन कर unahone सर उठाया .क्या था उनकी aankho में .halka सा अचरज ,कुछ ख़ुशी या दुःख .'हमसे poochh रही हो ,bitiya .'हाँ और क्या ,हम रोज देखते थे .तुम कितने दिन से नहीं आ रहे थे .हम कुछ utejjna ,कुछ utsah में बोले चले जा रहे थे .'सो kaahe bitiya ,hamaka कहे dhoodh रही थी .हम ekdam से chup रह गए .सच ,हम क्यों intzar कर रहे थे उनके लॉट आने का .यह हमारी उनसे पहली बात cheet थी .उनके बीच में चले jaane से पहले तो हमने उनसे कभी कोई बात तक नही kii थी .हम क्या और कैसे samjhate कि उनके ना रहने पर हम उन्हें क्यों miss कर रहे थे .हमे उनसे कोई काम तो था नही .हम माली काका को क्या bataate जब हमे खुद भी उसकी ठीक ठीक वजह समझ में नही आ रही थी .उस समय तो nahiihii aayii थी .lekin कुछ भी कहने की jarurat नही padii .शायद मेरे chehare ,मेरी aankho में aisaa कुछ था कि उन्हें सब बिना कहे ही समझ में आ गया .और aise shuru huii उनकी हमारी dostii ।
अब कभी कभी वे हमारे घर आने लगे थे .अक्सर जब वे आते तो हम apnii baundrii में charpaii पर बैठे कुछ पढ़ लिख रहे होते .ekdin unhone हमसे कहा 'bitiya हमे hamaraa नाम लिखना sikhaa dogii .हमने पूछा 'काका,tumne kakahaaraa यानी क ,kh ,likhnaa आता है क्या? unhone कहा ना bitiya .मैंने कहा फिर तो नाम likhnaa siikhne में बहूत समय lagega क्यों कि पहले तो k, kh g ,seekhna padegaa .काका ने कहा ना हमें पूरा लिखना नही siikhna हैं .तुम तो बस हमें hamaraa नाम लिखना sikhaa दो .तुम लिख दो ,हम देख कर nakal कर lege और फिर बार बार लिख कर सीख jayege .हमे उनकी बात पूरी तरह समझ में नही aayii .padhna ,लिखना seekhne का मन karnaa तो समझ में आता है ,पर यह केवल अपना नाम लिखना seekhnaa .हमने पूछा achchaa apnaa नाम bataao .माली काका कुछ देर के लिए बिल्कुल chup से हो गए .जैसे नाम कहीं खो गया हो और उसे dud कर laane में उन्हें समय लग रहा हो .या फिर apnaa ही नाम याद karanaa पद रहा हो .और सच कुछ aisaa ही था .कहीं बहूत दूर चले गए माली काका vartmaan में वापस आये .'हमारी maai ने बहुत प्यार से हमारा नाम phoolchanda रखा रहे.बहूत प्यार करती थी हमारी maaii फूलों से .हम लोग jaat से माली हैं bitiya .आस पास के gaon माँ kauno saanii naa रहे हमारी maaii का फूलों की maala goonthne में .काका नाम लिखना seekhna भूल जैसे apnii maai के achra की chhaon में ही चले गए थे .में slet battii ले उन्हें seekhane की पूरी taiyarii में थे .पर उनके chehare के भाव देख उन्हें बीच में tokane का मन भी नही कर रहा था .phir भी मैंने कहा phoolchand कि phoolchandra .ना bitiya phoolchand .तुम तो hamar naamay bigad dogii .हमने अपने गयान पर prashnchinh लगते देख jara tunak कर कहा तुम्हे कुछ मालूम तो है नही .सही to phoolchandra ही होता है.काका बिना जरासा भी pertubed हुए बोले अब tumhar सही गलत तो hamkaa नही मालूम पर hamaar maaii तो hamaar नाम phoolchand ही रखे रहे .हमने कहा achha baba तो phoolchand ही likhnaa sikhaa देते हैं काका बोले naahi.'फिर' ?maaii hamakaa प्यार से phulwaa bulawat रही .stithii कि gambhiirta कुछ कुछ samajhane के baavjood मेरा bachpanaa जोर मार रहा tha .फुलवा ,यह कैसा ladkiyon जैसा नाम है .kaakaa thore hurt हो गए .'i hamaar maai का प्यार रहे .इस बार मैंने पूरी sanjiidagii से कहा ,'achchaa काका फुलवा likhnaa sikha दे .kaakaa ने humak कर कहा ,'हाँ bitiya।' और फिर abhyas shuru हुआ .जब मैंने पहली बार उन्हें उनका नाम लिख कर दिखाया तो उनके chehare की ख़ुशी देखते banatii थी .slet हाथ में ले un लिखे हुए aksharon पर यूं हाथ phira रहे थे जैसे apnaa bhoola bisraa astitatva हाथ आ गया हो .बागीचे में ghul मिल वे बस माली ,माली kaaka हो कर रह गए थे .उनकी maaii का phulwaa तो सच कहीं bilaa ही गया था .shayaad अपने आप ko mahsoosne कि chaah में वे apnaa नाम likhnaa siikhnaa chaah रहे थे ।
काका ने बताया कि gaon में logon ने कब फुलवा का phullu और phullu का pullu बनाया पता ही नही चला .maaii chalii गयी और उसके साथ ही चला गया फुलवा नाम .फुलवा लिखना siikh कर unhone ना केवल अपनी पहचान gum होने से bachaa lii थी balki apnii maaii को mahsoosne का ,उसे अपने पास रखने का tareeka भी dood लिया था .और फिर भी कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है .