Monday, October 17, 2011

शिवपुर की वो शाम

पिछले महीने जब बनारस गये थे तो दो दिन गुडिया के घर शिवपुर में बिताये थे. ढेर सारी बातें और ढेर सारा खाना ,सहज आत्मियता में डूबे दिन थे.उस घर की छत खूब खुली खुली थी और आस पास का परिवेश ग्रामीण न होते हुये भी गांव की याद दिलाने वाला था.हम छत पर बैठे थे और उस खुली छत मे घिरती सांझ भी मन में कैसा तो उजाला भर रही थी.घर लौटती चिड़ियों की आवाज लोक गीत सी भीतर तक उतर रही थी.धीरे धीरे गहराते अंधेरे के साथ ही एक एक कर तारे मुडेंर पर आ,नीचे झांकने लगे थे. दूर तक नजर आते निष्कलुष आसमान के वे दूर देश के वासी तारे भी कितने अपने लग रहे थे और तभी दिखे मुट्ठी भर भर जुगनू.कितने अरसे बाद मुलाकात हुई थी जुगनुओं से.बगल के खाली प्लाट में उगे जंगली पौधों और झाड़ियों के बीच ऐसे टिमटिमा रहे थे जैसे रौशनी के फूल उग आये हो .सड़क पार के उस ऊंचे नीम के पेड़ पर तो जैसे पूरी बस्ती ही बस गयी थी जुगनुओं की.और फ़िर इक्का दुक्का जुगनू छत का भी चक्कर लगा गये.ऐसा लगा बहुत दिनों बाद किसी पुराने दोस्त से मुलाकात हो गयी हो.
इतने लम्बे समय बाद दिखे जुगनू हमे याद दिला गये बीर बहूटी की.वो जो हमारी बचपन की बरसातों का अटूट ,नर्मो नाजुक हिस्सा हुआ करती थी.नन्हीं सी लाल लाल ,मखमली सी बीर बहूटी बरसात होते ही गीली मिट्टी में न जाने कहां से उग आती थी और हम सब उसके बिल्कुल पास बैठे उसका धीरे धीरे चलना देखते रहते थे.वह हमारे लिये बरसात का एक नायाब तोहफ़ा हुआ करती थी.उसे ज्यादा से ज्यादा समय देखने के लालच में हम बिना ढक्कन की डिब्बियों में गीली मिट्टी बिछा उसे सावधानी से उसमे रख लेते थे .पता नहीं कहां चली गयी है बीर बहूटी अब.बचपन के बाद दिखलायी ही नहीं पड़ी.माटी शायद अब उतनी सोंधी नहीं रह गयी.देखो ,बीर बहूटी तुम तो नहीं आती अब पर अपने भीतर की डिबिया में माटी ,वही वाली माटी बिछाये हम अब भी तुम्हारा इन्तज़ार करते हैं.
ये जुगनू क्या दिखे कि अपने साथ न जाने कौन कौन से भूले बिसरे कोनो को उजियारा दिखा गये.अचानक याद आ गयी सर्दियों मे किताबों के पन्नों के बीच की वह ऊन की गुड़िया.तब तो बस अम्मा,चाची लोगों के हाथ के बुने स्वेटर हुआ करते थे.और हर सर्दी उधेड़ कर एक बार फ़िर कुछ नये ढंग से बनाये गये स्वेटर भी कितने गर्म हुआ करते थे.और सबके स्वेटर से उठते फ़ुन्नों को नोच नोच कर बनती थी वह गुड़िया.और हिन्दी लिखने की वह पीतल वाली निब ,जिसे हमारी तिवारी मास्टर साहब दीवार पर घिस कर तिरछा करते थे कि लिखते समय छपे अक्षरों जैसा फ़िनिश आये.और अंग्रेजी लिखने वाले जी निब.स्कूल के बगल वाले खाली प्लाट मे उगा लाल ,बैंगनी मकोई का जंगल और उसे खाने के लिये दीवार फ़ांदने की होड़.पता नहीं यह बचपन भी पुरानी होती दीवारों के बीच किस किस दरार से उग आता है.


pic by sunder iyer