Saturday, September 29, 2007

अटल बिहारी बाजपेई से पहला परिचय


बात उन दिनो की है जब हम शायद पांचवी या छठी कक्छा में पड़ते थे । हम घर में सबसे छोटे थे इसलीये बाज़ार के kisii भी छोटे मोटे काम के लीये अम्मा हमें ही दौड देती थी .हमारे मोहल्ले की एक ही बाज़ार हुआ करती थी ,उसी रावन जलने वाले मैदान के पास .अक्सर हम पाते थे कि उस मैदान में दरिया बिछी हैं और एक सीरे पर कुछ तख़्त जोड़ कर स्टेज बनायी गयी है.जीस पर कुर्सिओं पर कुछ लोग बैठे हैं और एक सज्जन माइक के सामने खड़े हुए भाषण दे रहे हैं .दरियों पर मोहल्ले के चाचाजी लोग बैठे पूरी तन्मयता से कहने वाले कि बातें सुना करते थे .हाँ वे दिन ऐसे ही हुआ करते थे । लोगों कि जिन्दगी और मन दोनो में इत्मीनान हुआ करता था .दूसरों को सुनने का सब्र हुआ करता था हम भी आते जाते थोरी देर रुक कर सुना करते थे .उनकी कही बातें तो शायद मुझे पूरे तौर पर समझ में नही आती रही होंगी पर मुझे यह बात बहुत फैसीनैट करती थी कि एक आदमी बोल रहा है और इतने सारे बड़े लोग चुपचाप बैठ कर उसकी बातें सुन रहे हैं .अब भई क्लास में ऐसा दृश्य तो समझ में आता है .वहाँ तो हमारी मजबूरी होती है पर इन लोगों को क्या चीज यहाँ बाधें रखती हैं .यही कौतूहल हर बार मेरे कदम वहाँ रोकने लगा और धीरे धीरे मुझे इसका चस्का लग गया .अब हमें भाषण सुनने में मजा आने लगा था .हंलां कि इसमे मेरा साथ कॉलोनी का कोई बच्चा नही देता था .पर हमें बचपन से ही इसकी विशेष फिकर नहीं हुआ करती थी .हमें तब भी लगता था कि एवेर्य्बोद्य must have फ्रीडम to ऎन्जॉय ons ovan spas .यह और बात है कि तब हमें इस बात को इस तरह ना कहना आता था ना सोचना .हाँ हमे अपने दोस्तो सखियों से कोई शिक़ायत नही होती थी कि वे मेरा साथ नही दे रहे .पर उस समय यह भी था कि कहीँ आना जाना बच्चों कि अपनी मर्जी पर नर्भर भी कहॉ कर्ता था .anyvay ,हम धीरे धीरे पड़ोस वाले सेन गुप्तों काकू के साथ भाषण सुनने के लिए ही वहां जाने लगे .अब हमें कौन वक्ता रूचिकर बोल रहा है कौन बस यूं ही सा ,यह भी थोडा थोडा समझ में आने लगा था .और एक दिन जब मंच पर एक व्यक्ति ने बोलना शुरू किया तो उसकी आवाज भाषा और अंदाज ने हमें कहीँ और पहुचा दिया ,। कुछ्था उस सख्श कि ओज भरी आवाज में ,भाषा में ,बात कहने के स्टाइल में कि मेरे मन में अक इक्छा ने जनम लिया हम भी ऐसे बोल पाते तो .हम उस मंच पर तो नही पहुचे पर स्कूल ,इन्तेर्स्कूल ,बैंक इन्टर बैंक के विभिन्न कोम्पेतिशन में मेरे पार्टिसिपेशन और जीतने कि नीव उसी दिन रखी गयी थी .और उसी दिन अटल बिहारी बाजपेई ने अपना एक बहुत बड़ा प्रशंसक पाया था .उन दिनों त
। व। तो हुआ नही करते थे नेताओ को सुनने का माध्यम ये सभाये ही हुआ करती थी .बाजपेई जी भी तब उभरते हुए नेताओ की श्रेणी में आया करते होगें .एक लंबे अर्से बाद जब वे हमारे शहर लखनऊ से चुने जा कर प्रधानमंत्री बने तो बाबुपुरवा की उस छोटी बच्ची को बहुत ख़ुशी हुई थी की उनकी जीत में एक वोट उसका भी था .हाँ तब तक लखनऊ हमारा शहर था .जीवन की मांगो के हीसाब से thiikane तो बदलने ही पड़ते हैं .हम लोग जब छोटे थे तो personality development या hobbies को profession में बदलने की ना तो क्लासेस हुआ करती थी ना ही ऐसे concepts सुने जाते थे .कम से कम मध्यमवर्गीय तबके में तो नहीं .मोहल्ले में होने वाली ये सभाएँ ,कविसम्मेलन ,पड़ोस की दीदी, भाभी, बुआ, ,रामलीला ,दुर्गापूजा जैसे सार्वजानिक त्यौहार यही सब हमारे जीवन और व्यक्तित्व को दिशा देती पाठशालाएँ होती थी .

Thursday, September 27, 2007

छोटे भैया रहट वाले

आज के समय का gaint wheel हमारे समय में रहट हुआ करता था .काले रंग के लकड़ी के चौड़े फटटो के दो क्रॉस ,एक दूसरे से थोड़ी दूरी पर खडे रहते थे .उनके बीच में लकड़ी के चार पालने जैसे झूले होते थे ,जीन्हे हम लोगों के छोटे भैया हांथो से धक्का दे कर ऊपर नीचे गोल -गोल घुमाते थे .छोटे भैया का यह रहट लकड़ी के फटटो को नट बोल्ट से कस कर खड़ा कीया जाता था .घर से school के रासते में पड़ने वाली बाज़ार के पास रहट खड़ा कीया जाता था और phir महीने डेढ़ महीने बाद एक din स्कूल से लौटते समय हम पाते ki वह जगह खाली है .रहट जहाँ गड़ा रहता उन गढ़ो को mitti से पूर diya जाता था । उस ताजा पड़ी mitti को देख हंमे ऐसे ही खाली पन का एहसास होता था जैसे कीसी अपने के चले जाने पर होता है .उस दीन स्कूल से घर के रास्ते में ना लडाई झगडा होता था ना ही एक दूसरे को चीढ़ाना .
ये छोटे भैया कहॉ से आते थे और कहॉ को जाते थे यह तो हम लोगों को ठीक ठीक पता नही था । ना ही उनसे कोई गाँव दुआर ki रिश्ते दारी थी .पर यह सच है ki हमे उनके आने का इन्तजार रहता था और उसका कारण केवल रहट झूलना नही होता था .हमे यह भी पता था ki जितना खुश हम उन्हें देख कर होते थे वे भी उतना ही खुश होते थे .मजाल था ki स्कूल जाते समय हम रहट में बैठ जाएँ .उन्हें ज्यादा पैसे दे कर बैठाने के लिए कहने जैसी बातें तो हम सोच भी नहीं सकते थे । छोटे भैया का कहना था ki स्कूल जाते समय खेल या मजे का मूड नही होना चाहिऐ .
हम तब आज का जितना तो सोच नही पते थे पर anubhav jaroor कर लेते थे .हमे उनका यूं kandhe पर grihasthii lad कर अचानक ही कीसी नयी दिशा को चल देना तब भी bahoot fascinate karata था .शायद aankhe बंद कर कीसी anjan sukun भरी जगह पर pahuch जाने का जो chaska है उसके पीछे kahnii छोटे भैया का हाथ है ."samresh basu के भी कोई छोटे भैया jarur रहे hogen .सच है vyaktitv के bahut से pahalu की neev बचपन में hii पड़ jati है.

Wednesday, September 26, 2007

everything has a purpose

i have heard that in some languages the word chance does not exist .Where God is present there is no place for chance .Everything is regulated ,ordered from high above . Everything that happens to us happens for a purpose .I have experienced it to be true . We do not possess the foresight to decipher the exact purpose of the events at the time of their happening . But at some other point of time the realisation will dawn upon us .i feel that my starting of this blog at this particular period of time has also got certain significance .so i will continue writing it .computer and net connection are at my home for last almost eleven years but i had never been much inclined to use it , except few astray mails . but now something propels me to write .so, amen .

Tuesday, September 25, 2007

मेरा सबसे पहला दोस्त ..........


बोलना शुरू करने के बाद और school जाना शुरू करने से भी पहले का मेरा दोस्त है -राकेश चतुर्वेदी .यह अलग बात है ki राकेश से तकरीबन बाईस साल से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है .where are u rakesh .which branch of allahabad bank .बस zindagi की व्यस्ततायें बढ़ गयीं aurphir milna नहीं हो पाया .हमें लगता है ki हमारे जीवन के हर दौर में ईश्वर लोगों से हमें एक खास मकसद से milaata है .
मेरी अम्मा और राकेश ki भाभी( जहाँ तक हमें याद है वह अपनी माँ को भाभी ही बुलाता था ।) बाबुपुरवा के. वेलफेयर सेंटर में एक साथ tailoring का course कर रहीं थी .वहां हम ही दो बच्चे अपनी माँ ke साथ आया करते थे
राकेश बहुत शांत और सीधा बच्चा था and i was outgoing even at that age .मैं उसे हाथ पकड़ कर
खेलने के लिए लाती थी,उसकी भाभी के पास सेऔर जब हम लोगो ने school जाना शुरू कीया तो भी साथ ही थे । in fact उस समय बाबुपुरवा कॉलोनी और kidwainagar के अधिकतर बच्चे उसी school यानी "kidwai school में ही जाते थे । स्कूल की building राकेश घर के सामने थी .kidwainagar के main चौराहे से थोड़ा सीधे चलिए और first left hand turn में मुड़ जाईए .बस उसी गली में बने मकानों में से एक में था हमारा पहला school .हाँ तो अपनी दोस्ती पर चलते हैं . स्कूली पढ़ाई का पहला साल था । साल के अंत में पहली बार parikshaa .परीणाम घोषित हुआ .राकेश क्लास में प्रथम आया और में दव्तीय .उसका मुझसे एक नंबर ज्यादा था .हमें ठीक ठीक याद नहीं हमने क्या अनुभव किया या कैसा लगा । पर कुछ तो जरूर रहा होगा मेरे चहरे पर कि दोनो रिपोर्ट कार्ड देखने के बाद राकेश ने मेरा हाथ पकड़ा और सीधे वीथेका दीदी के सामने .'दीदी ,मेरा आधा नंबर नीता को दे दीजीए '.उसकी आंखो से आंसू बह रहे थे । स्टाफ रूम में टीचर हँस भी रहे थे और शायद उसके भोलेपन पर न्योछावर भी हो रहे थे । मुझे समझ में नही आ रहा था की क्या करना चाहिए पर इतना उस उम्र में भी पता कि मेरे दोस्त ने जो कहा वह सबसे अलग और अच्छा है .अब हम दोनो रो रहे थे और विथिका दीदी दोनो को समझाने कि कोशिश .राकेश को तो शायद यह घटना याद भी नहीं होगी पर हम इसे कभी नही भूले । समय समय पर बात चीत के दौरान हमने कई लोगों को इसे सुनाया भी हैं .आज जब हम पीछे मुड़ कर देखते है तो लगता है कि राकेश की दोस्ती हमारी jindagii के दोस्ती वाले खाने का शगुन हैं । जीवन के हर पड़ाव पर ,हर मोड़ पर मुझे बेमिसाल दोस्त milte रहे हैं .friends who have valued me ,loved me ,and pampered me .उन्होने मुझ पर भरोसा किया iseeliye मुझे खुद पर विश्वास है .

Saturday, September 22, 2007

कुछ कदम पीछे कि ओर


why i started this blog .i m of the genre which finds oneself more comfortable with कागज़ और कलम
a pen between fingers and the rustling of papers set the mind functioning and heart racing .but i also acknowledge the advantages of developing technology . sharing my thoughts and emotions with my friends by letters and on telephone was becoming increasingly difficult and inadequate . hence this blog . moreover i feel that people of my age and type start longing for communicating with the persons of their own age group . well the search has begun. let us see how many of us can find one another . i invite all u youngsters who chance to stumble upon this blog and have any memory of places or person talked about herein to express their views . i also request them share this with their parents and encourage them to join us in our this journey towards past .

my childhood memories start from babupurwa colony ,kidwainagar kanpur .उस समय किद्वैनगर चौराहे पर .एक पानी का फौन्तैन था और उसमे बाकायदा पानी चलता था । अँधेरा होने के बाद रंगबिरंगी lights के बीच girti पानी की इन्द्रधनुषी धाराएँ हमे kisi tilism से कम नही लगती थी । सच पूछो तो हमारा sansar बहुत सादा हुआ करता था । छोटी छोटी बातों में ढ़ेर सारी खुशियों वाला .और चौराहे प्र कॉलोनी कि तरफ वह वीराट पीपल का पेड़ जो जिसके हवा मे ताली बजाते पत्ते आज भी मेरी चेतना पर छा जाते है .
उस चौराहे के पास कॉलोनी के quarters के आगे बहुत बड़ा मैदान थापता नही अब क्या हाल है पर उस समय उस मैदान में दशहरा का मेला लगता था ,रावन भी जलता था . हम लोग नीरा दीदी के घर से आंगन में तखत के ऊपर कुर्सियाँ रख कर दीवार से लटक कर रावन का जलना देखते थे । u wont believe kisi भी multiplex कि बालकनी से देखने में हमे वह आनंद कभी नही आया .शायद वह उम्र ही ऐसी होती है ki उल्लास bina कारण छलकता है।
उस उम्र की एक और याद है जो हमे बहुत खूबसूरत लगाती है । अपने बाबू के साथ naharia के कच्चे रास्ते पनकी के mandir जाना । बाबू हमे और गीता jijji को cycle में बाबुपुरवा से पनकी तक ले जाते थे । आज की सड़के और traffic को देखते हुये तो यह असम्भव सा लगता है ना .पर उस समय naharia का कच्चा रास्ता बहुत हरा भरा होता था । पानी से भरी naharia में सफ़ेद kamalini के फूल khile रहते थे .naharia के kinare हरी मुलायम घास की चौड़ी पट्टी ,उसके बाद ऊँचे हरे पेड़ ,jinaki छाया घास पर दूर तक पसरी रहती थी । naharia के kinare कच्ची पगडंडी पर हमारे बाबू की cycle चलती थी । बीच में बाबू cycle kinare खड़ी करते और पानी में उतर हमारे लीये kamalini तोड़ते । हम और jijji kinare से उचक उचक कर उन्हें बताते की हमे कौन से फूल चाहिए .कमिलिनी की लंबी डंडी को बीच से थोड़ा थोड़ा तोड़ कर माला बनायीं जाती थी ,जीसमे नीचे कमिलिनी के फूल का locket रहता था .उस हरी भरी naharia का तो अब शायद कोई अस्तित्व ही नही है।
वह naharia रास्ते में कहॉ से शुरू होती थी और कहॉ ख़त्म यह तो हमे bilkul याद नहीं पड़ता पर उसकी haritima आज भी मेरे मन पर छाई है .शायद यह उस चौराहे पर के पीपल और naharia का ही मेरे अचेतन मन पर असर है ki nature se meri एक खास तहर ki अंतरंगता है .यहाँ तक ki when i close my eyes its never absolute black its green .i always dream of green hills and vast expanse of blue sky .in fact एक टुकड़ा आस्मान और एक मुट्ठी हरियाली हमेशा मेरे साथ रहती है ,बंद चाहर्दीरी में भी .
kuchh kadam peeche kii or .this journey to past becomes more fulfilling when your future is accompanying u .yes i am experiencing it .the peepal tree here is clicked by my fifteen year old son especially for this post.