Tuesday, November 15, 2022

महेश्वर में दूसरा दिन -- रानी अहिल्या बाई होल्कर का किला

दूसरे दिन भी हम लोग रिसोर्ट में नाश्ता कर के घूमने निकल पड़े। आज हम घाट ही घाट पहले दिन वाले घाटों को पार कर आगे बढ़े और जा पंहुचे मुख्य घाट जहाँ स्थित है रानी अहिल्या बाई होल्कर का किला । रास्ते में नर्मदा तो बांह थामें चलती ही हैं, घाटों पर होते स्नान, ध्यान और अन्य क्रिया- कलाप भी आपको लोगों से जोड़ते चलते हैं। बीच बीच में घाटों पर एक दो छतरियाँ भी बनी हैं, जिनके बरांडों में तीर्थ यात्री रात को शरण ले लेते हैं। न जाने कौन थे वे हमारे पूर्वज, पर हम पर छत्र-छाया अभी भी बनाए रखते हैं। मुख्य घाट पर किला प्रारम्भ होने से पहले, किले के बाहर ही छोटी सी समाधि जैसी बनी है, जिस पर लिखा था कि रानी अहिल्या बाई को उस स्थल पर ही मुखाग्नि दी गई थी। अहिल्या बाई के व्यक्तित्व में एक मुख्य बात थी कि इतने बड़े साम्राज्य की महारानी, इतनी कुशल शासक किंतु सादगी एवं आध्यात्मिकता में रचा-बसा अस्तित्व। आज भी महेश्वर की हवाओं में रानी अहिल्या से अधिक माता अहिल्या का वात्सल्य एवं संरक्षण लहराता है। वहां की आज की भी पीढ़ी उनको इसी रूप में याद करती है। पीढ़ी दर पीढ़ी उनके इसी रूप की गाथायें अधिक कही जाती रहीं हैं। उस घाट पर पहुंचते ही सबसे पहले ध्यानाकर्षित करती हैं अर्ध अष्टभुजाकार आकृति में बनी काफी बड़े दायरे को घेरतीं,खूब ऊंचाई तक जाती सीढ़ीयाँ। ये सीढ़ीयाँ समाप्त होती हैं एक बड़े अर्ध वृत्ताकार धरातल पर, जिस पर खड़ा है किले का भव्य द्वार। उस द्वार में प्रविष्ट होने से पूर्व हम थोड़ा थमे। सिर उठा कर ऊंचे फाटक के आखिरी सिरे को देखा, ऐसा लगा जैसे ऊपर फैला नीलाकाश भी घुटनों के बल बैठ उस साध्वी रानी की स्मृति को नमन कर रहा हो। द्वार के दोनों ओर और उसके ऊपर पत्थरों में उकेरी कलात्मक मानवीय आकृतियाँ हैं, देवताओं की आकृतियाँ हैं, महीन जाली, फूल- पत्तियाँ हैं और यह सब इतनी सुंदरता से उकेरा गया है कि मन आह्लादित भी होता हौ और चमत्कृत भी। कहा जाता है कि रानी अहिल्याबाई ने किले को नवीन और वर्तमान रूप देने के लिए राजस्थान से कारीगर बुलाए थे और राजस्थान की भवन निर्माण कला का स्पष्ट प्रभाव दिखता है किले के इस भाग में। महीनताई से कटी पत्थर जालियाँ, झरोखें और हाथियों की आकृतियाँ आदि अद्भुत कारीगरी के अनुपम दृष्टांत हैं। फाटक में प्रवेश करते ही सामने है खुला प्रांगण जिसके दोनों ओर, उसे घेरते हुए हैं छतदार बरांडे। एक तरफ के बरांडे में नर्मदा की ओर खुलते हुए झरोखे हैं। इन झरोखों से बाहर का दृश्य मंत्रमुग्ध कर देता है। घाट से लगभग सौ फीट की ऊंचाई पर हैं ये झरोखे।घाट पर बने शिवलिंग, जल अर्पण करते, स्नान-ध्यान करते लोग और मंथर गति से अनवरत बहती नर्मदा, सब आत्मसात करते हुए मन अहिल्या बाई के भव्य, स्निग्ध, बहुआयामी व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धावनत हो उठता है। इस खुले प्रागंण में सामने है विठो जी राव होल्कर की छतरी। विठो जी राव होल्कर, यशवंत राव होल्कर के छोटे भाई थे। ये दोनों तुको जी राव होल्कर के पुत्र थे। तुको जी राव होल्कर ने रानी अहिल्या बाई के पश्चात गद्दी संभाली थी। विठो जी ने पेशवा बाजी राव के राज्य में लूट- पाट कर चुनौती दी थी। अंत में बाजी राव पेशवा विठो जी को पकड़ने में सफल हो गए थे और हाथी के पाँव के नीचे कुचला कर उन्हें मृत्युदंड दिया था। बाद में विठो जी की अस्थियां महेश्वर लायीं गईं थीं और किले के प्रांगण में उनकी समाधि बनाई गयी। यह छतरी अत्यंत कलात्मक है। इसकी वाह्य दीवार पर हाथियों की एक पंक्ति वाली पट्टी दूर से ही ध्यानाकर्षण करती है। कुछ सीढ़ीयां चढ़ कर हम छतरी के द्वार तक पहुंचते हैं। केंद्र में समाधि है जो चारों ओर से बंद है और इस समाधि को चारों ओर से घेरता हुआ संकरा गलियारा है, जिसमें आसानी से चला जा सकता है। यहाँ दीवारों पर नक्काशी, जालियाँ आदि बहुत ही कलात्मकता से उकेरी गईं हैं। मैंने विठो जी की समाधि के भीतर घूमते हुए कुछ समय बिताया। कुछ बातें जो मस्तिष्क में घुमड़ रही थीं उस समय - कैसी दर्दनाक रही होगी विठो जी की मृत्यु, क्या चला होगा उन क्षणों में उनके मन में जब शायद हाथृ पैर बाँध कर डाला गया होगा हाथी के सम्मुख। भय तो नहीं ही होगा। राष्ट्र के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले ये रणबांकुरे किस माटी के बने होते हैं? ये सवाल किन्हीं जवाबों की प्रतीक्षा में नहीं थे, बस अजब से भाव घुमड़ रहे थे मन में। इस समाधि की वाह्ल दीवार पर दैड़ते हुए हाथियों की बनी पट्टी जो समूची दीवार पर दूर से ही अलग दिखती है, उसे देख कर भी आया था एक विचार मन में कि क्या यह पट्टी इसीलिए यहाँ बनायी गई है कि आने वाली पीढ़ी के मन -मस्तिषक में कभी धुंधली न पड़े स्म़ति विठो जी के बलिदान की। इस समाधि के ठीक सामने बायीं ओर है अहिलेश्वर मंदिर। यहां समाधि है रानी अहिल्या बाई की, जिसके ऊपर स्थापित है शिवालय। सीढ़ीयाँ चढ़ ऊँचे दरवाजे से भीतर जाने पर सामने हैं कुछ और सीढ़ीयाँ जो पहुचाती हैं एक बरांडे तक, जिसके अंतिम छोर पर सामने हैं एक बड़े से प्रकोष्ठ में शिव लिंग । बरांडे में शिवलिंग के सम्मुख एक बड़ा हवन कुंड है। ड्यूटी पर तैनात गार्ड ने बताया कि आज भी होल्कर राजपरिवार के वंशजों का विवाह उसी वेदी में जलती अग्नि की पावन उपस्थिति में होते हैं। यह बरांडा तीन तरफ से खुला है। ऊंचे-ऊंचे खम्बे और हर दो खम्बों के बीच मेहराबदार खुला स्थान, जहाँ से सामने दिखती है नर्मदा। किले के विभिन्न स्थानों से नर्मदा का सानिध्य और आशीर्वाद सी मन को सहलाती नर्मदा के पावन जल का स्पर्श कर हम तक पहुंचाती हवाएं, यह विशिष्टता है इस किले की। हम भी चारों ओर घूम कर बरांडे में महादेव के सम्मुख खम्बे से टिक कर बैठे बैठे, तो मन आसीम तृप्ति से भर उठा। रानी अहिल्या बाई भगवान शिव की अनन्य भक्त थी। उन्होंने तो समूचे भारत में अनगिनित स्थानों पर शिव मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया है, किंतु महेश्वर में शिव और नर्मदा की ऐसी लय मिली है कि आज-तक वो आध्यात्मिक रस धार लोगों के मन-प्राण आप्लावित करती रहती है। इस बरांडे के खम्बों के ऊपरी सिरों पर विष्णु के अवतार उकृत हैं, प्रत्येक खम्बे पर एक अवतार और एक खम्बे में वह स्थान खाली है, कलकी अवतार की प्रतीक्षा में।कितनी अद्भुत दृष्टि एवं विचारों का वितान हुआ करता था उस समय कलाकारों का। विठो जी की समाधि एवं अहिलेश्वर मंदिर के बीच के स्थान से सीढ़ीयां एक और विशाल फाटक की ओर जाती हैं। इस फाटक से बायीं ओर जाता एक थोड़ा ऊबड़ृखाबड़ रास्ता है, थोड़ा ऊपर को उठता हुआ, जो जाता है रानी अहिल्याबाई के महल की ओर। महल की बात हम करेंगे अगली पोस्ट में। अभी तो हम आपको चित्रों की दुनिया में ले चलते हैं, जहाँ आप किले की सैर करेंगे।
All pictures@ Sunder Iyer