Thursday, April 11, 2013

एक मुलाकात

०१.०३.२०१३
सबेरे की जंगल सफ़ारी से लौटने के बाद हम गेस्ट हाउस के बरामदे में बैठे अभी तक जंगल की ताजी ,नम हवा की नर्म छुवन के  एह्सासों में डूबे हुये थे.सामने के पेड़ों की कतार भी एकदम दम साधे खड़ी थी.देनवा भी बिल्कुल बेआवाज बह रही थी.सबने जैसे सलाह कर रखी थी कि हम सपने सी सुंदर जो सुबह अभी अभी जी कर लौटे हैं या कहें की अभी भी जी रहे थे उसके जादू में वे हमे  कुछ देर और यूं ही  डूबे  रहने देगे.

थोड़ी देर बाद नदी की ओर से चढ कर ऊपर आते दो लोग दिखायी दिये.एक तकरीबन तीस एक साल का युवक था और दूसरे प्रौढ व्यक्ति थे.कंधों तक लहराते सफ़ेद बाल,लम्बी सफ़ेद दाढी,मध्यम लम्बाई और गठे बदन के ये सज्जन जो सदरी पहने थे उस पर काले रंग के पंजो के निशान बने थे.हमने अंदाज़ा लगाया कि वे शायद वन विभाग के ही कर्मचारी होगे क्योंकि बिना किसी साजो समान के वे वैसे भी पर्यटक तो हो ही नहीं सकते थे.
कुछ देर बाद पीछे की ओर से फोटो खींच कर सुंदर जब सामने की ओर आये तो उनके गले में लटकते कैमरे को देख कर उन सज्जन ने बात चीत शुरु की और फ़िर हम चारो लोगों मे बातों का जो सिलसिला शुरु हुआ ,जिन विषयों पर चर्चा हुई,वार्तालाप ने जो दिशा पकड़ी कि वह दोपहर यादगार बन गयी.
ये सज्जन थे श्री कैलाश जोशी.कैलाश जी पेंटर हैं और मध्य प्रदेश के वन अभ्यारणॊं के लिये वन जीव-जन्तुओं और पक्षियों आदि के चित्र,पोस्टर पेंट करते हैं. उनके ही शब्दों में वे उन कतिपय भाग्यशाली लोगों में हैं जिनका शौक और रुचि ही जीवकोपार्जन का साधन है.प्रक्रिति के सानिध्य में रहना और चित्र बनाना  दोनों ही उनका शौक है और काम भी कुछ ऐसा मिल गया कि आये दिन पचमढी,कान्हा,बान्ध्वगढ,सतपुरा और मध्य प्रदेश के अन्य अभ्यारणों के चक्कर लगते रहते हैं.
 प्रकृति का सौंदर्य,उसके सान्निध्य में मन में उपजती शांति और फिर उससे एकात्म स्थापित होने की स्थिति से होती हुयी बातें आध्यात्म की ओर मुड़ गयी
चर्चा के दौरान विषय आया कि यदि हम सचमुच पूरी ईमानदारी से कुछ अच्छा करने की सोचते हैं तो हमारे चारो ओर व्याप्त वह अद्र्श्य ,सर्वशक्तिशाली ताकत उस काम को पूरा करने में हमारी सहायता अवश्य करती है.कई बार उसके तरीके,उसके रास्ते हम समझ नहीं पाते पर जब असंभव से लगने वाले काम पूरे हो जाते हैं तो करिश्मा भी उसी का ही होता है बस शर्त है हमारे इरादों मे सच्चाई और ईमानदारी की. उसी दौरान चर्चा हुई विचारों के संप्रेषण की.
जोशी जी ने एक घटना का जिक्र किया.एक बार वे मंडई में कहीं जा रहे थे जब उन्हें दलदल में फ़ंसी एक गाय दिखाई दी.गाय जितना प्रयत्न करती थी ,उतनी ही उसकी स्थिति और बिगड़ रही थी.जोशी जी थोड़ी देर खड़े सोचते रहे,इधर उधर देखा भी पर आस पास न तो दूर दूर तक कोई व्यक्ति था न ही कोई आबादी.गाय की सहायता करने का कोई उपाय, कोई साधन समझ में नहीं आ रहा था.उसकी विवशता और अपनी बेबसी से हार वे कुछ कदम आगे बढे ,उस परिद्रश्य से बाहर हो जाने के इरादे से.लेकिन मन भला कैसे मानता फ़िर वापस आये और ईश्वर से मन ही मन कहा कि यदि इस समय हमे यहां भेजा है तो इस मूक जीव की वेदना यूं बेबस हो कर तो नहीं देख सकता प्रभू कोई तो राह दिखाओ और थोड़ी ही देर में सामने से कुछ व्यक्ति आते हुये दिखाई दिये और देखिये इन लोगों के पास रस्सी भी थी.जोशी जी ने जा कर उन लोगों को स्थिति से अवगत कराया और फ़िर सबने मिल कर गाय को बाहर निकाल लिया.यह घटना बताती है कि यदि हम सचमुच करना चाहते हैं तो वह अवश्य होगा.
बातों के दौरान हमने जिक्र किया बहुत साल पहले गोल मार्केट वाली उस घटना का जब हम चौराहे की भीड़ में फ़ंसे अपनी बीमार बेटी को गोद में लिये उस पिता की सड़क पार करने में सहायता करना चाहते थे लेकिन बैंक पहुचने में देरी हो जाने के डर से टैम्पो से उतर नहीं पा रहे थे .तब ही स्कूल जा रहे दो बच्चे जो हमारी टैम्पो के पास आ खड़े हुये थे और जिनकी बात चीत हमने सुनी थी उन्होंने स्कूल पहुचने में देरी हो जाने पर सजा मिलने की बात जानते हुये भी उन व्यक्ति की सहायता की थी.हमें उन बच्चों की संवेदना,उनकी निश्च्छलता हमेशा याद रहती है और हम उनके आभारी भी है.पर जोशी जी ने कहा कि सच है अपनी तकलीफ़ से पहले दूसरों की तकलीफ़ को रखना और समझना ये बच्चे और उनके जैसा पावन मन रखने वाले ही कर सकते हैं लेकिन इस घटना से विचारों के संप्रेषण वाली बात भी प्रमाणित होती है.उन्होंने कहा कि आपके भीतर उठ रहे विचार उन बच्चों तक जो आपकी टैम्पो के पास खड़े थे संप्रेषित हुये और उन्हें वह निर्णय लेने की शक्ति मिली.उनके मन में भी वही विचार उठ रहे थे लेकिन वे डावांडोल स्थिति में थे लेकिन जब आपके भी विचार उनके विचारों से मिल गये तो निर्णायक शक्ति बन गयी.इसीलिये कहते हैं शायद की सामूहिक प्रार्थना में  बल अधिक होता है.असर अधिक होता है.
बहुत अच्छा लग रहा था उस शांत परिवेश में बैठ ऐसे विचार विमर्ष करने में सब कुछ जैसे कितना साफ़ और चमकदार अनुभव हो रहा था.कितनी सकारात्मक उर्जा मिल रही थी.मतलब यह कि यदि हम अपने चारों ओर अच्छा होता हुआ देखना चाहते हैं ,स्वस्थ सोच वाला परिवेश चाहते हैं तो एक माध्यम है अपने विचारों पर अपनी पकड़ मजबूत करना,उन्हें पूरी शिद्दत,पूरी ईमानदारी से पालना जिससे वे इतने मजबूत हो सकें कि दूसरों की विचार धारा को भी प्रभावित कर सकें नहीं,आसान तो बिल्कुल नहीं पर सकारात्मक सोच को पालना ,उसे बढावा देते रहना इतना मुश्किल भी तो नहीं है.
जोशी जी के साथ जो युवक था उससे मिल कर भी मन को सुख मिला.उसका  बान्धवगढ में कपड़े का व्यवसाय है.पता नहीं प्रक्रिति के सानिध्य में रहने का असर था या फ़िर वह युवक स्वाभाविक रूप से ही सरल और आध्यात्म की ओर झुकाव वाला था पर इस उम्र के व्यवसाय करते हुये युवकों के आध्यात्मिक साहित्य ,उस पर मनन और विश्लेषण आदि की रुचि कम ही देखने को मिलती है.शायद छोटे शहरों में आदमी अभी भी ज्यादा सादा है. माटी के ज्यादा करीब है.
उसने गौतम बुद्ध के जीवन से एक संदर्भ सुनाया.जब गौतम बुद्ध अपनी खोज मे अकेले ही चले जा रहे थे तो एक स्थान पर अत्यंत क्लांत हो कर बैठे हुये थे.मन की उथल पुथल के कारण शरीर की ओर ध्यान ही नहीं गया था .वे बहुत दूर तक ,लम्बे समय से बिना कुछ खाये पिये बस चलते ही चले गये थे.उस समय उनमे इतनी भी शक्ति बाकी नहीं रही थी कि वे उठ भी सकें .जिस व्रिक्ष के नीचे वे आंखें मूंदे निढाल पड़े थे,उससे कुछ दूरी पर ग्रामीण महिलायों का एक समूह किसी धार्मिक या सामाजिक आयोजन में व्यस्त था और वे सब मिल कर गीत गा रहीं थीं.उनकी गाने की उठती गिरती स्वर लहरियों,खिंचती-टूटती तान ,आरोह अवरोह से गौतम ने एक पाठ सीखा-- शरीर हो या मन उसे वीणा के तार की तरह इतना ही कसो ,इतना ही खींचो जितना सहन करने की उसकी सामर्थ्य हो.अधिक खींचा तो तार टूट जायेगा और ढीला छोड़ा तो संगीत पैदा ही नहीं होगा.अच्छा लगा उसका बातों को एक और मोड़ देना.
लम्बी बात चीत हुयी और चलती रह सकती थी पर फ़िर जीवन के और भी तो आयाम हैं और भी जरूरतें हैं जोशी जी और उनके साथी को वापस जाना था.पीपल और नीम के पेड़ों के बीच बनी ,फ़ूस से छायी उस मड़ैया के नीचे बैठ हमने बहुत सी बातें की जीवन दर्शन से ले कर आदमी के भीतर बाहर की और फ़िर एक दूसरे से विदा ली.हम लोगों ने न एक दूसरे का पता लिया न फ़ोन नम्बर.अचानक मुलाकात हुयी थी और बस यूं ही अपने अपने रास्ते चल दिये.उस मुलाकात को आगे चलते रहने वाले सम्बंध या परिचय को किसी तरह की अनवरतता प्रदान करने की बात हममे से किसी के दिमाग में नहीं आयी थी.शायद यही उस क्षण ,उस पल को सच्चा मान देना था.