Sunday, October 28, 2018

एक था कॉफी हाउस
उपन्यास और कहानियां भी एतिहासिक दस्तावेजों का काम करती हैं। स्थानीय स्थलों का तत्कालिक स्वरूप हो या क्षेत्रीय उत्सवों, मेलों का स्वरूप, प्रचलित सामाजिक अवधारणायें हो, या रीति रिवाज, कथाक्रम में पिरोए हुए होतें हैं और बरसों बाद भी हमें अपने विगत से जोड़े रहते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी स्थान का स्वरूप हमारे हमारे देखते देखते बदला होता है और फिर किसी किताब में उसके पुराने स्वरूप का जिक्र पढ़ते ही अपनी कुछ पुरानी यादों को हम दुबारा जी लेते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ अज्ञेय जी के नदी के द्वीप उपन्यास को एक बार फिर से पलटते हुए। पता नहीं आप में से कितनों को याद है हजरतगंज का पुराना कॉफी हाउस। जहां वर्तमान कैफे कॉफी डे है, उससे इनकमटैक्स आफिस की ओर चलने पर दो तीन दुकानों के बाद हुआ करता था। अब भी शायद नवीनीकरण के बाद उसका कोई छोटा संस्करण मौजूद है वहां। वैसे बहुत ठीक से पता नहीं है हमें। पुराने काफी हाऊस में भी भीतर जाने का हमारा अनुभव मात्र एक बार का है। जब हम लोग एक ट़्रेनिंग के सिलसिले में लखनऊ आए थे और उत्सुकतावश पूरा ग्रुप अंदर चला गया था । जानते हैं सबसे मजेदार बात क्या रही थी हम लोगों के लिए कि पौन घंटा भीतर बैठ गप्पे मारने के बाद भी बिना एक कप कॉफी पिए ही हम सब बाहर आ गए थे। हलां कि जो गजब का बहस- मुबाहिसा वाला माहौल था कि लग रहा था कि वहां हर व्यक्ति केवल बोलने बतियाने ही आया है और उसमें हम लोग आपस में बात चीत ज्यादा नहीं कर पाए थे, पर उन दिनों जब रेस्ट्रां में घुसना ही मध्यम वर्गीय लोगों के लिए रेयर टाइप की लक्जरी हुआ करती थी, भीतर बैठ कर बिना अधन्नी खर्चा किए बाहर आ जाना किसी थ्रिलिंग एडवेंचर से कम नहीं था हम लोगों के लिए। आइए, आपको ले चलते हैं कॉफी हाउस के उस माहौल में अज्ञेय जी की कलम के जरिए,
“चन्द्र का विश्वास था कि अच्छे पत्रकार के लिए कॉफी हाउस में घण्टों बिताना आवश्यक है – शहर में क्या हुआ है, क्या होने वाला है, क्या हो रहा है, सब कॉफी हाउस का वातावरण सूंघ लेने भर से भांप लिया जा सकता है। भुवन अनुभव करता था कि दूसरे पत्रकार भी ऐसा मानते हैं, क्यों कि वहां प्रायः उनका जमाव रहता था और सब वहां ऐसे कर्मरत भाव से निठल्ले बैठ कर , ऐसे अर्थ भरे भाव से व्यर्थ की बातें किया करते थे कि वह चकित हो जाता था.....”
छुटभइये नेता, पत्रकार , साहित्यकार बनने की प्रक्रिया में जुटे लोग, सबका जमावड़ा रहता था वहां । इंटरनेट के पन्ने नहीं होते थे न दिनों, पर आदान प्रदान की अनवरत सलिला प्रवाहित होती रहती थी ।
अब हमारे शहर में वह कॉफी हाउस नहीं है पर उसका जिक्र जिंदा है।

May 2018
तुंगभद्रा नदी किनारे की शाम । दूर परले सिरे पर सूरज अभी ऊंचे पेड़ों के झुरमुट से बाहर नहीं आया था लेकिन झींसी बारिश सी झरती उसकी मद्धम रौशनी में कांस की बालियां हीरे की कनी से जड़ी लग रहीं थीं। और कांस ही
क्यों काले पाथरों की चट्टानी काया भी जैसे उसकी नेहिल छुअन से तन्वंगी हो उठी थी।
हम लोग नदी के उस किनारे चट्टानॆ पर खड़े थे जहां इस पार से उस पार करती नावें आती जाती हैं। नदी के पाट में सूरज की झलमल लगभग उसी जगह कौंध रही थी जहां चट्टाने और कांस थी। कुल मिला कर वह हिस्सा हमें इतनी जबरदस्त रूप से आकर्षित कर कहा था कि हम खुद को रोक नहीं पाए और हाथ हाथ भर लम्बी घास के कीचड़ भरे मैदान को पार कर , नदी के किनारे किनारे चट्टानों तक जा पहुंचे। काफी बड़ी ऊंची चिकनी चट्टानें थीं और उस पर कांटों वाले जंगली पेड़ भी थे बीच बीच में जहां तहां चट्टानों के आस पास। पर भला मन का पगलाया उछाह कब हारा है इन बातों से तो अंततः हम चढ़ ही गए चट्टानों पर और सच मानिए पहुंच वहां मन एक साथ शांत और चंचल हो उठा। अरे वाह, कैसे नहीं सम्भव है ऐसा। कभी इमली, या अमिया की खटमिट्ठी चटनी नहीं खाई क्या। हां फिर, बिल्कुल वैसा ही मजा, जीभ तालू से लग चट्ट करे तो सनसनाता सा खट्टा और रस गोल गोल मुंह में घूम बूंद बूंद गले से आहिस्ता आहिस्ता उतरे वह वाला मीठा ।विरोधाभास भी एक अलग ही तरह की एडवेंचरस अनुभूति देते हैं।
हां तो, चट्टानों पर से नदी और दूर तक दिखाई दे रही थी। बीच बीच में पानी में पालथी मार बैठी शिलाओं से कुछ गुपचुप बतियाती, हाथ मिलाती, गले मिलती, नदी धीरे धीरे बही चली जा रही थी। सूरज अपनी इधर उधर भागती किरणों को बटोर पुटरिया में बांध लेने की कोशिश में था, आखिर घर वापस चलने की बेरा हो रही थी पर शैतान बच्चियों सी चंचल किरणें कभी नदी में छलांग लगा पानी में जलपरियों सी किल्लोल करने लगती , कभी कांश के झुरमुट में घुस उसे जहां तहां ऐसे गुदगुदातीं, ऐसे संवारतीं कि उसे खुद अपना आप अनचीन्हा लगने लगता।
संवारने की क्या कहें कांस भी अपनी उम्र के उस पड़ाव पर थी जब निखार महुआ के रस सा टपकता है। कुछ और उम्रदराज होने पर हीरे की कलगी सी ये बालियां, सन जैसे बालों वाली हो जाएगीं पर अभी तो सच्ची ऐसे झलमला रही थी उसकी काया कि मेरा मन कर रहा था कि उसकी हंसुली गढ़वा लें । कैसी सजेगी न गले में। गले का तो पता नहीं पर मन यह सोचते ही जगर मगर हो गया। जब भी हम बेतरतीब बिखरी प्रकृति के बीच होते हैं मन में ऐसी ही न जानें कितनी भोली भाली इच्छाएं लटपट भागी चली आती हैं और हमें अपनी दूधिया बौछारों में भिगो जाती हैं।


Hampi....2017...


पिछले कुछ दिनों से हमारा आंगन चूं चूं की लगातार चहक से दिन भर गुलजार रहने लगा है. दो तरह की आवाजें आती हैं, एक तो पाइप और दीवार के बीच बने घोसले से दो नवजात शिशुओं की जीवन जानने की उत्सुकता से भरी चहचहाहट और दूसरी आंगन ऊपर के जाल से नीचे को सतर्क नजर रखे मां पिता की चिंतातुर आवाजें जो किसी के भी आंगन में आते ही तेज हो जाती, कुछ कुछ बौखलाहट भी तारी हो जाती। शायद बच्चों को बिल्कुल चुप हो जाने का संकेत देने की कोशिश में रहते वे. पर बच्चे तो बच्चे ठहरे, उन्हें कब आगत का भय सताता है। दोनों शिशुओं की चहचहाहट बदस्तूर जारी रहती। या फिर कहें कि बच्चों को मन पहचानना बड़ों से ज्यादा आता है इसलिए वे निश्चिंत रहते।.उन्हें पता है कि इस आँगन में वे सुरक्षित हैं। आज उनमें से एक घोसले से नीचे उतर आए। आंगन में उस समय काम हो रहा था, बर्तन वगैरह धुलने का।उतर तो आये महाशय पर घर के बाहर पहला कदम कब आसान हुआ है। घबराए से, कुछ भौचक से बैठे थे, जब उन्हें कैमरे में सहेजा। और ऊपर जंगले से झांकते मां पिता की सांस अटकी थी । खैर जैसे ही आंगन खाली हुआ, मां दौड़ कर नीचे आयी। बार बार उड़ कर बच्चे को दिखाती कि कैसे उड़ कर ऊपर जंगले तक पहुंचना है। हम देख रहे थे, इनकी जिम्मेदारी तो हम लोगों से ज्यादा कठिन होती है. हम तो हाथ पकड़ कर चलना सिखा लेते हैं. ये तो केवल कर के दिखा पाती है पर शायद सिखाने का यही ज्यादा अच्छा तरीका है, कर के दिखाना। बहरहाल कई तरह के प्रयासों के बाद छुटकू जी आज खुली छत तक पहुंच गये. ईश्वर उन्हें लम्बी उड़ानों के सुख दें और उनके परों को आसमान नापने की ताकत.


12 April 2018