हमारे छज्जे पर की रात रानी आजकल खूब फूल रही है. सांझ गहराते ही, उसकी महक हवा में घुलने लगती है. हवा का हल्का सा झोंका चला नहीं कि इसकी तन्वंगी काया लरज लरज उठती है और साथ ही खिल उठते हैं खुशबू के अनगिनत फूल. पास से गुजरने भर की देर है कि महमहाती खुशबू दामन थाम लेती है और हम अवश से इसके करीब बैठ जाते हैं, फिर होता है सपनीला अंधियारा, हल्के नशे में डुबोती गंध, एक मीठी चुप और अनाम सुख में आकंठ डूबे हम. कितनी सुखद अनुभूति है, सच शब्दातीत.कतरा कतरा महक रोम रोम में घुलती जाती है और हम आँख बंद किये किसी और ही दुनिया में होते है. अपना आप ज्यों बादल का टुकड़ा और धरती से दूर नक्षत्रो तलक खिंच जाती है खुशबू की आकाश गंगा .हौले हौले डोलते हम अशरीरी हो उठते है.हे ईश्वर कितने सारे तो खूबसूरत संबल दिए है तुमने हमें, फिर भी यह आदमी का मन न कातर होना छोड़ पाता है न शिकायत करना .
एक झाड़ और है रात रानी का जिसकी महक बरसों बाद आज भी मेरे भीतर तरो ताजा है--पिथोरागढ़ की उस झंझावाती रात गेस्ट हाउस के बाहर घुप अँधेरे में अदृश्य रात रानी की सर्वव्यापी महक. उस रात जब हमारी जीप पहाड़ के सकरे सर्पीले रास्तो पर पिथोरागढ़ की और बढ़ रही थी तो बादल यूं टूट कर बरस रहे थे जैसे या तो वे खुद समाप्त हो जायेंगे या बाकी सब कुछ ख़त्म कर के दम लेगे. अन्धेरा इतना गहरा की जीप की हेडलाईट के परे बालिश्त भर आगे भी कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. मन में एक डर खदबदा रहा था कि बगल में सट कर चलती ऊंची ऊंची चट्टानों की कतारों में से किसी एक का मन अगर ऊपर से कूद जाने का हुआ तो...बस हम लोग उस डर को वहीं दाब देने की कोशिश करते. चट्टान तो नहीं पर रास्ते भर बादल के टुकड़े जीप के सामने रास्ता रोक रोक खड़े हो जाते थे.और हवा ...उफ़ जैसे छाती पर हाथ मार मार, बाल खोले, सिर पटक पटक विलाप कर रही हो. हम जैसे तैसे सही सलामत ठिकाने पर पंहुच गये और जब फ़्रेश हो, हाथ मे काफ़ी का प्याला ले गेस्ट हाउस के बराम्दे में आये तो बारिश थम चुकी थी और हवा में गुच्छा गुच्छा महकती रात रानी की गन्ध जैसे पूजा की थाली मे रखे प्रसाद सी मिली थी हमें...