Sunday, March 10, 2013

भोजेश्वर मन्दिर


भीमबैठका गुफ़ाओं से लौटते समय जब टै़क्सी हाईवे से भोजपुर के रास्ते पर मुड़ी तो थोड़ी गरमाती दोपहरी पर जैसे किसी ने हरियाली का लेप कर दिया।  साफ़ सुथरी चिकनी काली सड़क के दोनों ओर दूर दूर तक गेंहू के खेत फ़ैले हुये थे। सतर खड़े गेहूं के पौधों के बीच फ़ूली सरसों भी जहां तहां अपनी लचकती काया को सहेजती खड़ी थी। हवा का एक झोंका आता और उसके सर से बासंती आंचल जैसे उड़ जाने को जोर मारता और ये लाज से दोहरी होती उसे समेट समाट फ़िर सीधी खड़ी हो जाती। ऊपर दूर तलक पसरा नीले आकाश का निस्सीम विस्तार। जहां तक दृष्टि जाती बस नीले, हरे और बासंती बूटे।
भोजपुर नज़र में आने से बहुत पहले ही दृष्टि की परिधि में आ जाता है भोजपुर का शिव मन्दिर...भोजेश्वर मन्दिर। अन्य मन्दिरों, शिवालयों से बिल्कुल ही भिन्न वाह्य आकार वाला यह मन्दिर दूर से ही अपने विराट एवं सुदृढ़ होने का परिचय देता है। छोटी से कस्बाई बाज़ार को पार कर हमने लोहे के पुराने से साधारण गेट में प्रवेश किया और थोड़ा ऊपर को उठती पक्की सड़क पर चढने लगे। कुछ कदम चल कर ही सड़क हल्के से खम के साथ मुड़ी़ और हम अचम्भित से अपनी जगह पर ठिठक गये। मन्दिर से आमने सामने के पहले साक्षात्कार का यही असर होता है। बहुत बड़े आयताकार ऊंचे चबूतरे पर नीले आसमान के नीचे तन कर अडिग खड़े ऊंचे बहुत ऊंचे कुछ चौकोर से मन्दिर को देख कर मन मे पहला विचार यही आता है कि ईश्वर के स्वरूप की विराटता को संप्रेषित करने की इससे बेहतर परिकल्पना शायद हो ही नहीं सकती। भोजेश्वर मन्दिर को भीतर तक उतारना अपने आप में एक विलक्षण अनुभव है और हो भी कैसे न, आखिर यह परिकल्पना है उस राजा की जो स्थापत्य कला का महान विद्वान था। भोजपुर के इस शिव मन्दिर का निर्माण राजा भोज द्वारा प्रारम्भ कराया गया था। माना जाता है कि इस मन्दिर में स्थापित शिवलिंग विश्व का सबसे बड़ा शिवलिंग है, तन्जौर के वृहदेश्वर से भी बड़ा।
चबूतरे की सीढि़यां चढ़ हम ऊपर पहुंचे। गर्भगृह में प्रविष्ट होने वाले दरवाजे के सामने चबूतरे पर दो छतरियां बनी हैं जिनमें छोटे आकार के शिवलिंग और नंदी स्थापित हैं। साथ ही रखी हैं कुछ अन्य मूर्तियां। छतरियों में स्थापित ये शिवलिंग और नंदी मन्दिर की मौलिक परिकल्पना का हिस्सा नहीं लगते। वैसे भी कहा जाता है कि राजा भोजदेव इस मन्दिर के निर्माण कार्य को पूर्ण नहीं करवा पाये थे। इतने विराट शिवलिंग के साथ राजा ने क्या नंदी की कल्पना नहीं की होगी। शायद उस बड़े चबूतरे पर एक विराट नंदी का भी विचार रहा हो जो पूरा न हो सका।
चबूतरे पर बने प्रवेशद्वार से नीचे को उतरती सीढि़यों से हम गर्भगृह में पहुंचे। अपेक्षाकृत कम परिधि वाले गर्भगृह के बीचों बीच तीन पत्थरों के योनिपत्र पर शिवलिंग स्थापित हैं। योनिपत्र का डिजाइन भी अन्य मन्दिरों में पाये जाने वाले योनिपत्रों से बिल्कुल अलग है। गर्भगृह में चारों कोनों में करीब चालीस फ़ीट ऊंचे खम्बे हैं जो अपनी ऊपर उठी पुष्ट भुजाओं पर मंदिर का चंदोवा उठाये हुये हैं। मंदिर के प्रवेशद्वार के दोनों ओर, खम्भों के ऊपरी हिस्सों और चंदोवे के भीतरी तरफ़ कुछ नक्काशी है, कुछ मुर्तियां उकेरी गयीं हैं किन्तु मन्दिर में अलंकरण बस नाम मात्र को है। बड़ी-बड़ी चौकोर चट्टानों को एक के ऊपर एक रख कर बनाय़ा गया यह मन्दिर अपने स्थापत्य के सादगीपूर्ण नायाब तरीके से मानो यह कहता है कि ईश्वर को अनुभव करने के लिये हमे अपने चारो ओर के आवरण उतार फ़ेकने होंगे। अपने सबसे सादे और सच्चे रूप में ही हम ईश्वर के सबसे नजदीक होते हैं।
मन्दिर के गर्भगृह में न कोई पुजारी था, न ही पूजा होने के कोई लक्षण। पता नहीं ऐसा आगामी शिवरात्री पर लगने वाले मेले की तैयारियों के चलते था या फ़िर हमेशा ही ऐसा होता है। मेरे मन मे कई प्रश्न घुमड़ रहे थे क्या मन्दिर अपूर्ण रह गया था इसलिये भीतर पूजा न हो कर बाहर बनी छतरियों में स्थापित शिवलिंगों में पूजा की जा रही थी? क्या बिना नंदी की उपस्थिति वाले शिवलिंग की पूजा अर्चना नहीं की जाती?  गर्भग्रिह से बाहर आ हम चबूतरे पर खड़े हुये। मन्दिर के सामने की ओर खुले मैदान में शुरु मार्च की धूप दूर तक पसरी थी। इधर उधर जमीन में धंसी चट्टानें अलसाई सी ऊंघ रहीं थीं। सामने इक्का दुक्का पेड़ धूप की एक रसता को तोड़ने का प्रयास कर रहे थे। चबूतरे के एक तरफ़ बने लॉन में पर्यटक पेड़ों की छाया में बैठे हुये थे। पीछे की ओर दूर तक चट्टाने दिख रही थीं और कहीं दूर बेतवा बह रही थी। इन सबके बीच गर्भगृह के नीम अंधेरे से झांकता विराट शिवलिंग एक लम्बी चुप में लिपटा खड़ा था। यूं तो चारों ओर जीवन निर्बाध रूप से बह रहा था पर पता नहीं क्या था जो मन को उदासी से भर रहा था। सामने था एक महान सम्राट का भव्य स्वप्न जो अधूरा ही रह गया, पीछे दूर जैन मन्दिर के खंडित अवषेश, हुशंग शाह द्वारा नष्ट किये गये राजा भोज के उस विलक्षण बांध के कुछ बचे हुये निशान जिसने एक इतनी बड़ी झील को रचा था कि समूचे मालवा की जलवायु ही परिवर्तित हो गयी थी। हवा में नेपथ्य से आती नश्वरता की रुंधी रुंधी धुन जैसे मन मे कसक पैदा कर रही थी।
हम घूम कर फ़िर से शिवलिंग से मुखातिब थे। और इस बार लगा जैसे वह भी हमसे मुखातिब हैं। पता नहीं क्या हुआ कि हमारी आंखे खुद ब खुद बंद हो गयीं और मन में उभर आया पहले देखा और पढा़ उस समय के मन्दिर का चित्र जब ऊपर के गुंबद से एक बड़ी सी चट्टान टूट कर गिर गयी थी और खुले छेद से आसमान नीचे उतर आता था। सूरज की किरणॊं के स्वर्णिम प्रकाश में डूबा शिवलिंग साक्षात महादेव के तेज से प्रभासित लगने लगा। फ़िर जैसे अचानक चारों ओर अंधेरा हो गया और ऊपर आसमान से चंद्रमा का प्रकाश भीतर आया और समूचे शिवलिंग को अपने रुपहले उजास से नहला गया, जैसे ऊपर से जटाशंकर की जटाओं से निकल गंगा मैया आयी हो अर्ध्य चढा़ने और फ़िर आंखो के सामने था धरती से आकाश तक चला जाता एक अनन्त स्तम्भ प्रकाश का....न कोई आदि, न कोई अंत, महादेव का विराटम स्वरूप।
शब्दातीत अनुभूतियों को आंचल की खूंट में बांधे हम वापस अपनी रोजमर्रा की दुनिया में वापस तो आ गये पर ईश्वरीय कृपा के वे विलक्षण क्षण ताउम्र हमारे लिये उजियारे का अजस्र स्त्रोत बने रहेंगे।





Monday, March 4, 2013

भोपाल की ट्रेन की वह सहयात्री

इस बार की यात्रा प्रारम्भ हुई २६ फ़रवरी २०१३ की शाम,ट्रेन यात्रा काफ़ी अच्छी रही.सहयात्री अच्छे हों तो यात्रा का सुखद हो जाना बहुत स्वाभाविक है.हर यात्रा में ऐसा नहीं होता कि आप सहयात्रियों से घुलमिल कर बात कर सकें पर इस बार हुआ और इसका सारा श्रेय जाता है सामने साइड बर्थ पर अकेली सफ़र कर रही महिला को.वे बहुत सारे सामान के साथ बंगलौर जा रहीं थीं.वे वहां अपने तीन बच्चों के साथ डिफ़ेन्स क्वार्ट्र्स में रहती हैं जबकि पति आसाम में पोस्टेड हैं.महिला ग्रामीण परिवश से थीं.डिग्री आदि के हिसाब से बहुत शिक्षित नहीं थीं पर उनका आत्मविश्वास और सहज ही  सबके भीतर कि अच्छाई पर विश्वास कर लेने की क्षमता ताजा हवा के झोंके की तरह मन को सुख की अनभुति से भर गयी.ऐसा नहीं कि उन्हें आज की दुनिया और लोगों में व्याप्त बुराइयों का अन्दाजा नहीं था.सफ़र में सहयात्रियों से ,अजनबियों से खुल कर बात करने के खतरों से वे वाकिफ़ थी लेकिन फ़िर भी उनका मानना था कि पहले से ही आशंकायें पाल लेगें कुछ गलत या बुरा घटने की तो हम बुरा होने से पहले ही बुरा भोगने  और अनुभव करने लगते हैं.कोई दूसरा हमें तकलीफ़ दे उससे पहले ही हम खुद को सजा दे बैठते हैं.
अंधेरा होने पर हमारे सामने की सीट पर बैठे महाशय ने उनसे सीट बदलने का अनुरोध किया.कारण तो उन सज्जन ने यह दिया कि उन्हें रात में कई बार उठना  पड़ता है और ऐसे में अक्सर बीच वाली सीट से उनका सिर टकरा जाता है लेकिन बाद में उन महिला को समझ में आ गया था कि वास्तव में वे महाशय साइड की नीचे की सीट में पर्दा खींच कर पीने की सहूलियत ढूढ रहे थे.किन्तु इस बात को भी उन्होंने बिना किसी शिकायत के बड़ी सहजता से ले लिया.हर व्यक्ति अलग अलग होता है उसमे अच्छाई या बुराई जैसा क्या.यही नहीं कानपुर से हमारे ही कूपे में एक उनसे  उम्र में बड़ी महिला चढी जिनकी बेटी बार बार फ़ोन पर उनसे पूछ रही थी कि किसी से  सीट बदल  कर नीचे वाली सीट लेने का इन्तजाम हुआ या नहीं तो इन महिला ने  स्वयं ही उ न्हें यह कहा कि वे उनकी नीचे वाली सीट ले लें और वे उनकी बीच वाली सीट पर सो जायेंगी.काफ़ी बातें हुईं उनके साथ .परेशानियों के बावजूद न उन्हें कोई शिकायत थी जीवन से न ही इस बात का कष्ट कि उनके पास औरों की तुलना में भौतिक सुख सुविधाओं की कमी.न अपने अधिक सामान को ले कर परेशान थी ,न उसकी सुरक्षा को ले कर चिन्तित.सब कुछ बहुत सहजता से लेने का उनका यह गुण हमे उनका मुरीद बना गया.