Sunday, January 13, 2008

ये औरते.....


आप ऊपर जो चित्र देख रहे हैं ,यह मेरा बनाया हुआ है . जी हां,आज कल हमे’ पेंट -ब्रश मे हाथ आज्माने का चस्का लग गया हैं. हां हां ,हमे पता है कि आज कल के समय मे पेंट-ब्रश की शुरुआत यानि समय से खासा पीछे चल रहे हैं हम . पर हमारे पास इसका अप्ना कारण है .पेंट-ब्रश मे काम करते हुए हमे ऐसा लगता है कि हम कागज पेन्सिल से काम कर रहे हों और हमे वही फ़ील पसंद है . वैसे भी मैकेनाइज्ड चीजो के प्रति मेरा आग्रह थोड़ा कम है वैसे आज्कल उनके बिना काम नही चलता इस्लिये देर सबेर उन्हे अप्नाते ही हैं पर फ़िर भी सब्से कम जटिल चीज से शुरुआत करते हैं .खैर छोड़िये इस विषय को यही खत्म करते हैं. आप तो यह बताइये कि मेरा प्रयास कैसा लगा .
अब जब आप चित्र देखने आही गयी हैं तो इसे देख कर जो पंक्तिया मेरे जेहान मे उभरी उन्हे भी मुल्हायेजा फर्माना ही पड़ेगा . तो पेश है-


सूरज के संग उठ जाती
ये औरतें ...

काम मे फ़िर जुट् जाती
ये औरतें...
लकड़ी लायें ,धान कूटे ,चूल्हा गर्माती
ये औरते...
दिन भर उठा धरी मे रमी
ये औरतें...
जीवन देती, उसे पोसती
ये औरतें ...
क्यों सूरज सी लगती
सूरज के संग उठ जाती
ये औरतें . ..

Thursday, January 3, 2008

कुछ यादे कुछ बाते ,नये वरष के बहाने

२००८ देह्लीज पार कर आंगन मे कदम रखने को तैयार है और हम अभी तक उससे रुबरू नही हुए । सोचा तो था कि जाते हुए साल को बाकयदा एक भाव भीनी विदायी देगे और चौखट के उस पार खड़े हुए की दिया बाती के साथ अग्वानी करेगे पर देखिये आज मुखातिब हो पाये है हम अपने आप से ।
२००७ को हमारे लिये उपलब्धी मे तब्दील करने का श्रेय तो हमारे दोनो बेटो को जाता है ।छोटू ने दसवी कक्छा ९४% ले कर पास की और बेटू ने तो आई आई एम जा कर हमारी भी किन्ही असफ़ल्ताओ को धो पोंछ कर चमका दिया ।बात मात्र शिक्छा के छेत्र मे सफ़लता की नही है ,बचपन से ले करआज तक दोनो ने हमारे हिस्से तो बस खुशियां ही खुशियां लिखी है । अब बस यहीं खत्म करते है इनकी बाते ,नही तो हम अपनी सुध तो बिसरा ही
देगे ।
बच्पन मे तो नये साल की शुरुआत का बस इतना मत्लब था कि कापियो मे दिनांक डालते समय साल की संख्या एक से बढ जाती थी और बीते साल के केलेंडर कापी ,किताबो मे कवर चढाने के लिये संभाल कर रख लिये जाते थे ,दीवारो पर नये साल के केलेंडर टंग जाते थे । यू तारीखे बद्लने का कोई विशेश अर्थ भी नही था । उम्र के उस हिस्से मे तो हर रोज सूरज उतना ही चमक्दार होता था । सारी राते बस एक लम्बी नीद होती थी । और जिन्दगी बस खेल हुआ करती थी ।
और बड़े होने पर जब आंखो मे सपने बसने लगे ,मन उमगा उमगा रहने लगा तो हर दिन को त्योहार सा जीने का बहना ढूढने लगे । फ़िर भला नये साल का आना यूं ही एक और दिन के बीत जाने सा कैसे हो सकता था । तब कई दिनो पहले से कार्ड्स बनाना शुरु कर देते थे । सबके लिये बिल्कुल अलग डिजाइन और अलग इबारत वाला कार्ड हुआ करता था ।बिल्कुल कस्ट्माइज्ड मामला होता था । कितने रंग ,कितने ब्रश,कैसे कैसे स्केच पेन्स
गरज यह कि दिसम्बर का तो पूरा महीना जैसे रच्नात्मक्ता के उफ़ान मे गुजरता था । ढेरो कार्ड्स आते भी थे । हर कार्ड मे कैद होती थी भेजने वाले की एक टुकड़ा शख्शियत ।
एक दो दिन पहले से कमरा साफ़ होता था । जो काम करने थे और नही हुए, जो किताबे पढनी थी और नही पढ पायी सबकी फ़ेह्रिश्त तैयार की जाती थी और कितनी अफ़्रा तफ़री होती थी सब्को इक्तीस दिसम्बर तक खत्म करने की । नये साल का पहला दिन ज्यो नयी नकोर स्लेट सा हो जायेगा ऐसा करने से । वह पहला दिन सच बड़े उत्साह से शुरु होता था । कुछ नये वादे होते थे अपने आप से और उन्हे निभाने की पूरी इमान्दार कोशिश भी ।सारे कार्ड्स पूरे कमरे मे सजाये जाते थे । महक्दार फ़ूलो का एक बुके जरूर रखते थे । पलके बंद करने से पलके खुलने तक खुशबू की लहरे हो अंदर से बाहर तक । और इक्तीस की रात बारह बजता था दूर्दर्शन पर कविसम्मेलन सुनते हुए ।
और फ़िर नये साल का पहला दिन । हम ,रीता , विश्नु, पूनम सब नये कपड़ो मे आफ़िस जाते थे ,कुछ एक्स्त्रा सज धज के साथ । उस दिन बाहर खाना खाया जाता था । कुछ खरीद्दारी की जाती थी ।ढेर सारा बात बेबात हसा जाता था । और फ़िर दिन बीतने के साथ ही किसी और बहाने का इन्त्जार शुरु हो जाता था । हम लोग तब ना तो रोज खरीद्दारी करते थे नाही बस ऐसे ही उठ कर किसी भी दिन होटेल मे खाने चले जाते थे । दिन को अलग तरह से बिताने के लिये अव्सरो का इन्त्जार किया जाता था और तभी लम्बी प्रतीक्छा के बाद आये मौके इतनी खुशी देते थे कि उनके बीत जाने पर भी सब रीत नही जाता था । कितना कुछ अंदर सहेजा रह जाता था । देखिये ना आज भी उन दिनो की याद ही मन को कैसी त्रिप्ती से भरे दे रही है।
फ़िर एक और नया फ़ेज शादी के बाद । ८६ की शुरुआत तो कुछ इसी अन्दाज मे हुई बस लोग बदल गये थे पर शहर तब भी वही था । ८७ पहली जन्वरी की ठिठुरती सुबह सुंदर आगरा के राजा मंडी स्टेशन पर थे और हम कान्पुर मे । फ़िर ९० तक आगरा मे । तब भी नया साल ऐसे ही आता था । कभी नया पौधा गुलाब का रोपा गया ,कभी दिन भर किसी एतिहासिक इमारत के साये तले बिताया गया ,कभी दोस्तो का आना हुआ ,कभी हमारा जाना हुआ ।९१ की शुरुआत लख्नऊ न्यू हैदराबाद मे , नव्भारत टाइम्स के दोस्तो के बीच ,बैंक आफ़ इंडिया के मित्रो के साथ । और ९२ की पहली जनवरी के साथ तो उस दिन का जशन मनाने का अंदाज ही बदल गया । हमारे छोटू ने काफ़ी छाट कर पहली जन्वरी का दिन मुक्रर किया दुनिया मे आने के लिये । तब से अब तक पहली जन्वरी धमाके से आ रही है ।
इधर कुछ सालो से कार्ड्स का आना तो लग्भग बन्द है । मेल और फ़ोन से सारे आदान प्रदान हो जाते है । लेकिन मेरे उन दिनो के कार्द्स अब भी सहेजे रखे है लखनऊ के घर की दुछ्त्ती मे टीन के बक्से मे बंद । उन कार्ड्स की न इबारत धुंधलायी है न रंग फ़ीके पडे हैं ।वे उम्र के उस पड़ाव के गवाह है जब आंखो के सामने अदेखा भविशेय होता है ,नीले आकाश सा विस्त्रित और मन मे हौसला होता है लम्बी लम्बी उड़ाने भर उसे समूचा नाप आने का । नही ऐसा नही कि तब पता नही था कि आकाश हमेशा चमक्दार ही नही होता ,धूसर भी होता है । ढेरो ढेर काले बादलो के नीचे गुम भी हो जाता है । कड़क्ती तड़फ़ती बिजलियां उसका सीना चाक भी करती हैं । सब कुछ पता था । लेकिन तब अपने पर विश्वास सारी वास्त्विक , सम्भावित और काल्प्निक आपदाओ पर पैर रख सीना तान खड़ा रहता था । यह नही कि वह विश्वास झूठा निकला नही वह सोलह आना सच्चा था और उसने हमारा साथ भी बखूबी निभाया हां यह और बात है कि जिन्दगी ने यह भी सिखाया है कि अपनी शक्ति अपने हौसले से परे भी कुछ अदेखा ,अन्जाना है कही जरूर जो घटनाओ को अंजाम देने मे ,रास्तो की दिशा निर्धारित करने मे अहम भूमिका निभाता है ।
मेरा अपना मानना है कि सीखना एक सतत प्रक्रिया है और यह जीवन भर चलती है तो हम जिन्दगी के हर पड़ाव पर जो सीखने को मिला और जो अच्छा मिला उसे पोटली मे बांध आगे बढते जाते है । रास्ते मे जब कभी सुस्ताने का मौका मिला तो कुछ पीछे का उलटते पलटते है कुछ आगे की सोचते है और फ़िर बस चल देते है । तो फ़िर बस आज की तो राम राम फ़िर कभी मिल बैठैगे ।