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Monday, December 16, 2013
Friday, May 24, 2013
२४.५.८०
आज SHAR के Sea Beach और SPROBगये.सुनसान चिकनी सड़क.दोनों ओर हरियाली फ़ैलाते हुये जंगल और उस शांत सड़क पर लम्बी drive.बहुत अच्छा लग रहा था फ़िर भी मन उस तरह से उल्लासित नहीं हो रहा था.जिन प्राक्रितिक द्रिश्यों को देख कर मेरा मन इस दुनिया के दमघोंटू वातावरण से दूर कल्पना के पंखों पर सवार हो अपना ही एक अलग संसार बना थिरकने लगता था उसे अब सब कुछ सुखद लगते हुये भी कल्पना की दुनिया का वह उल्लास नहीं मिलता.शायद जैसे जैसे चारों ओर की वास्तविकता की समझ बढती जाती है मन के स्वयंएव खुश रहने के क्षमता कम होती जाती है.SPROB घूमा पर Sea Beach पहुंचने से थोड़ा पहले ही कार खराब हो गयी.एक बार के लिये तो सब लोग घबरा गये कि इस जंगल में तो कोई सहायता भी नहीं मिलेगी,घर कैसे पंहुचेंगे पर खैर अंततः security department की एक jeep last round पर थी ,वह हमें मिल गयी. उसी के पीछे रस्से से कार बांध कर लायी गयी.बड़ा मनोरंजक अनुभव था.समुद्र के किनारे का द्रिश्य तो हमें सदैव ही रोमांचित करता रहा है.सुनसान जन विहीन sea beach पर पसरा हुआ सन्नाटाऔर किनारे पर बार बार सर पटक कर लौटती हुयी लहरों का गर्जन.ऐसा लगता था ये उद्दाम लहरें अपने अकेलेपन की शिकायत कर रही हैं और तभी बार-बार दौड़ कर किनारे का आलिंगन करने आती हैं.कितनी कलक,कितनी छटपटाहट होती है उनके दौड़ कर आने में पर समुद्र बार बार उन्हें अपनी सीमा में वापस ले जाता है.ये सीमायें,ये बन्धन,सच ,ये ही तो जन्म देते हैं इस छटपटाहट को .
किनारे पर खड़े casorina के पेड़ साक्षी हैं लहरों की इन पीड़ा के.कितने पास होते हुये भी वे वंचित रहते हैं लहरों के स्पर्शों से.केभी कभी जब इन मचलती लहरों के सीनों में भावनाओं का झंझावत जोर मारता हैतो वे सारी सीमाओं के बंधन तोड़ ,वेग से भागती हैं और अपने मीत [casorina trees] के चरणों में सर रख असीम शांति का अनुभव करती हैं . सच कितनी शीतलता होती है उन स्पर्शों में .सारी उत्तेजना,क्रोध,चिंता,आवेग,आक्रोश एवं दुख आंखों के रास्ते गल गल केर बह जाता है.जब शांत हो जाती हैं तो पुनः अपनी सीमाओं में लौट जाती हैं और फ़िर प्राम्भ हो जाता है पीड़ा और छटपटाहट का लम्बी सिलसिला.सीमा तोड़ कर जो असीम सुख प्राप्त करती हैं उसे छोड़ कर फ़िर क्यों लौट जाती हैं उसी वेदना को गले लगाने.शायद आवेग में सीमा तोड़ कर कुछ कर बैठना हितकारी नहीं होता पर सीमा के अंदर वह पावन सुख क्या मिल पाता है? यही तो अनुत्तरित प्रश्न चिन्ह हैं जीवन के.
जब कार बिगड़ गयी तो यह दुःख हुआ कि इतने पास आ कर भी समुद्र नहीं देख पायेंगे .पास आ कर छिन जाने की पीड़ा तो असहनीय होती ही है.पर जितनी देर जीप रस्साअ लेने गयी उतनी देर में केसोरिना के पेड़ों के बीच से गुजरते हुये ,डालों को हटा कर,संभल.सभंल पैर रखते हुये किसी अद्रिश्य,अनुपस्थित बांह की कल्पना आगे बढाती रही.हम गये थे यह सोच कर कि लहरों के किनारे बैठ कर कुछ उनकी व्यथा सुनेगें ,कुछ स्वंय को दुलरायेंगे पर इइश्वर को कुछ और ही स्वीकार था.कभी कभी लगता है झलक दिखला कर वंचित कर देना ही तो कतिपय जीवनों का प्राप्य नहीं होता.
आज SHAR के Sea Beach और SPROBगये.सुनसान चिकनी सड़क.दोनों ओर हरियाली फ़ैलाते हुये जंगल और उस शांत सड़क पर लम्बी drive.बहुत अच्छा लग रहा था फ़िर भी मन उस तरह से उल्लासित नहीं हो रहा था.जिन प्राक्रितिक द्रिश्यों को देख कर मेरा मन इस दुनिया के दमघोंटू वातावरण से दूर कल्पना के पंखों पर सवार हो अपना ही एक अलग संसार बना थिरकने लगता था उसे अब सब कुछ सुखद लगते हुये भी कल्पना की दुनिया का वह उल्लास नहीं मिलता.शायद जैसे जैसे चारों ओर की वास्तविकता की समझ बढती जाती है मन के स्वयंएव खुश रहने के क्षमता कम होती जाती है.SPROB घूमा पर Sea Beach पहुंचने से थोड़ा पहले ही कार खराब हो गयी.एक बार के लिये तो सब लोग घबरा गये कि इस जंगल में तो कोई सहायता भी नहीं मिलेगी,घर कैसे पंहुचेंगे पर खैर अंततः security department की एक jeep last round पर थी ,वह हमें मिल गयी. उसी के पीछे रस्से से कार बांध कर लायी गयी.बड़ा मनोरंजक अनुभव था.समुद्र के किनारे का द्रिश्य तो हमें सदैव ही रोमांचित करता रहा है.सुनसान जन विहीन sea beach पर पसरा हुआ सन्नाटाऔर किनारे पर बार बार सर पटक कर लौटती हुयी लहरों का गर्जन.ऐसा लगता था ये उद्दाम लहरें अपने अकेलेपन की शिकायत कर रही हैं और तभी बार-बार दौड़ कर किनारे का आलिंगन करने आती हैं.कितनी कलक,कितनी छटपटाहट होती है उनके दौड़ कर आने में पर समुद्र बार बार उन्हें अपनी सीमा में वापस ले जाता है.ये सीमायें,ये बन्धन,सच ,ये ही तो जन्म देते हैं इस छटपटाहट को .
किनारे पर खड़े casorina के पेड़ साक्षी हैं लहरों की इन पीड़ा के.कितने पास होते हुये भी वे वंचित रहते हैं लहरों के स्पर्शों से.केभी कभी जब इन मचलती लहरों के सीनों में भावनाओं का झंझावत जोर मारता हैतो वे सारी सीमाओं के बंधन तोड़ ,वेग से भागती हैं और अपने मीत [casorina trees] के चरणों में सर रख असीम शांति का अनुभव करती हैं . सच कितनी शीतलता होती है उन स्पर्शों में .सारी उत्तेजना,क्रोध,चिंता,आवेग,आक्रोश एवं दुख आंखों के रास्ते गल गल केर बह जाता है.जब शांत हो जाती हैं तो पुनः अपनी सीमाओं में लौट जाती हैं और फ़िर प्राम्भ हो जाता है पीड़ा और छटपटाहट का लम्बी सिलसिला.सीमा तोड़ कर जो असीम सुख प्राप्त करती हैं उसे छोड़ कर फ़िर क्यों लौट जाती हैं उसी वेदना को गले लगाने.शायद आवेग में सीमा तोड़ कर कुछ कर बैठना हितकारी नहीं होता पर सीमा के अंदर वह पावन सुख क्या मिल पाता है? यही तो अनुत्तरित प्रश्न चिन्ह हैं जीवन के.
जब कार बिगड़ गयी तो यह दुःख हुआ कि इतने पास आ कर भी समुद्र नहीं देख पायेंगे .पास आ कर छिन जाने की पीड़ा तो असहनीय होती ही है.पर जितनी देर जीप रस्साअ लेने गयी उतनी देर में केसोरिना के पेड़ों के बीच से गुजरते हुये ,डालों को हटा कर,संभल.सभंल पैर रखते हुये किसी अद्रिश्य,अनुपस्थित बांह की कल्पना आगे बढाती रही.हम गये थे यह सोच कर कि लहरों के किनारे बैठ कर कुछ उनकी व्यथा सुनेगें ,कुछ स्वंय को दुलरायेंगे पर इइश्वर को कुछ और ही स्वीकार था.कभी कभी लगता है झलक दिखला कर वंचित कर देना ही तो कतिपय जीवनों का प्राप्य नहीं होता.
Thursday, May 23, 2013
कल यानि ५.५.८० का जो पन्न उतर थ वह शायद त्रेन में जाते हुये लिखा था .आज वाला पन्न २३.५.८० का लिखा हुआ है और श्रीहरिकोटा में लिखा था.
पूर्ण निश्तब्धता.शांत ,चिकनी काली ,चमकीली सड़कों पर पसरा सन्नाटा.दूर -दूर तक फ़ैला सर के ऊपर नीला चमकदार आसमान.सामने गेस्ट हाउस के लान में और उसके पीछे जंगल में ऊंचे-ऊंचे युकिलप्टस के लम्बे -लम्बे पेड़,ऊपर को मुंह उठाये मानो आकाश की चौड़ी छाती में मुंह छिपाने को व्याकुल हो रहे हों. समुद्र से बह कर आती हुयी ठंडी हवा हर बार उनके कानों में कुछ उत्साह भरे शब्द घोल जाती है और वे एक बार फ़िर नयी लगन से झूम कर और ऊंचे उठने के प्रयत्न में लग जाते हैं. कितने द्रिढ है ये अपनी लगन में.इनका स्वप्न कभी पूरा न होगा यह विचार उन्हें उनके पथ से किंचित मात्र भी विचलित नहीं करता और वे दायें बायें किसी भी तरफ़ न देख कर केवल ऊपर की ओर ही सीधे बढते चले जाते हैं.न हो पूरा स्वप्न किंतु स्वप्न को साकार करने की लगन और आस्था में डूबे क्षण भी तो जीवन को एक मदमाती गंध से भर देते हैं.
इस शांत वातावरण को अपनी आंखों से पीते हुये जबरजस्ती संयम के लौह कपाटों को तोड़ कर सतरंगी स्वप्न दबे पांव आंखों लहराने लगते हैं.ठंडी हवा में उड़ते हुये बाल जब गालों पर अठखेलियां करते हैं तो न जाने कौन से अनछुये स्पर्शों की अनुभुतियां मन को कहीं ले उड़ती हैं.पर यह स्वप्निल वातावरण क्या जीवन की वास्तविकता बन पायेगा.गेस्ट हाउस की हरी मखमली दूब पर खिले हुये लाल ,नीले ,पीले रंग के महकते फ़ूल समुद्री हवा के झोंको की ताल पर लहरा कर नाच रहे हैं और मन है कि सारी वास्तविकता पर छाये अनिशिचतता के बादलों को दूर हटा उन्हीं फ़ूलों के समान मचलने को व्याकुल हो उठता है.इन क्षणों में कभी कभी खुद को भुलावा देने को मन करता है.ऐसा लगता है कि यह मान ले कि सारे स्वप्न सच हो गये और अनिशिचितता की दमघोंट स्थिति से उबर प्रसन्न्ता एवं उल्लास की तरंगों पर मचल -मचल कर इतना थिरकें कि फ़िर न अपना होश रहे न अपने आस पास का.
पूर्ण निश्तब्धता.शांत ,चिकनी काली ,चमकीली सड़कों पर पसरा सन्नाटा.दूर -दूर तक फ़ैला सर के ऊपर नीला चमकदार आसमान.सामने गेस्ट हाउस के लान में और उसके पीछे जंगल में ऊंचे-ऊंचे युकिलप्टस के लम्बे -लम्बे पेड़,ऊपर को मुंह उठाये मानो आकाश की चौड़ी छाती में मुंह छिपाने को व्याकुल हो रहे हों. समुद्र से बह कर आती हुयी ठंडी हवा हर बार उनके कानों में कुछ उत्साह भरे शब्द घोल जाती है और वे एक बार फ़िर नयी लगन से झूम कर और ऊंचे उठने के प्रयत्न में लग जाते हैं. कितने द्रिढ है ये अपनी लगन में.इनका स्वप्न कभी पूरा न होगा यह विचार उन्हें उनके पथ से किंचित मात्र भी विचलित नहीं करता और वे दायें बायें किसी भी तरफ़ न देख कर केवल ऊपर की ओर ही सीधे बढते चले जाते हैं.न हो पूरा स्वप्न किंतु स्वप्न को साकार करने की लगन और आस्था में डूबे क्षण भी तो जीवन को एक मदमाती गंध से भर देते हैं.
इस शांत वातावरण को अपनी आंखों से पीते हुये जबरजस्ती संयम के लौह कपाटों को तोड़ कर सतरंगी स्वप्न दबे पांव आंखों लहराने लगते हैं.ठंडी हवा में उड़ते हुये बाल जब गालों पर अठखेलियां करते हैं तो न जाने कौन से अनछुये स्पर्शों की अनुभुतियां मन को कहीं ले उड़ती हैं.पर यह स्वप्निल वातावरण क्या जीवन की वास्तविकता बन पायेगा.गेस्ट हाउस की हरी मखमली दूब पर खिले हुये लाल ,नीले ,पीले रंग के महकते फ़ूल समुद्री हवा के झोंको की ताल पर लहरा कर नाच रहे हैं और मन है कि सारी वास्तविकता पर छाये अनिशिचतता के बादलों को दूर हटा उन्हीं फ़ूलों के समान मचलने को व्याकुल हो उठता है.इन क्षणों में कभी कभी खुद को भुलावा देने को मन करता है.ऐसा लगता है कि यह मान ले कि सारे स्वप्न सच हो गये और अनिशिचितता की दमघोंट स्थिति से उबर प्रसन्न्ता एवं उल्लास की तरंगों पर मचल -मचल कर इतना थिरकें कि फ़िर न अपना होश रहे न अपने आस पास का.
Wednesday, May 22, 2013
मेरी डायरी के पुरने पन्ने
बीच बीच में हमने अपनी यात्रा डायरी के कुछ पन्ने इस ब्लाग पर शेयर किये हैं.फ़िर कभी तारतम्य टूट जाता है और कभी बस यूं ही ऐसा करने की.पुराना लिखे हुये को सहेजने की सार्थकता समझ नहीं आती और बस दिन निकलते रहते हैं.पर आज फ़िर मन किया तो एक और पन्ना फ़िर से जी लेने को आ बैठे.
५.५.८०
यांत्रिकता के दायरे में बंधी जिन्दगी में कारखानों के शहर में डूबती शाम के सौन्दर्य को अनुभव करने का समय ही नहीं रहता.कभी कभी बैंक से लौटते समय डूबते सूरज की लालिमा बरबस अपनी ओर खींचने लगती है पर आंखें पूरी तरह से त्रिप्त भी नहीं हो पातीं कि मिल की दैत्याकार चिमनियों से निकलता काला धुआ उस आग के गोले को निगल लेता है और तब डूबती सांझ में फ़ैलते अंधेरे मन को भी अवसाद से भर देते हैं.ऐसा लगता है तब कि मन के समस्त उल्लास एंव प्रसन्नता को परिसिथितियों ने अपने नागपाश में जकड़ लिया है.किरिच किरिच होती खुशियों के लहु लुहान अस्तित्व से ही मानो सारा आकाश रक्तिम हो उठता है.
पर कितना भिन्न है भीगती शाम में जंगलों के पीछे डूबते सूरज के स्निग्ध सौन्दर्य को यूं चुपचाप आंखों से पीने का यह सुखद अनुभव.धीमे धीमे पग धरती शाम चली आ रही है और उसके साथ ही माटी से उठने लगी है एक ऐसी सोंधी महक जिससे मन में अपूर्व शांति छा रही है.जंगलों के आद्र वातावरण से निकलती फ़ूलों की भीनी भीनी खुशबू ,सच कैसी प्यारी खुमारी है.डूबते सूरज के सुनहले गोले को घेरे हुये इन्द्रधनुषी रंगों की छटा..यूं लगता है खुशी से बौरा कर मन का मयूर अपने पंखों को फ़ैला कर मगन हो न्रित्य कर रहा हो.प्रक्रिति में बिखरी हुयी यह शांति ,यह सौन्दर्य मन की सारी कोमल और सरस अनुभुतियों को जगा गया है.जीवन की सार्थकता तभी है जब वह इस जंगल में उतरती शाम सा हो.अपनत्व एवं स्नेह की सोंधीं गंध में लिपटा हुया धुंध में लिपटे जंगल के पेड़ों सा शांत एवं धीर,डूबते सूरज के स्वर्णिम व्यक्तित्व सा गरिमामय.आकाश में बिखरे इन्द्रधनुषी रंगों की आभा सा आर्कषक और सबसे अधिक डूबती शाम सा समर्पित.
शाम इतनी सुखद इसिलिये लगती है कि क्यों कि वह दिन भर की उत्तेजना एयं कष्टों पर अपनी शांति का लेप कर सबको अपने आंचल में शरण देती है .जीवन भी इतना शांत एंव सुखद तभी होता है जब सबका दुःख दर्द बांटते हुये सब पर अपने स्नेह की वर्षा करते हुये जिया जाता है.
५.५.८०
यांत्रिकता के दायरे में बंधी जिन्दगी में कारखानों के शहर में डूबती शाम के सौन्दर्य को अनुभव करने का समय ही नहीं रहता.कभी कभी बैंक से लौटते समय डूबते सूरज की लालिमा बरबस अपनी ओर खींचने लगती है पर आंखें पूरी तरह से त्रिप्त भी नहीं हो पातीं कि मिल की दैत्याकार चिमनियों से निकलता काला धुआ उस आग के गोले को निगल लेता है और तब डूबती सांझ में फ़ैलते अंधेरे मन को भी अवसाद से भर देते हैं.ऐसा लगता है तब कि मन के समस्त उल्लास एंव प्रसन्नता को परिसिथितियों ने अपने नागपाश में जकड़ लिया है.किरिच किरिच होती खुशियों के लहु लुहान अस्तित्व से ही मानो सारा आकाश रक्तिम हो उठता है.
पर कितना भिन्न है भीगती शाम में जंगलों के पीछे डूबते सूरज के स्निग्ध सौन्दर्य को यूं चुपचाप आंखों से पीने का यह सुखद अनुभव.धीमे धीमे पग धरती शाम चली आ रही है और उसके साथ ही माटी से उठने लगी है एक ऐसी सोंधी महक जिससे मन में अपूर्व शांति छा रही है.जंगलों के आद्र वातावरण से निकलती फ़ूलों की भीनी भीनी खुशबू ,सच कैसी प्यारी खुमारी है.डूबते सूरज के सुनहले गोले को घेरे हुये इन्द्रधनुषी रंगों की छटा..यूं लगता है खुशी से बौरा कर मन का मयूर अपने पंखों को फ़ैला कर मगन हो न्रित्य कर रहा हो.प्रक्रिति में बिखरी हुयी यह शांति ,यह सौन्दर्य मन की सारी कोमल और सरस अनुभुतियों को जगा गया है.जीवन की सार्थकता तभी है जब वह इस जंगल में उतरती शाम सा हो.अपनत्व एवं स्नेह की सोंधीं गंध में लिपटा हुया धुंध में लिपटे जंगल के पेड़ों सा शांत एवं धीर,डूबते सूरज के स्वर्णिम व्यक्तित्व सा गरिमामय.आकाश में बिखरे इन्द्रधनुषी रंगों की आभा सा आर्कषक और सबसे अधिक डूबती शाम सा समर्पित.
शाम इतनी सुखद इसिलिये लगती है कि क्यों कि वह दिन भर की उत्तेजना एयं कष्टों पर अपनी शांति का लेप कर सबको अपने आंचल में शरण देती है .जीवन भी इतना शांत एंव सुखद तभी होता है जब सबका दुःख दर्द बांटते हुये सब पर अपने स्नेह की वर्षा करते हुये जिया जाता है.
Thursday, April 11, 2013
एक मुलाकात
०१.०३.२०१३
सबेरे की जंगल सफ़ारी से लौटने के बाद हम गेस्ट हाउस के बरामदे में बैठे अभी तक जंगल की ताजी ,नम हवा की नर्म छुवन के एह्सासों में डूबे हुये थे.सामने के पेड़ों की कतार भी एकदम दम साधे खड़ी थी.देनवा भी बिल्कुल बेआवाज बह रही थी.सबने जैसे सलाह कर रखी थी कि हम सपने सी सुंदर जो सुबह अभी अभी जी कर लौटे हैं या कहें की अभी भी जी रहे थे उसके जादू में वे हमे कुछ देर और यूं ही डूबे रहने देगे.
थोड़ी देर बाद नदी की ओर से चढ कर ऊपर आते दो लोग दिखायी दिये.एक तकरीबन तीस एक साल का युवक था और दूसरे प्रौढ व्यक्ति थे.कंधों तक लहराते सफ़ेद बाल,लम्बी सफ़ेद दाढी,मध्यम लम्बाई और गठे बदन के ये सज्जन जो सदरी पहने थे उस पर काले रंग के पंजो के निशान बने थे.हमने अंदाज़ा लगाया कि वे शायद वन विभाग के ही कर्मचारी होगे क्योंकि बिना किसी साजो समान के वे वैसे भी पर्यटक तो हो ही नहीं सकते थे.
कुछ देर बाद पीछे की ओर से फोटो खींच कर सुंदर जब सामने की ओर आये तो उनके गले में लटकते कैमरे को देख कर उन सज्जन ने बात चीत शुरु की और फ़िर हम चारो लोगों मे बातों का जो सिलसिला शुरु हुआ ,जिन विषयों पर चर्चा हुई,वार्तालाप ने जो दिशा पकड़ी कि वह दोपहर यादगार बन गयी.
ये सज्जन थे श्री कैलाश जोशी.कैलाश जी पेंटर हैं और मध्य प्रदेश के वन अभ्यारणॊं के लिये वन जीव-जन्तुओं और पक्षियों आदि के चित्र,पोस्टर पेंट करते हैं. उनके ही शब्दों में वे उन कतिपय भाग्यशाली लोगों में हैं जिनका शौक और रुचि ही जीवकोपार्जन का साधन है.प्रक्रिति के सानिध्य में रहना और चित्र बनाना दोनों ही उनका शौक है और काम भी कुछ ऐसा मिल गया कि आये दिन पचमढी,कान्हा,बान्ध्वगढ,सतपुरा और मध्य प्रदेश के अन्य अभ्यारणों के चक्कर लगते रहते हैं.
प्रकृति का सौंदर्य,उसके सान्निध्य में मन में उपजती शांति और फिर उससे एकात्म स्थापित होने की स्थिति से होती हुयी बातें आध्यात्म की ओर मुड़ गयी
चर्चा के दौरान विषय आया कि यदि हम सचमुच पूरी ईमानदारी से कुछ अच्छा करने की सोचते हैं तो हमारे चारो ओर व्याप्त वह अद्र्श्य ,सर्वशक्तिशाली ताकत उस काम को पूरा करने में हमारी सहायता अवश्य करती है.कई बार उसके तरीके,उसके रास्ते हम समझ नहीं पाते पर जब असंभव से लगने वाले काम पूरे हो जाते हैं तो करिश्मा भी उसी का ही होता है बस शर्त है हमारे इरादों मे सच्चाई और ईमानदारी की. उसी दौरान चर्चा हुई विचारों के संप्रेषण की.
जोशी जी ने एक घटना का जिक्र किया.एक बार वे मंडई में कहीं जा रहे थे जब उन्हें दलदल में फ़ंसी एक गाय दिखाई दी.गाय जितना प्रयत्न करती थी ,उतनी ही उसकी स्थिति और बिगड़ रही थी.जोशी जी थोड़ी देर खड़े सोचते रहे,इधर उधर देखा भी पर आस पास न तो दूर दूर तक कोई व्यक्ति था न ही कोई आबादी.गाय की सहायता करने का कोई उपाय, कोई साधन समझ में नहीं आ रहा था.उसकी विवशता और अपनी बेबसी से हार वे कुछ कदम आगे बढे ,उस परिद्रश्य से बाहर हो जाने के इरादे से.लेकिन मन भला कैसे मानता फ़िर वापस आये और ईश्वर से मन ही मन कहा कि यदि इस समय हमे यहां भेजा है तो इस मूक जीव की वेदना यूं बेबस हो कर तो नहीं देख सकता प्रभू कोई तो राह दिखाओ और थोड़ी ही देर में सामने से कुछ व्यक्ति आते हुये दिखाई दिये और देखिये इन लोगों के पास रस्सी भी थी.जोशी जी ने जा कर उन लोगों को स्थिति से अवगत कराया और फ़िर सबने मिल कर गाय को बाहर निकाल लिया.यह घटना बताती है कि यदि हम सचमुच करना चाहते हैं तो वह अवश्य होगा.
बातों के दौरान हमने जिक्र किया बहुत साल पहले गोल मार्केट वाली उस घटना का जब हम चौराहे की भीड़ में फ़ंसे अपनी बीमार बेटी को गोद में लिये उस पिता की सड़क पार करने में सहायता करना चाहते थे लेकिन बैंक पहुचने में देरी हो जाने के डर से टैम्पो से उतर नहीं पा रहे थे .तब ही स्कूल जा रहे दो बच्चे जो हमारी टैम्पो के पास आ खड़े हुये थे और जिनकी बात चीत हमने सुनी थी उन्होंने स्कूल पहुचने में देरी हो जाने पर सजा मिलने की बात जानते हुये भी उन व्यक्ति की सहायता की थी.हमें उन बच्चों की संवेदना,उनकी निश्च्छलता हमेशा याद रहती है और हम उनके आभारी भी है.पर जोशी जी ने कहा कि सच है अपनी तकलीफ़ से पहले दूसरों की तकलीफ़ को रखना और समझना ये बच्चे और उनके जैसा पावन मन रखने वाले ही कर सकते हैं लेकिन इस घटना से विचारों के संप्रेषण वाली बात भी प्रमाणित होती है.उन्होंने कहा कि आपके भीतर उठ रहे विचार उन बच्चों तक जो आपकी टैम्पो के पास खड़े थे संप्रेषित हुये और उन्हें वह निर्णय लेने की शक्ति मिली.उनके मन में भी वही विचार उठ रहे थे लेकिन वे डावांडोल स्थिति में थे लेकिन जब आपके भी विचार उनके विचारों से मिल गये तो निर्णायक शक्ति बन गयी.इसीलिये कहते हैं शायद की सामूहिक प्रार्थना में बल अधिक होता है.असर अधिक होता है.
बहुत अच्छा लग रहा था उस शांत परिवेश में बैठ ऐसे विचार विमर्ष करने में सब कुछ जैसे कितना साफ़ और चमकदार अनुभव हो रहा था.कितनी सकारात्मक उर्जा मिल रही थी.मतलब यह कि यदि हम अपने चारों ओर अच्छा होता हुआ देखना चाहते हैं ,स्वस्थ सोच वाला परिवेश चाहते हैं तो एक माध्यम है अपने विचारों पर अपनी पकड़ मजबूत करना,उन्हें पूरी शिद्दत,पूरी ईमानदारी से पालना जिससे वे इतने मजबूत हो सकें कि दूसरों की विचार धारा को भी प्रभावित कर सकें नहीं,आसान तो बिल्कुल नहीं पर सकारात्मक सोच को पालना ,उसे बढावा देते रहना इतना मुश्किल भी तो नहीं है.
जोशी जी के साथ जो युवक था उससे मिल कर भी मन को सुख मिला.उसका बान्धवगढ में कपड़े का व्यवसाय है.पता नहीं प्रक्रिति के सानिध्य में रहने का असर था या फ़िर वह युवक स्वाभाविक रूप से ही सरल और आध्यात्म की ओर झुकाव वाला था पर इस उम्र के व्यवसाय करते हुये युवकों के आध्यात्मिक साहित्य ,उस पर मनन और विश्लेषण आदि की रुचि कम ही देखने को मिलती है.शायद छोटे शहरों में आदमी अभी भी ज्यादा सादा है. माटी के ज्यादा करीब है.
उसने गौतम बुद्ध के जीवन से एक संदर्भ सुनाया.जब गौतम बुद्ध अपनी खोज मे अकेले ही चले जा रहे थे तो एक स्थान पर अत्यंत क्लांत हो कर बैठे हुये थे.मन की उथल पुथल के कारण शरीर की ओर ध्यान ही नहीं गया था .वे बहुत दूर तक ,लम्बे समय से बिना कुछ खाये पिये बस चलते ही चले गये थे.उस समय उनमे इतनी भी शक्ति बाकी नहीं रही थी कि वे उठ भी सकें .जिस व्रिक्ष के नीचे वे आंखें मूंदे निढाल पड़े थे,उससे कुछ दूरी पर ग्रामीण महिलायों का एक समूह किसी धार्मिक या सामाजिक आयोजन में व्यस्त था और वे सब मिल कर गीत गा रहीं थीं.उनकी गाने की उठती गिरती स्वर लहरियों,खिंचती-टूटती तान ,आरोह अवरोह से गौतम ने एक पाठ सीखा-- शरीर हो या मन उसे वीणा के तार की तरह इतना ही कसो ,इतना ही खींचो जितना सहन करने की उसकी सामर्थ्य हो.अधिक खींचा तो तार टूट जायेगा और ढीला छोड़ा तो संगीत पैदा ही नहीं होगा.अच्छा लगा उसका बातों को एक और मोड़ देना.
लम्बी बात चीत हुयी और चलती रह सकती थी पर फ़िर जीवन के और भी तो आयाम हैं और भी जरूरतें हैं जोशी जी और उनके साथी को वापस जाना था.पीपल और नीम के पेड़ों के बीच बनी ,फ़ूस से छायी उस मड़ैया के नीचे बैठ हमने बहुत सी बातें की जीवन दर्शन से ले कर आदमी के भीतर बाहर की और फ़िर एक दूसरे से विदा ली.हम लोगों ने न एक दूसरे का पता लिया न फ़ोन नम्बर.अचानक मुलाकात हुयी थी और बस यूं ही अपने अपने रास्ते चल दिये.उस मुलाकात को आगे चलते रहने वाले सम्बंध या परिचय को किसी तरह की अनवरतता प्रदान करने की बात हममे से किसी के दिमाग में नहीं आयी थी.शायद यही उस क्षण ,उस पल को सच्चा मान देना था.
सबेरे की जंगल सफ़ारी से लौटने के बाद हम गेस्ट हाउस के बरामदे में बैठे अभी तक जंगल की ताजी ,नम हवा की नर्म छुवन के एह्सासों में डूबे हुये थे.सामने के पेड़ों की कतार भी एकदम दम साधे खड़ी थी.देनवा भी बिल्कुल बेआवाज बह रही थी.सबने जैसे सलाह कर रखी थी कि हम सपने सी सुंदर जो सुबह अभी अभी जी कर लौटे हैं या कहें की अभी भी जी रहे थे उसके जादू में वे हमे कुछ देर और यूं ही डूबे रहने देगे.
थोड़ी देर बाद नदी की ओर से चढ कर ऊपर आते दो लोग दिखायी दिये.एक तकरीबन तीस एक साल का युवक था और दूसरे प्रौढ व्यक्ति थे.कंधों तक लहराते सफ़ेद बाल,लम्बी सफ़ेद दाढी,मध्यम लम्बाई और गठे बदन के ये सज्जन जो सदरी पहने थे उस पर काले रंग के पंजो के निशान बने थे.हमने अंदाज़ा लगाया कि वे शायद वन विभाग के ही कर्मचारी होगे क्योंकि बिना किसी साजो समान के वे वैसे भी पर्यटक तो हो ही नहीं सकते थे.
कुछ देर बाद पीछे की ओर से फोटो खींच कर सुंदर जब सामने की ओर आये तो उनके गले में लटकते कैमरे को देख कर उन सज्जन ने बात चीत शुरु की और फ़िर हम चारो लोगों मे बातों का जो सिलसिला शुरु हुआ ,जिन विषयों पर चर्चा हुई,वार्तालाप ने जो दिशा पकड़ी कि वह दोपहर यादगार बन गयी.
ये सज्जन थे श्री कैलाश जोशी.कैलाश जी पेंटर हैं और मध्य प्रदेश के वन अभ्यारणॊं के लिये वन जीव-जन्तुओं और पक्षियों आदि के चित्र,पोस्टर पेंट करते हैं. उनके ही शब्दों में वे उन कतिपय भाग्यशाली लोगों में हैं जिनका शौक और रुचि ही जीवकोपार्जन का साधन है.प्रक्रिति के सानिध्य में रहना और चित्र बनाना दोनों ही उनका शौक है और काम भी कुछ ऐसा मिल गया कि आये दिन पचमढी,कान्हा,बान्ध्वगढ,सतपुरा और मध्य प्रदेश के अन्य अभ्यारणों के चक्कर लगते रहते हैं.
प्रकृति का सौंदर्य,उसके सान्निध्य में मन में उपजती शांति और फिर उससे एकात्म स्थापित होने की स्थिति से होती हुयी बातें आध्यात्म की ओर मुड़ गयी
चर्चा के दौरान विषय आया कि यदि हम सचमुच पूरी ईमानदारी से कुछ अच्छा करने की सोचते हैं तो हमारे चारो ओर व्याप्त वह अद्र्श्य ,सर्वशक्तिशाली ताकत उस काम को पूरा करने में हमारी सहायता अवश्य करती है.कई बार उसके तरीके,उसके रास्ते हम समझ नहीं पाते पर जब असंभव से लगने वाले काम पूरे हो जाते हैं तो करिश्मा भी उसी का ही होता है बस शर्त है हमारे इरादों मे सच्चाई और ईमानदारी की. उसी दौरान चर्चा हुई विचारों के संप्रेषण की.
जोशी जी ने एक घटना का जिक्र किया.एक बार वे मंडई में कहीं जा रहे थे जब उन्हें दलदल में फ़ंसी एक गाय दिखाई दी.गाय जितना प्रयत्न करती थी ,उतनी ही उसकी स्थिति और बिगड़ रही थी.जोशी जी थोड़ी देर खड़े सोचते रहे,इधर उधर देखा भी पर आस पास न तो दूर दूर तक कोई व्यक्ति था न ही कोई आबादी.गाय की सहायता करने का कोई उपाय, कोई साधन समझ में नहीं आ रहा था.उसकी विवशता और अपनी बेबसी से हार वे कुछ कदम आगे बढे ,उस परिद्रश्य से बाहर हो जाने के इरादे से.लेकिन मन भला कैसे मानता फ़िर वापस आये और ईश्वर से मन ही मन कहा कि यदि इस समय हमे यहां भेजा है तो इस मूक जीव की वेदना यूं बेबस हो कर तो नहीं देख सकता प्रभू कोई तो राह दिखाओ और थोड़ी ही देर में सामने से कुछ व्यक्ति आते हुये दिखाई दिये और देखिये इन लोगों के पास रस्सी भी थी.जोशी जी ने जा कर उन लोगों को स्थिति से अवगत कराया और फ़िर सबने मिल कर गाय को बाहर निकाल लिया.यह घटना बताती है कि यदि हम सचमुच करना चाहते हैं तो वह अवश्य होगा.
बातों के दौरान हमने जिक्र किया बहुत साल पहले गोल मार्केट वाली उस घटना का जब हम चौराहे की भीड़ में फ़ंसे अपनी बीमार बेटी को गोद में लिये उस पिता की सड़क पार करने में सहायता करना चाहते थे लेकिन बैंक पहुचने में देरी हो जाने के डर से टैम्पो से उतर नहीं पा रहे थे .तब ही स्कूल जा रहे दो बच्चे जो हमारी टैम्पो के पास आ खड़े हुये थे और जिनकी बात चीत हमने सुनी थी उन्होंने स्कूल पहुचने में देरी हो जाने पर सजा मिलने की बात जानते हुये भी उन व्यक्ति की सहायता की थी.हमें उन बच्चों की संवेदना,उनकी निश्च्छलता हमेशा याद रहती है और हम उनके आभारी भी है.पर जोशी जी ने कहा कि सच है अपनी तकलीफ़ से पहले दूसरों की तकलीफ़ को रखना और समझना ये बच्चे और उनके जैसा पावन मन रखने वाले ही कर सकते हैं लेकिन इस घटना से विचारों के संप्रेषण वाली बात भी प्रमाणित होती है.उन्होंने कहा कि आपके भीतर उठ रहे विचार उन बच्चों तक जो आपकी टैम्पो के पास खड़े थे संप्रेषित हुये और उन्हें वह निर्णय लेने की शक्ति मिली.उनके मन में भी वही विचार उठ रहे थे लेकिन वे डावांडोल स्थिति में थे लेकिन जब आपके भी विचार उनके विचारों से मिल गये तो निर्णायक शक्ति बन गयी.इसीलिये कहते हैं शायद की सामूहिक प्रार्थना में बल अधिक होता है.असर अधिक होता है.
बहुत अच्छा लग रहा था उस शांत परिवेश में बैठ ऐसे विचार विमर्ष करने में सब कुछ जैसे कितना साफ़ और चमकदार अनुभव हो रहा था.कितनी सकारात्मक उर्जा मिल रही थी.मतलब यह कि यदि हम अपने चारों ओर अच्छा होता हुआ देखना चाहते हैं ,स्वस्थ सोच वाला परिवेश चाहते हैं तो एक माध्यम है अपने विचारों पर अपनी पकड़ मजबूत करना,उन्हें पूरी शिद्दत,पूरी ईमानदारी से पालना जिससे वे इतने मजबूत हो सकें कि दूसरों की विचार धारा को भी प्रभावित कर सकें नहीं,आसान तो बिल्कुल नहीं पर सकारात्मक सोच को पालना ,उसे बढावा देते रहना इतना मुश्किल भी तो नहीं है.
जोशी जी के साथ जो युवक था उससे मिल कर भी मन को सुख मिला.उसका बान्धवगढ में कपड़े का व्यवसाय है.पता नहीं प्रक्रिति के सानिध्य में रहने का असर था या फ़िर वह युवक स्वाभाविक रूप से ही सरल और आध्यात्म की ओर झुकाव वाला था पर इस उम्र के व्यवसाय करते हुये युवकों के आध्यात्मिक साहित्य ,उस पर मनन और विश्लेषण आदि की रुचि कम ही देखने को मिलती है.शायद छोटे शहरों में आदमी अभी भी ज्यादा सादा है. माटी के ज्यादा करीब है.
उसने गौतम बुद्ध के जीवन से एक संदर्भ सुनाया.जब गौतम बुद्ध अपनी खोज मे अकेले ही चले जा रहे थे तो एक स्थान पर अत्यंत क्लांत हो कर बैठे हुये थे.मन की उथल पुथल के कारण शरीर की ओर ध्यान ही नहीं गया था .वे बहुत दूर तक ,लम्बे समय से बिना कुछ खाये पिये बस चलते ही चले गये थे.उस समय उनमे इतनी भी शक्ति बाकी नहीं रही थी कि वे उठ भी सकें .जिस व्रिक्ष के नीचे वे आंखें मूंदे निढाल पड़े थे,उससे कुछ दूरी पर ग्रामीण महिलायों का एक समूह किसी धार्मिक या सामाजिक आयोजन में व्यस्त था और वे सब मिल कर गीत गा रहीं थीं.उनकी गाने की उठती गिरती स्वर लहरियों,खिंचती-टूटती तान ,आरोह अवरोह से गौतम ने एक पाठ सीखा-- शरीर हो या मन उसे वीणा के तार की तरह इतना ही कसो ,इतना ही खींचो जितना सहन करने की उसकी सामर्थ्य हो.अधिक खींचा तो तार टूट जायेगा और ढीला छोड़ा तो संगीत पैदा ही नहीं होगा.अच्छा लगा उसका बातों को एक और मोड़ देना.
लम्बी बात चीत हुयी और चलती रह सकती थी पर फ़िर जीवन के और भी तो आयाम हैं और भी जरूरतें हैं जोशी जी और उनके साथी को वापस जाना था.पीपल और नीम के पेड़ों के बीच बनी ,फ़ूस से छायी उस मड़ैया के नीचे बैठ हमने बहुत सी बातें की जीवन दर्शन से ले कर आदमी के भीतर बाहर की और फ़िर एक दूसरे से विदा ली.हम लोगों ने न एक दूसरे का पता लिया न फ़ोन नम्बर.अचानक मुलाकात हुयी थी और बस यूं ही अपने अपने रास्ते चल दिये.उस मुलाकात को आगे चलते रहने वाले सम्बंध या परिचय को किसी तरह की अनवरतता प्रदान करने की बात हममे से किसी के दिमाग में नहीं आयी थी.शायद यही उस क्षण ,उस पल को सच्चा मान देना था.
Sunday, March 10, 2013
भोजेश्वर मन्दिर
भीमबैठका गुफ़ाओं से लौटते समय जब टै़क्सी
हाईवे से भोजपुर के रास्ते पर मुड़ी तो थोड़ी गरमाती दोपहरी पर जैसे किसी ने
हरियाली का लेप कर दिया। साफ़ सुथरी चिकनी
काली सड़क के दोनों ओर दूर दूर तक गेंहू के खेत फ़ैले हुये थे। सतर खड़े गेहूं के
पौधों के बीच फ़ूली सरसों भी जहां तहां अपनी लचकती काया को सहेजती खड़ी थी। हवा का
एक झोंका आता और उसके सर से बासंती आंचल जैसे उड़ जाने को जोर मारता और ये लाज से
दोहरी होती उसे समेट समाट फ़िर सीधी खड़ी हो जाती। ऊपर दूर तलक पसरा नीले आकाश का
निस्सीम विस्तार। जहां तक दृष्टि जाती बस नीले, हरे और बासंती बूटे।
भोजपुर नज़र में आने से बहुत पहले ही दृष्टि
की परिधि में आ जाता है भोजपुर का शिव मन्दिर...भोजेश्वर मन्दिर। अन्य मन्दिरों, शिवालयों से बिल्कुल ही भिन्न वाह्य आकार
वाला यह मन्दिर दूर से ही अपने विराट एवं सुदृढ़ होने का परिचय देता है। छोटी से
कस्बाई बाज़ार को पार कर हमने लोहे के पुराने से साधारण गेट में प्रवेश किया और
थोड़ा ऊपर को उठती पक्की सड़क पर चढने लगे। कुछ कदम चल कर ही सड़क हल्के से खम के
साथ मुड़ी़ और हम अचम्भित से अपनी जगह पर ठिठक गये। मन्दिर से आमने सामने के पहले
साक्षात्कार का यही असर होता है। बहुत बड़े आयताकार ऊंचे चबूतरे पर नीले आसमान के
नीचे तन कर अडिग खड़े ऊंचे बहुत ऊंचे कुछ चौकोर से मन्दिर को देख कर मन मे पहला
विचार यही आता है कि ईश्वर के स्वरूप की विराटता को संप्रेषित करने की इससे बेहतर
परिकल्पना शायद हो ही नहीं सकती। भोजेश्वर मन्दिर को भीतर तक उतारना अपने आप में
एक विलक्षण अनुभव है और हो भी कैसे न, आखिर यह परिकल्पना है उस राजा की जो
स्थापत्य कला का महान विद्वान था। भोजपुर के इस शिव मन्दिर का निर्माण राजा भोज
द्वारा प्रारम्भ कराया गया था। माना जाता है कि इस मन्दिर में स्थापित शिवलिंग
विश्व का सबसे बड़ा शिवलिंग है, तन्जौर के वृहदेश्वर
से भी बड़ा।
चबूतरे की सीढि़यां चढ़ हम ऊपर पहुंचे। गर्भगृह
में प्रविष्ट होने वाले दरवाजे के सामने चबूतरे पर दो छतरियां बनी हैं जिनमें छोटे
आकार के शिवलिंग और नंदी स्थापित हैं। साथ ही रखी हैं कुछ अन्य मूर्तियां। छतरियों
में स्थापित ये शिवलिंग और नंदी मन्दिर की मौलिक परिकल्पना का हिस्सा नहीं लगते। वैसे
भी कहा जाता है कि राजा भोजदेव इस मन्दिर के निर्माण कार्य को पूर्ण नहीं करवा
पाये थे। इतने विराट शिवलिंग के साथ राजा ने क्या नंदी की कल्पना नहीं की होगी। शायद
उस बड़े चबूतरे पर एक विराट नंदी का भी विचार रहा हो जो पूरा न हो सका।
चबूतरे पर बने प्रवेशद्वार से नीचे को
उतरती सीढि़यों से हम गर्भगृह में पहुंचे। अपेक्षाकृत कम परिधि वाले गर्भगृह के
बीचों बीच तीन पत्थरों के योनिपत्र पर शिवलिंग स्थापित हैं। योनिपत्र का डिजाइन भी
अन्य मन्दिरों में पाये जाने वाले योनिपत्रों से बिल्कुल अलग है। गर्भगृह में
चारों कोनों में करीब चालीस फ़ीट ऊंचे खम्बे हैं जो अपनी ऊपर उठी पुष्ट भुजाओं पर
मंदिर का चंदोवा उठाये हुये हैं। मंदिर के प्रवेशद्वार के दोनों ओर, खम्भों के ऊपरी हिस्सों और चंदोवे के
भीतरी तरफ़ कुछ नक्काशी है, कुछ मुर्तियां
उकेरी गयीं हैं किन्तु मन्दिर में अलंकरण बस नाम मात्र को है। बड़ी-बड़ी चौकोर
चट्टानों को एक के ऊपर एक रख कर बनाय़ा गया यह मन्दिर अपने स्थापत्य के सादगीपूर्ण
नायाब तरीके से मानो यह कहता है कि ईश्वर को अनुभव करने के लिये हमे अपने चारो ओर
के आवरण उतार फ़ेकने होंगे। अपने सबसे सादे और सच्चे रूप में ही हम ईश्वर के सबसे
नजदीक होते हैं।
मन्दिर के गर्भगृह में न कोई पुजारी था, न
ही पूजा होने के कोई लक्षण। पता नहीं ऐसा आगामी शिवरात्री पर लगने वाले मेले की
तैयारियों के चलते था या फ़िर हमेशा ही ऐसा होता है। मेरे मन मे कई प्रश्न घुमड़
रहे थे क्या मन्दिर अपूर्ण रह गया था इसलिये भीतर पूजा न हो कर बाहर बनी छतरियों
में स्थापित शिवलिंगों में पूजा की जा रही थी? क्या बिना नंदी की उपस्थिति वाले शिवलिंग की पूजा अर्चना नहीं की
जाती? गर्भग्रिह से बाहर आ हम चबूतरे पर खड़े हुये। मन्दिर
के सामने की ओर खुले मैदान में शुरु मार्च की धूप दूर तक पसरी थी। इधर उधर जमीन
में धंसी चट्टानें अलसाई सी ऊंघ रहीं थीं। सामने इक्का दुक्का पेड़ धूप की एक रसता
को तोड़ने का प्रयास कर रहे थे। चबूतरे के एक तरफ़ बने लॉन में पर्यटक पेड़ों की
छाया में बैठे हुये थे। पीछे की ओर दूर तक चट्टाने दिख रही थीं और कहीं दूर बेतवा
बह रही थी। इन सबके बीच गर्भगृह के नीम अंधेरे से झांकता विराट शिवलिंग एक लम्बी
चुप में लिपटा खड़ा था। यूं तो चारों ओर जीवन निर्बाध रूप से बह रहा था पर पता
नहीं क्या था जो मन को उदासी से भर रहा था। सामने था एक महान सम्राट का भव्य
स्वप्न जो अधूरा ही रह गया, पीछे दूर जैन
मन्दिर के खंडित अवषेश, हुशंग शाह
द्वारा नष्ट किये गये राजा भोज के उस विलक्षण बांध के कुछ बचे हुये निशान जिसने एक
इतनी बड़ी झील को रचा था कि समूचे मालवा की जलवायु ही परिवर्तित हो गयी थी। हवा में
नेपथ्य से आती नश्वरता की रुंधी रुंधी धुन जैसे मन मे कसक पैदा कर रही थी।
हम घूम कर फ़िर से शिवलिंग से मुखातिब थे। और
इस बार लगा जैसे वह भी हमसे मुखातिब हैं। पता नहीं क्या हुआ कि हमारी आंखे खुद ब
खुद बंद हो गयीं और मन में उभर आया पहले देखा और पढा़ उस समय के मन्दिर का चित्र जब
ऊपर के गुंबद से एक बड़ी सी चट्टान टूट कर गिर गयी थी और खुले छेद से आसमान नीचे
उतर आता था। सूरज की किरणॊं के स्वर्णिम प्रकाश में डूबा शिवलिंग साक्षात महादेव
के तेज से प्रभासित लगने लगा। फ़िर जैसे अचानक चारों ओर अंधेरा हो गया और ऊपर आसमान
से चंद्रमा का प्रकाश भीतर आया और समूचे शिवलिंग को अपने रुपहले उजास से नहला गया,
जैसे ऊपर से जटाशंकर की जटाओं से निकल गंगा मैया आयी हो अर्ध्य चढा़ने और फ़िर आंखो
के सामने था धरती से आकाश तक चला जाता एक अनन्त स्तम्भ प्रकाश का....न कोई आदि, न कोई अंत, महादेव का विराटम
स्वरूप।
Monday, March 4, 2013
भोपाल की ट्रेन की वह सहयात्री
इस बार की यात्रा प्रारम्भ हुई २६ फ़रवरी २०१३ की शाम,ट्रेन यात्रा काफ़ी अच्छी रही.सहयात्री अच्छे हों तो यात्रा का सुखद हो जाना बहुत स्वाभाविक है.हर यात्रा में ऐसा नहीं होता कि आप सहयात्रियों से घुलमिल कर बात कर सकें पर इस बार हुआ और इसका सारा श्रेय जाता है सामने साइड बर्थ पर अकेली सफ़र कर रही महिला को.वे बहुत सारे सामान के साथ बंगलौर जा रहीं थीं.वे वहां अपने तीन बच्चों के साथ डिफ़ेन्स क्वार्ट्र्स में रहती हैं जबकि पति आसाम में पोस्टेड हैं.महिला ग्रामीण परिवश से थीं.डिग्री आदि के हिसाब से बहुत शिक्षित नहीं थीं पर उनका आत्मविश्वास और सहज ही सबके भीतर कि अच्छाई पर विश्वास कर लेने की क्षमता ताजा हवा के झोंके की तरह मन को सुख की अनभुति से भर गयी.ऐसा नहीं कि उन्हें आज की दुनिया और लोगों में व्याप्त बुराइयों का अन्दाजा नहीं था.सफ़र में सहयात्रियों से ,अजनबियों से खुल कर बात करने के खतरों से वे वाकिफ़ थी लेकिन फ़िर भी उनका मानना था कि पहले से ही आशंकायें पाल लेगें कुछ गलत या बुरा घटने की तो हम बुरा होने से पहले ही बुरा भोगने और अनुभव करने लगते हैं.कोई दूसरा हमें तकलीफ़ दे उससे पहले ही हम खुद को सजा दे बैठते हैं.
अंधेरा होने पर हमारे सामने की सीट पर बैठे महाशय ने उनसे सीट बदलने का अनुरोध किया.कारण तो उन सज्जन ने यह दिया कि उन्हें रात में कई बार उठना पड़ता है और ऐसे में अक्सर बीच वाली सीट से उनका सिर टकरा जाता है लेकिन बाद में उन महिला को समझ में आ गया था कि वास्तव में वे महाशय साइड की नीचे की सीट में पर्दा खींच कर पीने की सहूलियत ढूढ रहे थे.किन्तु इस बात को भी उन्होंने बिना किसी शिकायत के बड़ी सहजता से ले लिया.हर व्यक्ति अलग अलग होता है उसमे अच्छाई या बुराई जैसा क्या.यही नहीं कानपुर से हमारे ही कूपे में एक उनसे उम्र में बड़ी महिला चढी जिनकी बेटी बार बार फ़ोन पर उनसे पूछ रही थी कि किसी से सीट बदल कर नीचे वाली सीट लेने का इन्तजाम हुआ या नहीं तो इन महिला ने स्वयं ही उ न्हें यह कहा कि वे उनकी नीचे वाली सीट ले लें और वे उनकी बीच वाली सीट पर सो जायेंगी.काफ़ी बातें हुईं उनके साथ .परेशानियों के बावजूद न उन्हें कोई शिकायत थी जीवन से न ही इस बात का कष्ट कि उनके पास औरों की तुलना में भौतिक सुख सुविधाओं की कमी.न अपने अधिक सामान को ले कर परेशान थी ,न उसकी सुरक्षा को ले कर चिन्तित.सब कुछ बहुत सहजता से लेने का उनका यह गुण हमे उनका मुरीद बना गया.
अंधेरा होने पर हमारे सामने की सीट पर बैठे महाशय ने उनसे सीट बदलने का अनुरोध किया.कारण तो उन सज्जन ने यह दिया कि उन्हें रात में कई बार उठना पड़ता है और ऐसे में अक्सर बीच वाली सीट से उनका सिर टकरा जाता है लेकिन बाद में उन महिला को समझ में आ गया था कि वास्तव में वे महाशय साइड की नीचे की सीट में पर्दा खींच कर पीने की सहूलियत ढूढ रहे थे.किन्तु इस बात को भी उन्होंने बिना किसी शिकायत के बड़ी सहजता से ले लिया.हर व्यक्ति अलग अलग होता है उसमे अच्छाई या बुराई जैसा क्या.यही नहीं कानपुर से हमारे ही कूपे में एक उनसे उम्र में बड़ी महिला चढी जिनकी बेटी बार बार फ़ोन पर उनसे पूछ रही थी कि किसी से सीट बदल कर नीचे वाली सीट लेने का इन्तजाम हुआ या नहीं तो इन महिला ने स्वयं ही उ न्हें यह कहा कि वे उनकी नीचे वाली सीट ले लें और वे उनकी बीच वाली सीट पर सो जायेंगी.काफ़ी बातें हुईं उनके साथ .परेशानियों के बावजूद न उन्हें कोई शिकायत थी जीवन से न ही इस बात का कष्ट कि उनके पास औरों की तुलना में भौतिक सुख सुविधाओं की कमी.न अपने अधिक सामान को ले कर परेशान थी ,न उसकी सुरक्षा को ले कर चिन्तित.सब कुछ बहुत सहजता से लेने का उनका यह गुण हमे उनका मुरीद बना गया.
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