Thursday, December 27, 2007

हमारे छोटे भैया रहेट वाले

आज कल सिक्वेल का जमाना है । हेरा फ़ेरी के बाद फ़िर हेरा फ़ेरी ,धूम के बाद धूम २ वगैरह वगैरह ,तो भाई हम अपने रहेट वाले भैया पर भाग २ क्यों नही लिख सकते जब कि हमारे पास कहने सुनने को अनुभव है । वैसे भी जब पहली बार छोटे भैया को याद किया था तो ब्लाग की शुरुआत थी ।ज्यादा टाइप करना भी हमारे लिये परेशानी का सबब था ।इसीलिये कतरा कतरा से काम चला लेते थे । नही ऐसा नही है कि हम अब कोई बहुत बड़े लिक्खाड़ हो गये है पर हांं पहले से ज्यादा दोस्ती तो हो ही गयी है की बोर्ड और पी।सी। से । पहले वाले ब्लाग पर कमेंट करते हुए नरेश ने कहा भी था कि ’अभी बहुत कुछ और लिखा जा सकता था ’ फ़िर लिखने वाले को लिखने का बहाना चाहिये । इसका नशा भी शर चढ कर बोलता है ।हां तो लुत्फ़ फ़र्माइये ,पेश है छोटे भैया की याद मे एक और पोस्ट।
पैर के सामने आये पत्थर को हमने जोर से दूर तक उछाल दिया . अब और क्या करते ? इतना गुस्सा आ रहा था ,किसि पर तो निकाल्ना था ना . इन बड़े लोगो को तो समझाने की कोशिश भी बेकार है . इनके लिये तो बच्चो की न कोई इज़्ज़त होती है न बात की कीमत . जैसे ये सारे भारी भरकम शब्द बस इन बड़े बुजुर्गों के लिये ही बनाये गये हो . कितनी कोशिश की थी अम्मा को सम्झाने की,बस एक बार वह नयी वाली पेन्सिल स्कूल ले जाने दो .पर नहि अच्छी चीज है तो उससे घर मे ही लिखो . अब भला ये क्या बात हुई .जब तक उसे क्लास मे सब्को दिखाया न जाये ,सबकी आखो मे उसे छू लेने की ललक को देखा न जाये तो नयी तरह की चीज का क्या फ़ायदा .
कल कितने रुआब से सबके बीच मे हमने अपनी नयी पेन्सिल का जिक्र किया था . मेरे मामा कान्पुर आई .आई .टी . मे थे . वहां बहुत सारे दूसरे देशो के लोग भी थे . उन्ही मे से एक ने हमे वह पेन्सिल दी थी . तब आज की तरह ग्लोब्लि जेशन का जमाना तो था नही कि दूसरे देश और वहां की चीज ,मोहल्ले पड़ोस की बात हो . फि र असली मुद्दा यह नही था कि पेन्सिल कहां से आयी या किसने दी . वह पेन्सिल थी ही इतनी अलग और खूब्सूरत .काही रंग की एच.बी. पेन्सिल्स और लाल रंग मे काली धारियों वाली एक जैसी पेन्सिल्स की भीड़ मे कैसी अलग चमकति वह पेन्सिल.
मूड बेतरह खराब होने के बाद भी उस पेन्सिल का ध्यान आते ही मेरे मन मे खुशी उमगने लगी .चेहरे पर अप्ने आप ही मुस्कुराहट आ गयी . दोस्तो ,सहेलियों द्वारा चिढाये जाने ,मजाक उड़ाये जाने की आशंकाओ की धुन्ध छट गयी और मेरी समूची चेत्ना पर बस वह पेन्सिल छा गयी .
कैसा चमकता सा धानी रंग है और उसकी छुअन भी कैसी रेशमी है . ये अपनी आम पेन्सिल्स जैसी नही कि ज्यादा लिखो तो उन्ग्लियां कड़ी पड़ जायें .उसके हाथ मे आते ही ऐसे लगता है जैसे वह हमे सहला सहला कर और लिखने के लिये उकसा रही हो.और धानी रंग पर नन्हे नन्हे बसंती फ़ूल . बिल्कुल सर्सों के फ़ूले खेत सी जिसमे दोनो हाथ फ़ैला कर बस हवा के साथ दौड़ते जाने का मन करे.
हम अपने कल्प्नालोक मे ऐसे खोये थे कि हमे पता हि नही चला कि हम कब आधे से ज्यादा रास्ता पार कर चुके थे और स्कूल पास आने वाला है . हम वापस धरातल पर थे .सबके चेहरों पर छाने वाली
मुस्कान हमे अभी से डरा रही थी .
कल जब हम अपनी पेन्सिल का वर्णन कर रहे थे तो आधे से ज्यादा को तो विश्वास ही नही हो रहा था और अब जब हम उन्हे दिखा नही पायेगे तो सब कहेगे कि यह तो बस हर चीज की कल्पना कर लेती है इसलिये हमे बेव्कूफ़ बना रही थी . हमे कोई झूठा कहे तो सच कित्ता गुस्सा आता है पर अब हम कर भी क्या सकते है ? मेरा बस चलता तो आज स्कूल नही आते पर फ़िर वही मुश्किल अम्मा को क्या सम्झाते कि हम क्यो नही जायेगे .मेरी इतनी बड़ी परेशानी और उनके लिये तो बस हसने की बात हो जायेगी . हम तहे दिल से मना रहे थे कि आज कोई करिश्मा हो जाये और सब पेन्सिल के बारे मे भूल जाय़ॆ.या तो आज किसी कारण्वश जाते ही छुटटी हो जाये . एक दो दिन बाद तो वैसे भी सब कुछ कुछ भूल ही जायेगे और तभी करिश्मा हो गया
सड़क के उस पार वाले मैदान मे हम लोगो के छोटे भैया अपने लावा लश्कर के साथ मौजूद थे . ये छोटे भैया यूं तो रहट वाले थे , अरे रहट यानि आज के जांइट व्हील का पुराना संस्करण ,लेकिन हम सब के लिये वे ’मिनि ’ के ’काबुलिवाला ’ से कम नही थे .रहट झूलने से ज्यादा मजा हमे उनके यात्रा संसमरण सुनने मे आता था .उन दिनो वैसे भी बच्चो के लिये घूमने जाने की जगहे निश्चित सी हुआ करती थी ...छुट्टियों मे दादी -नानी के घर .ऐसा नही कि हम इन जगहो मे जाने के लिये लालायित नही रहते थे पर इन जानी समझी जगहो से एक्दम अलग होता था छोटॆ भैया की यात्राओ का संसार .
हर दो तीन महीने मे एक बार वे हमारे स्कूल के पास वाले मैदान मे अपना रहट गाड़ते थे और जिस दिन वे आते थे हम लोगो के मन जैसे रस्सी तुड़ा कर उनके पास भग जाने को आतुर रहते थे .कोई और बात हम लोगो के बीच होती ही नही थी . रहट के हिडोले मे बैठने से पहले ही हम पूछते ’छोटे भैया ,इस बार कहां हो आये ’और फ़िर हिंडोले की ऊपर नीचे लहराती गति के साथ हमारी आंखो के आगे सजने लगता कभी किसी गांव का मेला ,हरी ,नीली ,गुलाबी चूड़ियों की दुकाने ,मिट्टी के खिलौने ,कठपुतली का नाच ,मुंह मे घुलने लगता खोये की मिठाइयों का सोंधा स्वाद या फ़िर गन्ने के खेत ,आम का बगीचा,नाच्ता मोर ,कभी आंधी पानी,कभी काली रात मे छोटे भैया की भूत से मुठ्भेड़ ,कुश्ती,दंगल,नौटंकी और न जाने क्या क्या .गरज यह कि हम हर बार छोटॆ भैया की वंडर्लैंड मे एलिस होते .विषय से अधिक हमे सम्मोहित करता था उनके कहने का अंदाज ..कैसी नयी नोखी होती थी उनकी शब्दावली और कैसा आवाज का उतार चढाव . हर द्रिशय आंखो के सामने चित्र सा सजीव हो उठता था .
लेकिन छोटॆ भैया और हमारे रिश्तो मे इससे भी इतर बहुत कुछ था .स्कूल जाते समय हम लोग कितनी भी जिद करे वे हमे कभी रहट नही झुलाते थे . उनका कहना था कि पढने जाते समय मन बिल्कुल पढाई की तरफ़ ही होना चाहिये . स्कूल से लौटते समय भी एक राउंड के बाद दूसरा नही .अम्मा घर मे रस्ता देख रही होगी . हां शाम को खेलने के समय अम्मा को बता कर आने पर हम उनके पास रुक सकते थे . हिंडॊले मे बैठने के पैसे तो सीमित होते थे ,इस्लिये झूलने के बाद हम लोग वही आस पास ईट पत्थर पर बैठ उनकी बाते सुनते थे . हां एक बात और बहुत प्यार करते थे वे हम लोगो को .नही इसमे कहने सुनने की क्या बात है .बच्चे थे तो क्या हुआ इतना तो हमे समझ मे आता ही था. हां सारे प्यार दुलार के बाव्जूद वे बिना पैसे के हमे एक चक्कर भी नही झुलाते थे . नहीं नहीं आप बिल्कुल गलत समझे .इसका कोई विशुद्ध व्यवसायिक कारण ही नही था मात्र . वे हमारी आदते नही बिगाड़ना चाहते थे .अगर कारण मात्र व्यव्सायिक ही होता तो हमारे पास ज्यादा पैसे होने के बाव्जूद वे हमे सारे पैसे रहट मे ही ना खर्च करने की सलाह नही दिया करते .
रहट चलाना उनका जीव्कोपार्जन का साधन जरूर था पर देखिये न वे अपने होने को कितना अर्थ्पूर्ण बनाते चलते थे . उनके हर पड़ाव पर हमारे जैसे कितने ही बच्चे होगे जिनमे उन्होने अच्छाई के बीज बोये होगे .उनके अनुभव सुनते समय हम लोग उनसे अक्सर कहते थे ,छोटे भैया आपके कितने मजे है ,कभी यहां, कभी व्हां ...कितनी नयी नयी चीजे देखते है . असल मे उनका यूं कांधे पर ग्रिहस्थी लादे कभी भी कही भी चल देना हमे बड़ा फ़ैसीनेट करता था .कैसा तो एक मुक्त होने का एह्सास दिलाने जैसा . पर हमारी बात सुन कर उनके चेहरे पर जो एक अबूझी सी मुस्कान छा जाती थी उसका अर्थ हमे आज समझ मे आता है . हमारा तिल्स्म नहीं तोड़ना चाहते थे इसीलिये शायद कुछ नही कहते थे पर अपनी देहरी से दूर कभी ना खत्म होने वले रास्तो पर लगातार चलने की मज्बूरी का दर्द समझने लायक हम तब कहां थे .
हमे याद है एक बार उन्के छोटॆ से तम्बू के बाहर बने ईटो के चुल्हे को देख हमने उनसे अचानक पूछा था ,’छोटे भैया आपका घर नही है कही क्या ?’
है ना ,बिटिया और घर मे आपकी जैसी एक बिटिया भी है .उसी के लिये पैसा कमाने तो हम निकलते है रहट ले कर ’
सच कहे तो उन्के चेहरे पर अचानक फ़ैली ढेर सी खुशी और ममता देख हम अन्दर कही थोड़ा दुखी हो गये थे .हमे लगा अरे कोई और है जिसे ये हमसे ज्यादा प्यार करते है. लेकिन अगले ही पल हमे उस नन्ही सी बच्ची पर दया आयी कि उसे अपने पिता से कितने कितने दिन दूर रहना पड़ता है
लेकिन छोटॆ भैया ने बताया कि चाहे केवल रात भर के लिये ही क्यों ना हो वे हफ़्ते मे एक दिन े घर ज्रूर हो आते है . उस दिन के बाद से हम जब भी उनसे मिलते उनकी बिटिया के बारे मे जरूर पूछते .
देखिये छोटे भैया दिखाई पड़ गये तो हम बस उन्ही के बारे बिना रुके बोले चले जा रहे है और वह हमारी पेन्सिल तो जाने कहां रह गयी .लेकिन यही तो चम्त्कार है हमारे छोटॆ भैया का हमे पता था उनके आने की खबर सुन कर बस उनकी ही बाते होने वाली हैं
हम दौड़ कर उनके पास गये ,’कब आये छोटे भैया ?देर रात क्या?
’हां ,बिटीय़ा .जब तक स्कूल से लौटोगी तब तक रहट खड़ा हो जायेगा .अरे आज अकेले कैसे ? तुम्हारे साथी कहां है ?
बस सब आ ही रहे होगे . हमने खुश हो कर कहा और जल्दी से स्कूल की ओर बढ गये .सबको बताना भी था ना कि आज खाने की छुटी मे कोई भी बाहर खड़े ढेलो से कुछ भी खरीद कर नही खायेगा .रहट झूलने के लिये पैसे जो बचाने थे .जैसा हमने सोचा था वैसा ही हुआ उस दिन पेन्सिल का ध्यान किसी को नही रहा . लेकिन मेरे मन मे तो उसे दिखाने की चाह थी ना .
आखिर अपने लगातार प्रयासो से हमने एक दो दिन मे अम्मा को मना ही लिया और उस दिन पेन्सिल मेरे बैग मे थी . हम उस दिन भी स्कूल अकेले जा रहे थे .हमने सोचा कि यदि कोलोनी के बच्चो के साथ जायेगे तो पेन्सिल बैग मे है यह बात पचा पाना मेरे लिये जरा मुश्किल होगा और रास्ते मे रुक कर बैग से पेन्सिल निकाल कर दिखाने मे वह बात नही आयेगी जो क्लास मे अचानक उसे सबके सामने लाने मे होगी .हम यही सब सोचते चले जा रहे थे कि मैने दूर से छोटॆ भैया को अपने दोनो हाथो मे सर थामे बैठे देखा .
अरे ऐसे तो वे कभी नही रहते .कल शाम ही तो बता रहे थे कि इस बार बस तीन चार दिन ही रुकेगे .इस बार मेले मे कमायी अच्छी हो गयी थी .वे तो इधर आने वाले नही थे मगर अब्की बिटिया और उसकी माई को लेकर बिटिया की नानी के यहां जाना है .रहट ले कर लम्बे समय तक नही आ पायेगे इसीलिये रास्ते मे तीन चार दिन हम लोगो के पास रुक ने आ गये थे .बहुत खुश थे कि बिटिया के लिये इस बार अ आ की किताब भी खरीदेगे .आज तो उन्हे सब सामान खरीद्ना था और रात को चल देना था.
हम धीरे से उनके पास जा खड़े हुए . छोटॆ भैया क्या हुआ ?
बहुत बार बुलाने पर उन्होने धीरे से सर उठाया .हम धक से रह गये .हमेशा मुस्कुराती रहने वाली उनकी आंखो मे पानी था .
हम लुट गये बिटिया .बर्बाद हो गये .कल रात जाने कौन हमार पैसा वाला बैग चुरा ले गया . अब कौन मुह ले कर घर जाये . बिटिया और उसकी माई कितने उछाह से रस्ता तकत होगीं .अब हम का ले जा पायेगे अपनी बिटिया के लिये .
छोटॆ भैया का प्रलाप जारी था . धीरे धीरे उनके चारो ओर बच्चो का गोल घेरा हो गया था . हम सब दुख और आक्रोश से भरे थे . क्या करे हम अपने छोटॆ भैया के लिये .अचानक हम सब्के हाथ अपने अपने बस्ते मे गये और फ़िर छोटे भैया के सामने फ़ैल गये . सबकी हथेली पर पांच पैसे का सिक्का था और मेरे हाथ मे पीले फ़ूल वाली धानी पेन्सिल .

Sunday, December 9, 2007

सफर ....2

देखिये परसों कहा था कि आगे की यात्रा पर कल चलेगें पर एक दिन यूं ही खिसक गया । यही तो जिन्दगी है ,सब कुछ जैसा सोचा ,जैसा चाहा वैसे ही हो जाये तो फिर अग्यात के आकरष्ण का आनन्द तो गया ही सम्झिये ना ।
खैर चलिये आगे की यात्रा पर ।
अब तक हम लोग माथुर साहब की प्रतिक्रियायों के अंदाज से परिचित हो चुके थे इस्लिये श्रिवास्तव जी के आते ही हम समझ गये थे कि वे पहले सुरछात्मक मुद्रा मे आ चुके है । और वही हुआ । एक सूट्केस जिसमे शायद कुछ कीमती सामान होगा उसे किनारे की ओर रखने के श्रिवास्तव जी के प्रयास को माथुर साहब ने सिरे से निरस्त कर दिया ।
’मेरे बैग को हटा कर अप्ना सामान रखने की सोच रहे हैं । यह नही हो पायेगा । ’
सच तो यह था कि वे किसी भी छोटे बड़े परिवर्तन से आशंकित हो उठते थे ।होता है ऐसा अक्सर जिस तरह की जिन्दगी जी होती है हमने , जैसे अनुभव होते है हमारे ,अन्जाने ही हम उनके अनुसार ही व्यवहार करने लग जाते है । ठहरी ,सपाट जिन्दगी काट लेने के बाद आदमी का रद्दो बदल के प्रति आंशकित होना स्वाभाविक ही है ।
हम सब ने मिल कर जगह बनायी और सब कुछ फिर से व्यवस्थित हो गया । गाड़ी चल दी । परिचय ,बातों का सिल्सिला शुरु हो गया । अब माथुर साहब भी फिर से निश्चिन्त थे ।
श्रिवास्तव जी से बोले ,’असल मे उस बैग मे मेरी दवाये है। आपने बुरा तो नही माना । अब चौसठ साल की उम्र हो गयी है । आप क्या समझेगे अभी । ’
बात सुन कर श्रिवास्तव जी और उनका बेटा एक दूसरे को देख कर मुसकराये फिर श्रिवास्तव जी बोले ,’ अरे तो मै कोई लड़का हू। मै भी बासठ साल का हो गया हूं ।’
लेकिन यह सच था कि उम्र का फ़र्क भले ही केवल दो साल का रहा हो , दोनो लोगो के व्यव्क्तित्व और तौर तरीको मे बहुत अन्तर था । बात फ़िर वही आ जाती है घूम फ़िर कर जिन्दगी ने आपको कैसे ट्रीट किया है इसका आपके हर क्रिया कलाप ,आत्म्विश्वास पर बहुत फ़र्क पड़ता है ।
माथुर साहब ने अपनी नौकरी मे दोनो बेटॊ को अच्छी शिक्छा दे दी । बेटे अच्छी नौकरियो मे है । सब साथ मे अच्छी तरह रह रहे है पर उन्होने जो जीवन जिया है और बच्चे जो जिस स्तर पर जी रहे हैं ,उसमे बहुत अन्तर है । बच्चो की उन्नति पर गर्व है खुद भीअब ऐसी कई चीजे देख सुन और भोग रहे है जिसकी शायद कभी सपने मे कल्पना भी ना की होगी । लेकिन इतनी तेजी से आये परिवर्तन से सामंजस्य बिठाना शायद स्वाभाविक तरीके से नही हो पा रहा था ।वो लगता है ना कि जैसे आपको अपने धरातल से उठा कर एक्दम कही हवा मे उछाल दिया गया हो । ऐसा केवल उन्ही के साथ नही हो रहा वरन आज अधिक्तर मधयम्वर्गीय मातापिता जो उम्र के इस दौर मे है ,उनकी ऐसी ही स्थिति है । जीवन स्तर से ले कर तक्नीकी चीजो मे जिस तेजी से विकास हुआ है कि तेजी से दौड़ते हुए हांफ़ रहे है फ़िर भी पीछॆ होने का डर साथ लगा ही रहता है ।
श्रीवास्तव जी इसी उम्र के दूसरे वर्ग का प्रतिनितिध्व कर रहे थे । बेटो से पहले ही उन्होने परिवर्तनो के साथ चलना शुरु कर दिया था और आज भी काम कर रहे है । एक लैपटाप बेटा ले कर चल रहा था तो दूसरा वे स्वयम । जितनी आफ़िसियल काल बेटा अटेन्ड कर रहा था उससे कम उनके सेल पर नहीं आरहीं थी । और इन सबका फ़र्क साफ़ दिख रहा था ।
उम्र और व्यक्तितव के सारे भेदो के बाव्जूद हम लोग काफ़ी अच्छी तरह से घुल्मिल गये । वत्र्मान से ले विगत तक की बातो का सिल्सिला शुरु हो गया । हम सब लोग किसी न किसी की शादी मे शरीक होने जा रहे थे ।
श्रीवास्तव जी की भतीजी की शादी थी । पुणे से लख्नऊ के बीच उनके अन्य रिश्तेदारो को भी इसी गाड़ी मे चढ्ना था । कोपर्गांव मे उनकी छोटी बहन और बह्नोई को आना था । हम लोगो की गाड़ी मे पैन्ट्री कार नही थी ।सुनीता जी यानि श्रिवास्तव जी की छोटी बहन चिकन बना कर लाने वाली थी । बेसब्री से कोपर्गांव का इन्त्जार हो रहा था । गाड़ी लेट हो गयी थी । हम लोग अपना खाना खा चुके थे ,पर सब लोग उनकी प्रतीक्छा कर रहे थे । वे लोग आये । परिचय हुआ । बाते हुई । सुनीता जी के पति ने माथुर साहब से कहा ,’ हम लोगो की वजह से आपको कष्ट हुआ । अभी तक बैठे रहना पड़ा । बड़े हैं आप ।’
माथुर साहब बोले ,’अरे बड़े हम कहां । आप हमारे मान्य है। आप के लिये तो हमे दर्वाजे पर खड़े होना चाहिये था ।’और जोर से एक आत्मीय ठहाका लगाया .
तो अब हम लोग सब एक परिवार के सदस्य थे । श्रीवास्तव जी ने कुशल पारिवारिक मुखिया का पद बखूबी सभाल लिया था । किस स्टेशन पर क्या चीज बढिया मिलाती है , कहां चाय पीना है ,कहां फल खाना है , सब उनके निर्णय पर था और हम सब मिल बांट कर खा ,बतिया रहे थे । रास्ते भर गाने गाए गए । सुनीता जी और स्नेहा की मधुर और सुरीली आवाज , सोनाली की धीमी आवाज मी सुरीची पूर्ण गाने , और इन सब मे श्रीवास्तव जी के साथ साथ माथुर माथुर साहब की भी भागेदारी । बहुत अच्छा लग रहा था । माथुर साहब बहुत सहज और फुर्तीले हो गए थे । शायद पुणे मी आई । टी । कम्पनी के बच्चो के बीच अपने समय के गुजर जाने का एहसास होता होगा । यहाम पुरानी बातो के दौर के बीच अपने होने का भान हो रहा होगा । उन्हें ही क्यो हम लोग भी कैसे मगन थे । श्रीवास्तव जी और सुनीता जी का बचपन भी मेरी तरह कानपुर मे बीता था । बालिका विद्यालय ए बी विद्यालय और जुहारी देवी , मेस्टन रोड की मूम्ग्फली और भी ना जाने कितने पुराने स्थान , रीगल टाकीज की इग्लिश फिल्म्स । खूब सैर हुई अतीत के गलियारों की ।
और फिर लखनऊ आ गया .माथुर साहब का भतीजा उन्हें लेने आ गया था । अपने सामान के साथ ट्राली पर श्रीवास्तव जी ने मेरा सूटकेस रखवाया । उनके बहनोई ने मेरे हाथ से एयरबैग ले लिया और बाहर आ कर पूरी पार्किग मे नंबर देख कर हमे लेने वाली गाड़ी देखी । सच तो यह है कि उन लोगो के बिना हम सच अकेले बहुत परेशान हो जाते । सूटकेस और बैग ले कर अकेले इतनी दूर का चक्कर लगाना संभव नही था । गाड़ी काफी लेट हो गयी थी इसलिए अंधेरा भी हो गया था । हमे गंतव्य की और सुरक्छित रवाना करने के बाद ही वे दोनो अपनी गाड़ी मे बैठे । जब कि उनका वाहन तो शुरू से ही वहा मौजूद था । वे लोग अपने घर के फंकशन के लिए लेट भी हो रहे थे लेकिन वह परिवार हमे अकेला छोड़ कर नही गया
यूं समाप्त हुआ हमारा यह सफर । काश जिन्दगी भी इस सफर की तरह हो पाती । जितनी देर साथ रहो ,मिल जुल कर एक दूसरे का ख्याल अपने से ज्यादा रखते हुए रहो और फिर बिना किसी अपेक्छा के अपने अपने रास्ते .अपेक्छाये जहा होती है वहा शिकायतों का होना लाजमी है । और फिर जिन्दगी इस सफर जितनी छोटी थोड़ी होती है । शायद इसीलिए सारे आध्यात्मिक गुरु कहते है कि जिस पल मे हो बस उसी पल तक अपना ध्यान सीमित रखो ।पल मे जीने से तकलीफे ,तनाव कम होते है ।
अविश्वास और शंकाओं के इस दौर मे विश्वास बनाए रखने की वजह तो थमा ही गया यह सफर.

Saturday, December 8, 2007

्सफ़र-१....

बहुत दिनों बाद अपने से बतियाने बैठे हैं । हां ब्लाग मे लिखने को हम अपने आप से बतियाना ही कहते हैं। ब्लाग ही क्यों जो मह्सूस किया या जिया उसे शब्दों मे ढालने के लिये अपने अन्दर की यात्रा तो करनी ही पड़्ती है। ये दस्तावेज बनाने का मेरा अपना कारण है । हमे लगता है कि अगर कभी जिन्दगी से शिकायत करने का मन करे तो ये सनद रहे कि उसने हमे क्या क्या दिया है । छोटी छोटी खुशियों ,खुश्नुमा पलों ,प्यार दुलार के भावो का खजाना हम सब्के पास होता है, ऐसा मेरा विस्वाश है । हां यह बाद अलग है कि अक्सर हम ऐसी सौगातों को लम्बे समय तक याद नही रख पाते । इसीलिये हम इन्हे जब ,जहां, जैसे जिया के तर्ज पर सहेज कर रखते चलते हैं।

अब इसी बार की पुणे से लखनऊ की यात्रा की बात ले लीजिये । चलिये आपको ले चलने के बहाने हम भी एक बार फिर चलते है उस सफ़र पर । सफ़र कैसा रहा इसका फ़ैसला आप पर छोड़ते हैं।
गाड़ी का छूटने का समय तो तकरीबन सवा चार बजे शाम को होता है पर हम लोग जब साढे तीन पर स्टेशन पहुचे तो गाड़ी प्लेट्फ़ार्म पर लगी थी । गाड़ी शुरु ही इसी स्टेशन से होती है। हम जब अपनी सीट पर पहुचे तो देखा एक नाजुक सी कन्या पहले ही वहां बैठी थी। आपस मे बात्चीत हुई और हम दोनो ने राहत की सांस ली की चलो सफ़र का एक साथी तो ठीक ठाक मिला । सामान व्यव्स्थित कर हम लोग बैठ लिये ।
थोड़ी देर बाद एक छोटा सूट्केस हाथ मे लिये और कांधे पर एक बैग लादे एक सज्जन प्रविश्ट हुए। उम्र यही कोई बासठ तिर्सठ साल रही होगी मगर बेजार कुछ अधिक ही नजर आ रहे थे । सांस धौकनी की तरह चल रही थी । आते ही सूट्केस और बैग खिस्काया बर्थ के नीचे और सीट पर बैठते ही बिना किसी भूमिका के बोले ’देखा इतना जरा सा चलने मे ही सांस फ़ूल गयी । हम लोगो ने पूरी सहान्भूति से सर सह्मति मे हिलाये । अभी हमारे सिर हिलने बंद भी नही हुए थे कि उधर से एक वाक्य उछ्ला ’जब मेरी उम्र के होगे ,तब पता चलेगा ।’ हमारी समझ मे नही आया कि हमने भला कब उनकी उम्र के प्रति बेअन्दाजी की । पता नही उनकी शिकायत अपनी उम्र से थी या हमारी । खैर अभी हम इस धक्के से सभले भी नही थे कि एक सूचना और आयी ’एक बार हार्ट अटैक पड़ चुका है । ’यह शायद हमे चेतावनी थी कि हम उनसे कोई बह्स मुबाहसा ना करे रास्ते भर वर्ना लेने के देने पड़ सकते है । हमने इस सूचना को भी शालीनता से आत्म्सात करते हुए उन्हे आराम से बैठने को कहा । पानी की बोतल ले कर वे थोड़े व्यव्स्थित हो कर बैठे ही थे कि काफ़ी साजो सामान और शोरो गुल के साथ एक युवा दम्पति अपनी सात आठ साल की बिटिया को ले दाखिल हुआ । माथुर साहब पुनः व्यग्र ।
’कौन सा सीट नम्बर है आपका ? अरे इधर कहां सारा सामान रख रहे है? वगैरह वगैरह....
उनकी सारी चिनताओं को अपने हाथ के झटके से एक किनारे करते हुए नव्युवक ने कहा,’हां हां सब ठीक है । ना हमे सीट बांध कर ले जानी है ना आपको ।’
भला माथुर साहब इस अवग्या को चुप्चाप कैसे बर्दास्त करते । उन्होने तुरुप का पत्ता फ़ेका’उस बैग मे मेरी दवाये है । एक बार हार्ट अटैक हो चुका है ।’
इस बार युवक ने थोड़ा रुक कर उन्हे देखा और सारा गुस्सा जींस क्लैड अपनी स्मार्ट सी पत्नी पर उतार दिया ।
’अरे उधर रखो ना सामान ।’
पैसेज के उस तरफ़ की सीट वाले लड़कों से कुछ बात्चीत कर वे लोग उधर खिसक लिये ।
अभी गाड़ी छूटने ने मे काफ़ी समय था पर हम ठीक ठाक रूप से जम गये थे इस्लिये हमने अपने पति से कहा कि अब वे घर को चले । उन्हे भी लगा कि सारे सह्यात्री तो लग्भग आ ही गये हैं इस्लिये चला जा सकता है ।
हम लोगो ने एक दूसरे की ओर हाथ बढाया और विदा के हैंड्शेक के बाद वे नीचे उतर गये ।
अभी वे दो कदम भी नही चले होगे कि माथुर साहब ने फ़र्माया ’ये आपके पति तो थे नही ।’
हम हत्प्रभ। भला ऐसा क्या हुआ कि माथुर साहब हमारे अच्छॆभले बाइस साला पुराने रिश्ते के अस्तितव को बिल्कुल सिरे से नकार रहे है और वह भी पूरे आत्मविश्वास के साथ ।
हमने भी थोड़ा तुर्शी मे आ कर कहा ’क्यों आपको ऐसा कैसे लगा ?
हंमारी नाराजगी से बिल्कुल भी प्रभावित ना होते हुए वे बोले ,’अपने यहां पति पत्नी हाथ तो मिलाते नही हैं ।’
हमने थोड़ा व्यंग करते हुए कहा ’हां ,जिन्हे पन्जा लड़ाने से फ़ुर्सत नही मिलती ,वे भला हाथ कैसे मिलायेगे ।’
लेकिन मेरे व्यंग को बेकार करते हुए माथुर साहब पहली बार हसे और बोले ’मैडम मजाक अचछा कर लेती हैं।’
हमारी दोनो महिला सह्यात्री मुस्करा रही थी । उस बच्ची की मम्मी ने तो कहा ,अरे क्या करे अंकल गाड़ी है ना इसीलिये आंटी ने हाथ ही मिलाया ।
वातावरण सहज और आत्मीय हो चला था कि श्रीवासतव जी अपने बेटॆ बहू के साथ पधारे और कूपे की आठो सीटे भर गयीं । अभी तो गाड़ी प्लेट्फ़ार्म से खिसकी भी नही है ।
बाकी की यात्रा कल।

Thursday, November 15, 2007

यादें...उस आंगन की ...उन लोगों ेकी

आज कल लखनऊ जाने की तैयारी चल रही है । बिट्टू यानी गुड़िया के बेटे की शादी में। हम सब पुष्कर के घर मे होगे लेकिन पुष्कर के बिना । इससे पहले हम सब कान्पुर वाले, रंजना की शादी मे इकठ्ठा हुये थे । कितने साल हो गये ....शायद २४ या २५ साल । तब से अब तक बदलना तो बहुत कुछ था ही । पूरी एक पीढी का फर्क है । कुछ लोग जो तब थे अब नही हैं, कुछ जो तब बड़े थे अब बूढे है ,जो बच्चे थे और कुछ जो तब थे ही नही अब बड़े हो गये है। लेकिन इस सब के बीच कुछ है जो होने चाहिये थे और नही हैं। मुझे लगता है कही न कही यह पुष्कर की आत्मा ,उस्के मन का ही जोर है कि बिट्टू की शादी के कार्यक्रम उसके घर से होगे । सम्बंध बनाने ,उन्हे निभाने के प्रति वह ताउम्र बेहद ईमानदार रहा । जब सब लोग किसी अवसर पर एक साथ होते थे तब उसका उत्साह देखते ही बनता था । उसकी खुशी इतनी जेन्युइन होती थी कि आप उसमे डूबे बिना रहे ही नही सकते थे । कुछ प्रबंध करना हो, खाना खिलाना हो या फिर सबके बीच बैठ हंसना खिल्खिलाना ,हर जगह जैसे एक साथ होताथा वह।
और एक बार फिर हमे बेइन्तहा याद आ रहा है अशोक मार्ग वाला आंगन।कहते हैं ना कि रिश्ता केवल आदमी का आदमी से नही होता है वरन आदमी का जगह से भी होता है। मेरा भी उस आंगन ,दालानो और छत से कुछ ऐसा ही रिश्ता है। न हम उस घर मे न तो पैदा हुए ,न पले बढे । अच्छा ही है कि किसी मिल्कियत ,किसी दावेदारी वाला कोई रिश्ता नही है मेरा ।शायद इसीलिये आज भी उस सड़क से गुजरते हुए हमे वह पुलिया दिखायी देती है जहां छुट्कैया से मेरी पहली मुलाकात हुई थी । पुलिया के बाद का वह कच्चा पतला रास्ता जिस पर बेसब्री से टहलती अम्मा मेरा इन्त्जार करती थी ,जब हम बैंक की ट्रेनिग के दौरान लखनऊ आ कर ठहरते थे । वह बड़ा सा खुला खुला आंगन जिसके एक कोने मे झकाझक सफेद इकलाई की धोती मे भाभी उस उमर मे भी कुछ नकुछ करती होती । हां यूं देखने मे ऐसा लगता कि वे मुंह झुकाये अपने काम मे तन्मय हैं पर घर मे बच्चे से ले कर बड़े तक मन मे भी क्या चल रहा है इसकी उन्हे पूरी खबर रहती थी । वो भी बिना किसी के बताये...जैसे बर्गद का पेड़ जितना पुराना होता जाता है ऊपर ही नही धरती के अन्दर भी उसकी पैंठ उतनी ही गह्राती जाती है।
हमको रसोई घर के बगल का वह छोटा कमरा भी याद है जहां बैठ कर दादा से हमारी बातें होती थी ,अग्येय के ’नदी के द्वीप’से ले कर बच्चन की कविताओं तक। उसके बाद वाला वह लम्बा सा कमरा जिसके दर्वाजे गली पार नन्ही मौसी के आंगन की ओर खुलते थे। उस कमरे मे लेट कर हमने हिन्दी साहित्य की न जाने कितनी अमूल्य क्रितियों को पढा था ।
और नन्ही मौसी के आंगन मे हर्सिंगार का पेड़ .....आज भी जब भी किसी घर मे हम हर्सिंगार देखते है मेरी चेतना मे वह पेड़ छा जाता है। और भी बहुत कुछहै...सामने बाउंड्री मे लगा नीबू का पेड़ , आंगन का कुंआ ,दालान मे खुलते ऊपर वाले कमरे के दर्वाजे ,छत और सब लोग भी । सब याद है हमे. सारे लोग भी । फिर भी लखनऊ मे होते हुए भी हम गये नही न उन लोगो के पास ,न उस जगह के पास । विवेक कहता है जाना चाहिये था पर मन शायद स्वारथी हो गया था । वह उन यादों पर कोई और रंग नही चढाना चाहता था ।
हम आखिरी बार रंजना की शादी मे उस आंगन मे थे । उन दिनो रेखा वाली उम्राव जान के गानो की धूम थी और पुष्कर हर आने वाले से कहता था....इस अन्जुमन मे आपको आना है बार बार, दीवारो दर को गौर से पह्चान लीजिये...’.....पह्चाना क्या हमने तो अपना हिस्सा बना कर रख लिया पर देखो न पुष्कर न वो दीवारो दर रहा न..........

Tuesday, November 13, 2007

याद आती है गुलाबो-सिताबो...

ंअरे, देखो फिर लड़ै लागी ,गुलाबो सिताबो। आओ हो देखो बच्चो फिर शुरु हो गयीं दोनो ।’ ये हांक सुनायी पड़्ती और हम लोग दर्वाजे की तरफ भागते । हाथ में दो कठ्पुतलियां और गले से निकलते गीतों के स्वर। हर तीज त्योहार या यूं भी महीने डेढ महीने के अंत्राल मे कठपुतली वाले दरवाजे पर होते और हम लोग बार बार देखे उस खेल को बार बार सुने उन गीतों को हर बार नये रस से सुनते ,नये उछाह से देखते।
गले मे लटकते रुपहले सुनहले हार ,चटाकीले रंगो की गोटा किनारी लगी चुनरी ,घेर दार लहगा , हाथ भर भर चुड़ियां नाक मे झूलती नथुनी, मांग मे सजा बेंदा , गरज यह कि सोलह सिंगार से लैस ठसके मे रहती थी गुलाबो ।े अरे भाई बड़े बाप की बेटी ठहरी गुमान तो होना ही था । और इधर सिताबो गरीब घर की बेटी पर रूप ऐसा कि पूनो का चांद भी पानी मांगे । इसी रूप पर तो ऐसे लुटे गुलाबो के पति देवता कि सिताबो आ बैठी गुलाबो की छाती पर सौत बन । अब बड़ी ड्योढी की ठसक अलग बात है पर पति तो ठहरा पर्मेश्वर उससे तो जीत ना पाये गुलाबो सो ठनी रहे सिताबो से । सिताबो भी चुप क्यों रहे भला । भाग तो आयी ना वो बाकायदा गाठी जोड़ के आयी है देहरी पर और फिर गुलाबो के पास पैसे की गर्मी तो सिताबो के पास रूप की आंच । जब कोई किसी से ना दबे तो होये रोज खटर पटर और गुलाबो सिताबो का झगड़ा बन गया सबका मनोरंजन।
कुछ ऐसी ही कहानी गीतो मे गायी जाती थी । हमे पूरा तो याद नही है पर कुछ लाइन ऐसी थी

गुलाबो खूब लड़े है
सिताबो खूब लड़े है......
साग लायी पात लायी और लायी चौरैया
दूनौ जने लड़ैं लागीं ,पात लै गा कौआ

गीत के साथ साथ हाथो मे कठ्पुतलियां थिरकती जाती थी । ऐक्शन सारे कठपुतलियों से करवाये जाते थे और भावों की अदायगी होती थी गाने के उतार चढाव से । हम ऐसे डूबे रहते जैसे सब आंखो के सामने सच्मुच घट रहा हो ।उत्तर प्रदेश मे उस समय गुलाबो सिताबो से सब परिचित थे । अब हमे ना पूरा गीत याद है ना कथाक्रम पर उससे मिला आनंद आज भी मन मे घुलता है ।
हमे ऐसा लगता है कि कोई कोई गुलाबो सिताबो की लड़ाई को सास बहु की लड़ाई के रूप मे भी सुनाता था । लेकिन असली मजा था उनके एक दूसरे पर झपटने का और नोक झोक का । हां उनके कपड़े और गहनों का आकर्ष्ण भी कुछ कम नही होता था ।
उस समय इस तरह के खेल तमाशे घर तक आते थे । बंदर का नाच , भालू का नाच । यही मनोरंजन के साधन थे । आज तो जानवारों से इस तरह के काम करवाने पर तरह तरह के आंदोलन छॆडे जाने लगे हैं।वैसे तो अब पहले की तरह ये दिखते भी नही है और अगर कभी कोई दिख भी जाये तो बहुत दयनीय स्थिति मे होता है । लोगो के पास मनोरंजन के नित नये साधन हो जाते है । इतनी तेज दौड़ मे ये बहुत पीछे रह गये है । जहां तक हम याद कर पाते है पहले ना इन जानवरो को खाने की कमी रहती थी ना इस तरह के खेल तमाशा दिखाने वालों के पास । शहरों ंमे रहने पर भी लोगो का गांव घर से ताल्लुक बनाहुआ था शायद इसीलिये अनाज की कमी नही होती थी । लोग खुद भी खा पाते थे और दर्वाजे आये लोगो को भी दे पाते थे ।
ये तमाशे भी लोक कला के अंग थे । बंदर बंदरिया के नाच मे बंदरिया का रूठ कर मायेके चले जाना , बंदर का उसे मनाने जाने के लिये तैयार ना होना, और फिर जाने के लिये राजी होने पर सर पर टोपी पहन ,आईने मे चेहरा देखना.....किसी नाटक के द्रि श्य सा ही होता था । हां पात्र इन्सान ना हो कर जान्वर होते थे बस सूत्र्धार का काम आदमी करता था ।
अब बच्चे जू मे देखने जाते है जानवरों को तब उनमे से कुछ गली मोहल्ले तक आते थे । वे हमारे लिये केवल जान्वर नही रह जाते थे किस्से कहानियों के पात्रो की तरह हमारे अपने हो जाते थे ।
समय के साथ बहुत कुछ बदलता है । कुछ का स्वरूप बद्ल जाता है ,कुछ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है पर कहते है कि समय चक्र है और चक्र् तो गोल गोल घूमता है ।यानि जहां से एक बार गुजरता है घूम कर फिर वहां आता जरूर है । आज कठ्पुतलियो का नाच , हाथी पर च्ढ्ना...बड़े बड़े होटलो ,पार्को,पांच सितारा शादियों का हिस्सा बन रहे है। लोक कलाओं को बढावा देने ,जीवित रखने के तौर तरीको की चर्चाओं से बाजार गर्म है । क्या पता कल को ये गुलाबो सिताबो , ये खेल तमाशे फिर हमारे घर आंगन मे हों .

Thursday, November 8, 2007

दीवाली की शाम का वो खालीपन...

आज छोटी दीवाली की रात है । सोसायटी के कम्पाउंड मे चहल पहल खत्म हो गयी है । बच्चे पटाके छुड़ाने के बाद अपने अपने घर जा चुके हैं । एक एक कर घरों के अन्दर की बत्तियां बंद हो गयी हैं । बाहर लटकी झालरे एकाएक अकेली हो उठी हैं। किसी झालर के बल्ब जल बुझ रहे हैं,किसी के एक्टक देखे जा रहे है, कोई झालर लगातार लप्लपा रही है । गरज यह कि जिसे जो काम सौपा गया है वह उसे किये चला जा रहा है बिना रुके ।कभी कभी दूर छोड़े गये पटाके की ’भड़ाम ’सुनायी देती है ।सन्नाटा थरथरा कर फिर ठहर जाता है ।बल्की उस अवाज के बाद और गहरा हो जाता है । यूं चहल पहल एवं उत्सवी माहौल के इन दिनों मे तो मन उमगा उमगा होना चाहिये य फिर रात के इस प्रहर दिन भर के कार्यक्रमों के बाद ,सन्तुष्टि और अलस भाव से भरा । पर हम पर ये सन्नाटा ये अकेलापन क्यों हावी हो रहा है ।
सच तो यह है कि कल शाम पार्क की एक बेन्च पर किनारे की ओर अकेले बैठे अकंल और हवा मे कुछ देर को ठहरे उनके हाथ हमसे भुलाये नही भूल रहे हैं ।अकंल से हमारा कोई व्यक्तिगत सम्बंध नही है ,लेकिन हम उन्हे तक्रीबन पिछ्ले दो साल से जानते हैं। इस घर मे आने के बाद से अक्सर ही पीछे मन्दिर मे जाना होता है । ऐसा कई बार हुआ है कि अकंल और हम एक ही समय वहां पहुंचे हैं । अकंल तो हमे शयद ही पह्चानते हों। हमे क्या... हमे लगता है कि वे पार्क और मन्दिर मे नियम से उसी समय रोज मौजूद रहने वालों मे से भी शायद ही किसी को पह्चानते होगें ।वे पार्क कुछ देर लोगो के बीच होने की अपनी जरूरत पूरी करने आते है फिर वे लोग कोई भी हो उन्हे कोई फर्क नही पड़ता । लेकिन अकंल को एक बार पार्क मे देख लेने के बाद उन्हे भुलाना मुश्किल है ।
८५ या ८६ वर्ष के आस पास होगे अकंल ।उनके समूचे व्यक्तित्व पर आभिजात्य की छाप है । कपड़े लत्ते आज भी बेहद सलीके और नफासत से पहनते हैं । नही सायास नही ,जैसे पूरी जिन्दगी करते करते वह एक आदत सी बन जाय उस तरह ।वे अपनी गाड़ी मे ड्राइवर के साथ आते हैं । हाथ मे छड़ी रहती है पर ड्राइवर एक्दम सट्कर साथ साथ चलता है । उसकी जरूरत भी है क्यो कि ऊबड़ खाबड़ जमीन पर वे कभी भी लड़खड़ा सकते हैं । एक एक कदम जमा कर बेहद आहिस्ता आहिस्ता चलते है । विगत दो वर्षों मे ही कितना परिवर्तन आ गया है । पहले वे सीढीयां उतर कर नीचे मन्दिर तक आ जाते थे अब ऊपर से ही हाथ जोड़ कर पार्क की ओर मुड़ जाते हैं इतने दिनो मे कभी भी परिवार का कोई सदस्य या मित्र उन्के साथ नही दिखा । बस वे और उनका ड्राइवर ।

गाड़ी से उतरते ही वे मन्दिर के बाहर पेड़ों के चबूतरों पर बैठे वाड़ी गाव के बुजुर्गो से हाथ जोड़ कर नमस्कार करते है । नमस्कार करते समय उनके चेहरे पर मुस्कान जरूर होती है पर उस मुस्कान मे हमेशा एक बेचारगी का भाव रहता है ,जैसे कह रही हो मुझे मालूम है कि हम नाआये तो तुम्हे कोई फर्क नही पड़ेगा पर आप लोग यहां नही होगें तो हमे पड़ेगा । छोटी छोटी कोठरियोंमे पूरे परिवार के साथ रहने वाले उन अन्पढ बूढों के सामने वे जैसे अकिंचन हो उठते है । पार्क ,मन्दिर मे मिलने वाले हर छोटे बड़े को हाथ जोड़ कर नमस्कार करते है। हां पास के गावं के बच्चो को देख कर उन्के चेहरे पर अलग खुशी छा जाती है । हमे लगता है वे बड़ो के सामने अन्दर ही अन्दर कही संकुचित हो उठते है । शायद लगता हो कि ये लोग सोच रहे होगे कि मै अपनी इस अवस्था मे इन्से हाथ जोड़ कर नमस्कार कर रहा हूं । जब इतना बूढा और अकेला नही था तब इस तबके के लोगो से कहां इस तरह जुड़ने की कोशिश करता था ।बच्चो के सामने यह संकोच बिला जाता होगा तभी शायद खुशी इतनी सच्ची लगती है । अक्सर उन्की जेबे बच्चों के लिये टाफी,चाकलेटो से भरी रहती है । कभी कभार बच्चो को अपनी गाड़ी मे बिठा एक आध चक्कर भी लगवा देते है । लेकिन अपने सन्नाटे को ॆ भरने की हर कोशिश वे और अकेले क्यो लगते है ।
कल शाम उनके साथ पार्क के अन्दर उनका ड्राइवर नही आया था । एक महिला थी ऐसे ही नौकरानी जैसी । वह उन्हे पार्क मे ज्यादा दूर नही ले जा पायी । अंकल को भी उसके साथ चलने मे ज्यादा विश्वास नही हो पा रहा था । उसने एक बेन्च पर बैठाल दिया और खुद अपनी अन्य परिचितो के बीच चली गयी । ड्राइवर हमेशा अनंकल के साथ उसी बेन्च पर बैठता था । आज दूर पार्क के सिरे पर लम्बी बेन्च के एक किनारे पर बैठे अंकल बहुत अकेले से लग रहे थे । हम जहां थे वहां से उन्का बैक प्रोफिले दिख रहा था । एक तो इमली के ऊंचे ऊचे पेड़ों से जमीन पर उतरता अंधेरा ,चारो ओर छायी चुप ,उस पर दूर शांत बैठे अंकल कैसी तो उदासी तारी हो रही थी मन मे । तभी अंकल के पास से एक नव्युवक गुजरा । अंकल ने हाथ जोड़ नमस्का र किया उसने भी उत्तर दिया । अकंळ ने हाथ आगे बढाया ,उसने भी बढाया ।उन्होने अपनी दोनो हथेलियो के बीच उसकी हथेली थाम ’हैंड शेक’ किया । हाथ ऊपर नीचे होते रहे । कुछ पल ज्यादा ही । फिर शायद उस नव्युवक ने धीरे से अपना हाथ खीचा । छ्णांष को अंकल दोनो हाथ खाली हवा मे उठे रहे । दोनो हथेलियां एक दूसरे से थोड़े फासले पर । फिर उन्होने हाथ नीचे कर लिये । लेकिन उस चुटकी भर समय का वह फ्रेम मेरी आखो मेरे मन मे जड़ा रह गया ।
बोलने बतियने ही नही स्पर्श के सम्वाद के लिये भी तरस रहे है अंकल । किस किस स्तर पर अकेलापन झेल रहे है । साथ छॊड़ गयी पत्नी , बड़े हो गये बच्चे ,बिछुड़े मित्र ...कौन कौन याद आया होग उनको ।
कुछ ऐसा दर्द दे रहा है उनका अकेलापन कि सोच लिया है इस बार मिलने पर उनके पास बैठ बतियागे । देखे कुछ हो पाता है हमसे कि नही । उनकी नही अब तो यह हमारी जरूरत है ।

Monday, November 5, 2007

कुछ बातें अक्का से...


अक्का ,तमिल मे बड़ी बहन को कहते हैं । मेरे लिये अक्का यानि मेरी ननद , यानि डा सुमति अय्यर । हिन्दी साहित्य के सुधि पाठकों के लिये आज से चौदह साल पहले यह नाम सुपरिचित नाम था । तमिल से हिन्दी मे अनुवाद के लिये शायद दिमाग मे सबसे पहले आने वाला नाम ।कविता ,कहानी , नाटक हर विधा मे अक्का का दखल था । अख्बार, पत्रिकायें , दूर्दर्शन ,सभायें, गोष्ठियाँ ,सब जगह अपनी उपस्थिति दर्ज करायी । और इतनी जल्दी थी हर जगह पहुंचने कि वहां भी चली गयी जहां कम से कम उस समय तक तो वह खुद भी जाने को तैयार नही थी ।
हां, आज से ठीक चौदह साल पहले ,५ नव्म्बर १९९३ को अक्का चली गयी । मेरा मानना है कि हर व्यक्ति अपने नज्दीकी लोगो मे अपना थोड़ा बहुत हिस्सा जरूर इन्वेस्ट करता है । उसके जाने के बाद बचे हुए लोगो मे वह हिस्सा ताउम्र के लिये यही रह जाता है लेकिन साथ ही वह अपने साथ उन सब लोगो का थोड़ा थोड़ा हिस्सा ले भी जाता है । जिन्दगी रुकती नही है पर कही कुछ खाली रहता है । जिग सा पजेल के खोये हुए टुकड़े की छूटी हुइ जगह की तरह ।
जानती हो ना अक्का ,तुम्हारे जाने को हम सब ने अलग अलग ढ्ग से बर्दाश्त किया लेकिन एक बात कामन थी हमने आपस मे तुम्हारे विषय मे अपने दुख , अपने दर्द की बात शायद ही कभी की हो । सच तो यह है कि हम सब तुम्हारा जाना झेल ही इसीलिये पाये कि तब जो सन्ग्याशून्यता छायी थी ,उसे हमने आज तक कुरेदा नही हैं हम एक साथ बैठ कर कभी नही रोये हैं । शायद हमे डर है कि मिल कर दुख बांटने से हम अपने अपने हिस्से की अक्का को खो देगे ।
तुम्हे तो पता ही होगा कि रोये तो हम उस दिन भी नही थे । रोयी अम्मा भी नही थी । एक बूंद आंसू नही टपका था उनकी आंख से । कैसे टपकता जो ज्वालमुखी उनके अन्दर धधक रहा था वह आंसू क्या रक्त तक सोख ले गया । और हम तो तुम्हारे पास बैठे तुमसे ढेरों शिकायते कर रहे थे । आज भी वे सारी शिकायते जिन्दा है ।
याद है ना तुमहे , कान्पुर मे तुम्हारे लाज्पत नगर वाले घर मे साथ बितायी वह रात ,जब हमने ढेर बाते की थी । े । ननद भाभी के सारे गिले शिकवे ,सारी गलतफह्मिया दूर की थी और हमारी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरु हुआ था । हम उस रात लख्नऊ से आ कर इसी लिये तो तुमहारे घर गये थे । पर तब क्या पता था कि ऊपर वाले ने यह नियत कर रखा है कि उस रात के बाद हमारी बाते हो ही नही पाये बस एकालाप ही हो । लेकिन वह रात मेरे अन्दर हमेशा धड़कती रहती है । कितनी बाते की थी हमने । तुम्हारी कहानी के कुछ पात्रो को जब हमने पह्चान लिया था तो तुम कैसे मुस्कायी थी । बोली थी अरे तुम तो उन लोगो से कभी मिली नही हो बस कभी कभार मेरी बातों मे जिक्र सुना है फिर कैसे जाना ?क्या इतना साफ है ? याद है क्या कहा था हमने हम तो तुम्हारी रचनाओ के पुराने पाठक हैं और ऐसे अक्सर हो जाता है कि अगर पाठक अपने लेखक को अच्छी तरह जानने लगे तो उसके दिमाग की उठापटक उसकी समझ मे आने लगती है । और हममे एक शर्त भी लगी थी कि देखे हम तुम्हारे अगले पात्र को पह्चान पाते है कि नही ।पर देखो शर्त हारने काऐसा भी डर क्या कि तुमने कलम ही तोड़ डाली ।
कितनी सारी बाते है जो तुमहे बतानी है । तुमसे कहनी है । तुमने अपने पहले कविता सकंलन की एक कविता मे लिखा है
.......कांच छिटक गया है, टूटॆगा ही.......
..................
यह नही जानती थी
कि बिखरे टुकड़ों में
एक बिम्ब अनेकों मे फैल जायेगा
तुम मेरे समस्त अन्तर्मन मे फैल जाओगे
न भुला पाने की हद तक ।

तुम भी जाने के बाद कितने बिम्बों मे कैद हो । कैक्टस के उन गमलों मे जो कभी तुम्हारे टेरस पर थे और अब मेरे घर मे ,मेरी अल्मारी मे टंगी हैंड्लूम की उन फिरोजी, नीली ,नारंगी चटक रंग की साड़ियों मे जो कभी तुम्हारी सांवली सलोनी काया पर इठलाती थी और जिन्हे हम अक्सर फिर फिर प्रेस कर अल्मारी मे टांग देते है , उन किताबो ंमे जो कभी तुम्हारे रैक मे सजी रहती थी और आज मेरे कमरे मे । जब भी किसी पुस्तक मेले मे किसी स्टाल मे तुम्हारी लिखी या अनूदित पुस्तक दिख जाती है तो हम देर तक वही खड़े रह जाते है ,तुम्हारे वहीं आस पास कहीं होने के एह्सास से भरे .

Friday, November 2, 2007

चबुतरे पर बैठ देखि ्गयि वो फ़िल्मे...

आज अखबार में खबर पढी कि अखिल भारतीय मराठी फ़िल्म संग्ठन ने एक निर्ण्य लिया है कि वे अब मराठी फ़िल्म्स महाराष्ट्र के गांवो मे होने वाले मेलों मे तम्बू टाकीजों में भी दिखाया करेगे । आव्श्यक कार्यवाही शुरु हो गयी है । उस्के बाद उनकी योजना राज्य के बड़े शहरों जैसे पुणे आदि मे भी तम्बू टाकीज शुरू करने की है ।उन्का मानना है कि इससे मराठी फ़िल्मों का प्रचार प्रसार तो होगा ही उनके लाभार्जन मे भी खासी व्रिधी होगी। जरूर होगी । बड़े बड़े होटलों में परम्परागत वेश्भूषा पहने वेटर,बैल्गाड़ी के पहिये , लाल्टेन ॥जब गांव वहां हिट हो रहा है तो तम्बू टाकीज भी हाथों हाथ लपका जायेगा । पर हम यह पोस्ट तम्बू टाकीज की अपेछित लोक्प्रियता या व्यवसायिक लाभ के मद्देनजर नही लिख रहे हैं । तम्बू टाकीज ने हमे फिर कुछ भूला बिसरा याद दिला दिया ।
कुछ ऐसे ही माहौल मे हम अपने बचपन में वेल्फेयर सेन्ट्र के मैदान मे फिल्म्स देखा करते थे । वहां तो सिर के ऊपर तम्बू भी नही होत था । ओपेन एयर थियेटर था । दो लोहे के खम्भे स्थायी रूप से गड़े थे । जिस दिन फ़िल्म दिखायी जाने वाली होती थी ,सफेद पर्दा टांग दिया जाता था । वही पास मे एक ऊंचा चबूतरा था। अमूमन तो यह नाट्को और राम्लीला के मन्च के रूप मे प्रयोग किया जाता था पर जिस दिन फिल्म दिखयी जाती थी यह महिलाओं और बच्चों के बैठने के लिये निर्धारित स्थान था । यूंही जमीन पर बिछी दरी पर बैठ कर फिल्म का आनन्द लिया जाता था । चबूतरे के नीचे जमीन पर बिछी दरी पर बाबा,पिताजी और चाचाजी लोग होते थे । भाई लोग तो अपनी अपनी पसन्द की सुविधानुसार सायिकिल स्टैन्ड पर खड़ी कर ,उस पर टिक लिया करते थे । वैसे भी मोहल्ले की सारी लड़्कियों के सामने जमीन पर बैठ्ते अच्छे दिखते क्या वो लोग । हां एक बात और उस दिन सभी भाई लोगो को अपनी अम्मा ,बड़ीऔर छॊटी बहनो पर बड़ा प्यार उमड़्ता था । कभी मूंग्फली , कभी पानी पूछने के लिये चबूतरे के चक्कर लगा करते थे ।
फिल्म जिस दिन दिखायी जानी होती थी दोपहर को वेल्फेयर सेन्टर के नोटिस बोर्ड पर चाक से सूचना लिख दी जाती थी और फिर एक से दूसरे तक सूचना पूरी कोलोनी मे फैल जाती थी । खाना पीना जल्दी निप्टाने की तैयारी होने लगती थी । लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता था कि सूच्ना समय से सब तक पहुंच नही पाती थी । एक बार ऐसा ही हम लोगो के साथ हुआ । हम शायद तीसरी या चौथी क्लास मे पढते होगे । हमे मैदान मे खेलते समय पता लगा कि आज फिल्म दिखायी जानी है और बस शुरू ही होने वाली है । हम गिरते पड़ते घर पहुंचे अपनी बड़ी बहनों को खबर देने ।हमारी दोनो बहने हमसे करीब नौ दस साल बड़ी हैं । पहले से तैयारी नही थी इस्लिये खाना निपटा नही था । गैस तो थी नही कि स्विच बंद किया और उठ लिये । अंगीठी अगर एक बार सुलग गयी तो खाने का काम तो निपटाना ही था । उन लोगो ने कहा तुम चल कर देखो हम लोग आते हैं । हम भाग लिये । पर्दा तन गया प्रोजेक्टर सेट हो गया । हम बार बार पीछे मुड़ कर देखे पर हमारी बहनो का कही अता पता नही । फिल्म शुरु हो गयी । अब मेरा धीरज छूट गया । परदा अपनी तरफ खींच रहा था और मन घर की ओर भाग रहा था । मेरी बहने देख नही पारही हैं यह सोच कर मेरा मन नही लग रहा था । हम एक बार फिर सर्पट घर की ओर दौड़े । उन्होने फिर भेजा वापस कि देखो बस काम खतम ,आ हीरहे है । हम वापस सेन्टर । कुछ देर और हम फिर बेचैन और फिर भागे घर की ओर । इस बार वो लोग घर के दर्वाजे पर ही मिल गयी। इस सब भागा दौड़ी मे तक्रीबन बीस मिनट निकल गये । पर हम बहुत खुश थे कि अब बाकी फिल्म हम साथ साथ देखेगे । लेकिन जब हम वहां पहुचे तो देखते है कि लोग उठने कि तैयारी मे हैं। उस दिन केवल न्युज्रील दिखायी जानी थी । मेरे दुख की कोई सीमा ना थी । मेरा रोना किस्के लिये था । खुद अपनी फिल्म छूट जाने के लिये । अप्नी बहनो के वन्चित रह जाने के लिये या फिर अप्ने प्रयासो के निश्फल हो जाने पर । यह हमे ना उस समय पता था ना आज है पर्वह बच्ची आज भी हमारे अन्दर जिन्दा है ।

Tuesday, October 30, 2007

वो सर्दियों का आना

आज बाहर धूप नही है । मौसम बदल रहा है ।सर्दियों का मौसम बस आया ही समझो । यहा पुणे मे तो उतनी ठंड नही पड़्ती पर फिर भी मौसम के बदलते मिजाज का अह्सास तो हो ही जाता है । बचपन मे सर्दियों के मौसम का मतलब था खूब करारी भुनी मूंग्फली ,लैया पट्टी,रजाई मे घर के अन्दर एक और घर । बाबू मेस्टन रोड से बड़ी बड़ी मूंग्फली लाते थे ,एक साथ खूब सारी ।पूरी सर्दियों का इन्त्ज़ाम होता था ।कन्स्तर मे भर कर रखी जाती थी मूंग्फलिया। अम्मा सिल-बट्टे पर धनिया का नमक पीसती थी । रोज़ रात को रेडियो पर ’हवामहल’के प्रसारण् के समय यानि रात के सवा नौ बजे मूंग्फली खायी जाती थी ।
इस मूंग्फली खाने वाली बात से हमे सिहारी याद आ गया । सिहारी यानि राम्विनोद मिश्रा । सिहारी बाबू से इंग्लिश ग्रामर पढ्ने आता था ।सिहारी अब नही है पर उन दिनो की कितनी सारी बाते है जो हमे याद आ रही है । सिहारी के आने का समय हमेशा हवामहल वाला होता था और जिस दिन वह बाबू को अपने उत्तरों से संतुष्ट नही कर पाता था उस दिन बाबू जरूर डांट्ते थे ,’हियां हवामहल सुनै और गपिआवैं आवत हो कि पढैं’।जिस दिन पढाई ज्यादा हो जाती थी उस दिन सिहारी इशारों से पूछ्ता था अम्मा को काम खत्म कर मूंग्फली ले कर आने मे कितनी देर है ।
सुनने मे लग रहा होगा कि ये कितनी साधारण बातें हैं पर उन दिनो हम लोग हर छोटी छोटी बात का लुत्फ उठाना जानते थे । हमारे पास चीजें बहुत कम होती थी पर बोर शब्द हमारे कोष में नही होता था ।
बात सर्दियों की शुरुआत की हो रही थी और हम कहां निकल गये । ऐसा ही होता है मन के साथ । अगर ’राह पकड़ एक चला चले तो मधुशाला ’पाही जाये पर ऐसा करना आसान कहां होता है ।
लेकिन बात अगर सर्दियों के शुरु होने की है तो हमे चन्दन मित्रा का वह लेख जरूर याद आता है जिसमे रजाइयों के बक्से खुलने से ले कर नींबू के अचार रखने की तैयारी का इतना सटीक और भव्नात्मक वर्ण्न है कि मन अपनेआप सर्पट जा अतीत के गलियारों ंमे रुके ।
लेकिन अब मेरा आज मे वापस आना जरूरी हो गया है । चले रसोई की ओर ,बालक के स्कूल से लौटने का समय पास आ रहा है।फिर मिलेगें
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Friday, October 26, 2007

कोजागिरी ्पुर्णिमा

२६ अक्टूबर २००७ - आज सबेरे करीब चार बजे आंख खुल गयी । खिड़की के पास गये तो लगा कि आज सोसायिटी के कम्पाउन्ड मे कुछ ज्यादा उजाला है । पार्किंग की लाइट्स तो रोज जलती हैं पर आज रौशनी मे कुछ और बात है । अचानक याद आया कि रात पेपर मे कोजागिरि पूर्णिमा ’ के विष्य मे खबर पढी थी कि आज रात यानि २५ और २६ के बीच वाली रात का चांद वर्ष का सब्से बडा और चमक्दार चांद होगा । अरे ,आज तो शरद की पूनो थी । क्या इसी को महारषट्रा मे कोजागिरि पूर्णिमा कहते हैं ।हमने सोचा यह पड़्ताल बाद में करेगे पहले चले जरा चांद देख आये।
पीछे सोमेश्वर्वाड़ी के पांडुरंग मन्दिर से कीरतन की आवाज आ रही थी । हम भी मन्दिर की ओर की सड़क पर मुड़ लिये । सड़क पर दूर तक सन्नाटा था ।अंधेरा तो छटा नही था अब तक पर साम्ने सड़क पर दूर तक चांदनी बिछी हुई थी ।किनारे खड़े लाइट पोस्ट भी अप्ना योग्दान देने की कोशिश कर रहे थे ।किसी झोपड़ी के बाहर ब्वाय्लर सुलग रहा था ।उसके पाइप से निकलता धुआ इठ्लाता हुआ सड़्क पार कर पे ड़ों की फुन्गियों पर फूलो के गुच्छों सा खिला था ।सीधी सड़क के अंत मे शिव मन्दिर के पार चां द पीपल की डाल पर हिंडोला झूल रहा था । सच कित्ना बड़ा चांद ,दोनो हाथो संभाला न जाये इतना बड़ा और चमक्दार कितना .... चांद य़ूं तो नीली धुंध के पार चम्कता लगता है पर आज जैसे झल्मल कर रहा था ।इत्ना पास लग रहा र्हा था कि हाथ बढाओ तो झप्प से कूद आयेगा । अब तक हम मंदिर के बिल्कुल पास पहुंच गये थे । उधर पांडुरंग मन्दिर मे कार्यक्रम खतम हो गया था और लोग शिव मंदिर की ओर आ रहे थे । हमने पूछा आज इतनी जल्दी भजन कीरतन क्यों ? कुछ विषेश क्या?
हमे पता चला कोजागिरि पूर्णिमा मूलतःखरीफ की फसल के खेत से कट घर आ जाने का त्योहार है । इस दिन सारी रात जग कर धन धान्य की देवी लक्छ्मी का आह्वान एवं प्रतीक्छा की जाती है ।रात भर जगते रहे इस्लिये लोग एक जगह एक्त्र हो भजन-कीर्तन,गाना -बजाना,अन्त्याक्छरी,खेल ,तमाशा,आदि करते हैं। हमे याद आया कि हमारी अम्मा भी बताती हैं कि वे जब छोटी थी तो शरद पूर्णिमा की रात गांव मे टोला मोहल्ला की औरते इक्ठ्ठा हो खेल खेलती थी , स्वांग रचाये जाते थे । पर उत्तर प्रदेश मे क्या अब भी ऐसा होता है ? हमारा बचपन तो यू पी के शहरो मे बीता है । हमे तो शरद पूर्णिमा की बस इत्ती याद है कि जब हम छोटॆ थे तो अम्मा खीर बना कर बर्तन के मुह पर कपड़ा बांध आंगन की चांदनी मे रख देती थी ।कहती थी इस रात चांद से अम्र्त बरसता है ।खीर मे अम्र्त मिला हमे खिलाती थी ...शायद भग्वान से परिवार जनो की लम्बी उम्र की दुआ की जाती होगी इस तरह ।
लेकिन पुणे जैसे आधुनिक अवम विक्सित शहर मे आज भी इस त्योहार का इत्ने परम्परागत ढंग से मनाया जाता देख मन जुड़ा गया । नव्रात्री मे देवी नौ दिन महिषासुर से युद्ध कर विश्राम की अवस्था मे चली जाती है। कोजागिरि पूर्णिमा की रात उन्हे जगाया जाता है और घर मे प्रविश्ट होने का आह्वान किया जाता है ।ऐसी मान्य्ता है ।काजोगिरि का मत्लब कौन जग रहा है । अस्विन माह मे चौधवे दिन पड़्ती है यह। इस दिन लोग उप्वास भी रख्ते हैं ,मात्र पेय पदार्थो का सेवन करते हैं जैसे नारियल पानी , दूध आदि । पुणे नगर महापालिका द्वारा सन्चालित दो बड़े उद्यान इस पूर्णिमा की रात खुले रहे ताकि लोग बाग अप्ने दड़्बों से बाहर आ प्रक्रिति के सानिध्य मे चांद के इस चम्त्क्रित करते रूप का पूर्ण आनन्द ले सकें । चांदनी मे सराबोर हो सके ।अनुकर्णीय है ना उन्का यह कदम ।
बन्गाल मे भी शरद पूर्णिमा के दिन लक्छ्मी की पूजा होती है । देवी के छोटॆ छोटे पैर बनाये जाते है घर के दर्वाजे से अन्दर तक । देवी का प्रवेश हेतु आह्वान ।
हम रात भर तो नही जागे इस कोजागिरि पूर्णिमा पर लेकिन चांदनी मे जरूर भीग लिये । देवी के इस प्रभास से मन की तिजोरी भर गयी वरड्स्वर्थ के डैफोडिल की तरह ।जैसी क्रिपा देेवी की हम पर हुई भग्वान करे सब पर होये ।

Thursday, October 11, 2007

त्वीटी की जिन्दगी ...


श्वेता के घर में कार पार्किंग के शेड को थामे लोहे के पतले से खंभे पर एक बुलबुल अपना घोसला बना रही थी .जब उसने तिनके ला कर रखने शुरू किये तभी हम लोग सोचते थे कि घर के बाहर इतनी सारी और भी जगहें हैं ,जहाँ छाया भी है और तेज हवा से भी बचाव है फिर वह ऎसी जगह क्यों घोसला बना रही है जहाँ उसका सधना भी मुश्किल लग रहा है .पर सच पूछो तो हम इस मुद्दे पर राय भी व्यक्त करने वाले होते कौन है .वह मकान नही घर बना रही थी .हम लोग तो मकान बनवाते हैं और फिर उसे घर बनाने में ताउम्र मशक्कत करते रहते हैं .कभी इधर से सीवन उघरती है कभी उधर से .प्रयास ही जारी रह जाय तो हम मान लेते हैं कि घर बनाने में सफ़ल हो गए .पर ये चिड़यायें तो अपने घर को बनाती भी खुद हैं और बसाती तो हैं हीं ।
हाँ तो हम बात बुलबुल की कर रहे थे । हमारे देखते देखते उसका घर बन कर तैयार हो गया .बिल्कुल गोल कटोरी जैसा छोटा सा घोसला ,उस आरे गोल खंभे पर रखा भर था जैसे .हम सच में हैरान थे कि यह टिका कैसे है .खंभे के नीचे से जाती कोई तिनके या रस्सीनुमा चीज हमे नज़र ही नही आती थी पर साहब घोसला तो अपनी जगह बिल्कुल फिक्ष् था जैसे फेविकोल से चिपका हो .जब हमारी सारी चिंतायों को बेबुनियाद साबित करते हुये घोसला जस का तस् रहा तो हम उसके आकार को ले कर उधेड़बुन में पद गए .इतना छोटा घोसला ? क्या बुलबुल के मिजाज और चिड़ियों से अलग होते हैं ?इस घोसले में तो बमुश्किल एक ही बच्चा आ पायेगा शायद .गरज यह कि बुलबुल तो दीं दुनिया से बेखबर अपना काम किये जा रही थी और हम बेगानी शादी में अब्दुल्ला हुए जा रहे थे ।
खैर कुछ दिन बाद घोसला आबाद हो गया आवाजे आनी तो शुरू नही हुई मगर ममी -पापा की घर आव जाही बढ़ गयी थी .हम भी जब फुरसत में होते तो बडे प्यार से उनकी गतिविधियां देखा करते .हमे उनकी भाषा तो समझ में नही आती मगर चोंच में कुछ दबाये उनकी भागा दौदी देख बड़ा लाड आता .हमे लगता आदमी हो या जानवर या फि नन्ही सी चिड़िया ममता का श्रोत सबके सीने में एक सा ही होता है और फिर अचानक सब उलट पुलट गया ।
उस दिन ऑफिस से लौटते ही श्वेता का फोन आया ,'न्म्मो ,बुलबुल का एक बच्चा नीचे गिर गया है .'उसकी आवाज में चीख की गूँज थी और हम आम बुजुर्गों की तरह बुलबुल के फूहडपन पर बरस रहे थे .पहले ही लग रहा था कि इतने छोटे से घोसले बच्चे कैसे समां पाएगे .इतने ऊपर से गिरा है .एक या दो दिन का होगा .कितनी चोट लगी होगी .बच थोड़े ही पायेगा बिचारा .बुलबुल दम्पति का कहीँ पता नही था .घोसले में बिल्कुल सन्नाटा था । हम लोगों ने यह तो सुन रखा था कि चिड़िया के बच्चे को यदि आदमी का हाँथ लग जाय तो वे उसे फिर स्वीकार नही करती हैं .एक स्टूल बाहर निकाला गया .मनु ,सुंदर को बुला कर लाया और फिर बेहत एहतियात के साथ सुन्दर ने उसे कागज़ में चध्या (बिना हाथ लगाए)और वापस घोसले में रख दिया .हम निश्चिंत थे कि हमने बच्चे को सही जगह पहुचा दिया है .बुलबुल दम्पती जब वापस आएगा तो बच्चे को पा कर खुश होयेगा .यदि अभी तक उसकी अनुपस्थिति पता ही नही चली होगी तो भी अपने तरीक़े से बच्चे कुछ तो बताएँगे .यही सब सोच कर हम लोग अपने अपने कामो में लग गए ।
पर अगली सुबह बच्चा फिर जमीन पर था .हम हतप्रभ थे .दुबारा तो इतनी जल्दी फिर वैसी ही दुर्घटना तो नही हो सकती .फिर क्या बुलबुल ने बच्चे को अपनाने से इनकार कर दिया .मगर क्यों ?यह तो नन्हा सा बच्चा है जवान हुई लड़की तो नही कि अनजानो के हाथ लग गए तो दरवाजे हमेशा के लिए बंद .जीतेजी ही मरा समझ लिया .फिर हमने तो सच हाथ ना लगे इसके लिए कितने जतन किये थे .सुन्दर ने कहा कि हमने कहीं सूना या पड़ा है कि चिदियाँ अपने उन्ही बच्चों को दाना देती हैं जिनके बचने की उन्हें उमीद होती है .जो सबसे कमजोर बच्चा होता है वह वैसे भी सबसे पीछे रह जाता है और माँ के मुँह से दाना नही ले पाटा .ठीक है बच्चे तो सब एक जैसे नहीं होते पर माँ का कलेजा तो अपने सबसे कमजोर बच्चे के लिए सबसे ज्यादा उमड़ता है .ऐसे कैसे बिना दाना पानी के मरने के लिए छोड़ सकती है .हमे मालूम नही कि बुलबुल ने ऐसा क्यों किया .पर हम सब बहुत दुखी थे .और वह बच्चा दो दो बार उतनी उचायी से गिराने के बाद भी साँसे ले रहा था ।
अब हमने वही किया जो कर सकते थे .छोटी सी एक दलिया में पत्ते ,घास रख कर उसका घर बनाया गया .द्रोप्पेर से उसके मुहं में दूध की बूंदे तप्कानी शुरू की गयीं .बच्चे की आँखें नही खुली थी पर चोंच अछे से खोल ले रहा था .एक दो बार दूध की बूंदे अन्दर गयीं तो मुहं के पास द्रोप्पेर के स्पर्श से ही मुहं उठा कर चोच खोल देता था .श्वेता का छ वर्षीय बेटा मनु सारे क्रिया कलापों में पूरे जुडाव से भाग ले रहा था । रात को भी उठ उठ कर देखा गया कि उसकी साँसे चल रही हैं या नहीं /
जब एक दिन और एक रात पार हो गयी तो हम लोगों के मन में आशा उपजने लगी .लगा शायद यह बच जाएगा । मनु और हमने उसका नामकरण भी कर दिया -त्वीटी .हम लोगों ने यह भी सोचा कि हरसिंगार के पेड पर इसे बडे होने पर रखा जाएगा .इन्तजार होने लगा कि उसकी आंखें कब खुलेगी ।
दूसरा दिन शुरू हुआ उस दिन हम उसे दलीय सहित धुप में ले गए .हमने सोचा इसे तो बाहर की हवा की आदत है .सच मानिए बाहर जाते ही जैसे उसके शरीर में नयी जान आ गयी .उसने चेहरा ऊपर उठा कर चारों ओर घुमाना शुरू किया .क्या महसूस कर रहा होगा ?अपने असली घर की निकटता का अंदाजा लग गया होगा क्या उसे .पता नहीं कहाँ से बुलबुल दम्पती को पता चल गया और वे भी आ कर शोर मचाने लगा .उनकी आवाज सुन कर बच्चे ने जितनी उसके शरीर में जान थी उतनी हरकत की .पता नहीं क्या कहना सुनना चल रहा था .पर ऐसा लग रहा था कि मेरे हाथ की दलिया में बच्चे को देख कर उसके माता पिता कुछ खास खुश नहीं थे .थोड़ी देर बाद बुलबुल तो उड़ गए और बच्चा दलीय में रखी दाल पर सर रख कर जैसे सो गया .हमे लगा उसने दूध तो पी ही लिया है अब बाहर की हवा खा कर ,अपने ममी पापा की आवाज सुन कर निश्चिंत हो सो रहा है .पर उसी रात हमारे त्वीटी ने आंखें सदा के लिए बंद कर ली .बंद क्या कर ली उसने तो आंख खोली ही नही ।
हम लोगों ने सबेरे बगीचे में उसकी समाधी बना दी .फूल भी चढ़ाये गए .हम और मनु सीढियों पर चुपचाप बैठे थे .अचानक मनु ने कहा ,'नानी ,नाना कह रहे थे कि जब चिदियाँ अपने बच्चे को दाना नही खिला पाती है तो मरने के लिए छोड़ देती है .''हाँ शायद ' क्यों क्या उसके बच्चे कोई खरीदता नही है क्या ?हम सन्नाटे में थे .अखबारों की कई पुरानी हेअद्लिनेस और उन पर हुई हम लोगों की चर्चाएँ मेरे जेहन में घूम रही थी .

Monday, October 8, 2007

डाकिया डाक लाया ..


अपने पोस्ट पर अंशु की कमेंट्स मिली .जब यह ब्लोग शुरू किया था तो मन में कही यह था कि उस समय और स्थान से जुडे लोग भी अपनी यादो को शेयर करें .अंशु ने उस समय के कुछ और लोगों की बात की जो हमारी जिन्दगी का एक अटूट हिस्सा हुआ करते थे तब .उनमे से एक हैं हम लोगों के पंडितजी यानी हमारी कॉलोनी के पोस्टमैन .पंडितजी हमारे घरों में केवल चिट्ठी फ़ेंक कर नही चले जाते थे बल्कि पते की लिखावट से अक्सर जान जाते थे कि चिट्ठी कहॉ से आयी है .अब सोचो तो कितनी आश्चर्यजनक बात लगती है कि कॉलोनी में कितने सारे घर थे और हर घर में कितनी जगहों से चिट्ठी आती थी .कैसे याद रखते होंगे पंडितजी इतनी सारी हन्द्व्रितिंग .पर कहते हैं ना कि the more involved you are with your work ,the more efficient you will be .हमारे पंडितजी तो काम के साथ साथ लोगों से भी involved रहते थे तो फिर भला कैसे ना होते वे extra efficient।
पंडितजी की आवाज़ आयी नही कि आगे आने वाले घरों में उनका इंतज़ार शुरू हो जाता था .आवाज़ आयी नौ नंबर (हाँ यही नंबर हुआ करता था कॉलोनी में हमारे घर का ).उस दिन चिट्ठी नौ नंबर की थी इस लिए साइकिल हमारे घर के सामने रुकी लेकिन अगर पड़ोस वाली चाचीजी बाहर काम करती दिख गयीं तो एक सवाल उधर की ओर उछला 'और बडके भैया के यहाँ सब ठीक है ना '.कल पंडितजी आसाम में posted सपन दादा का पत्र दे कर गए थे चाचीजी को ।
दूसरे शहरों के ही संदेश केवल नही पहुँचाते थे पंडितजी हम लोगों तक .'पंडितजी आप पुराने सेंटर की ओर हो आये हैं क्या '। 'नाही अबे जैबे बिटिया .काहे कौनो काम रहए का .''हाँ पंडितजी ,वो १२१ ब्लॉक में टंडन जी की बिटिया नीरु को यह किताब दे दीजियेगा .'इसी तरह की सेवायें कॉलोनी की सभी लड़कियाँ पंडितजी से ले लिया करती थी .और ये सेवायें थी भी exclusive for girls .लड़कियों को पैदल कम चलना पडे ,उनका बाहर निकलना बच जाये ,पंडितजी के ये कुछ अपने कारण हो सकते हैं .पर यह सच है कि इस वजह से हम लड़कियाँ खुद को कुछ खास महसूस करते थे .पता नहीं आज के बच्चे इस बात को समझ पायेंगे या नहीं पर उस समय बहुत से घरों की लड़कियों को पंडितजी का यह काम एक अलग तरह की ख़ुशी देता था .कोई तो था जो कोई काम केवल उनके लिए करता था .कहीँ तो उन्हें अपने भाइयों से ज्यादा तवज्जो मिलाती थी .वो भी बुजुर्ग पंडितजी द्वारा ,जिनकी इज़्ज़त हर घर में होती थी .यूं शायद यह बहुत छोटी बात लगे पर जब अपना वजूद हर घडी दांव पर लगा अनुभव हो तो ये छोटे दिखने वाले काम और बाते ही तो आसमान की ओर खुलती खिडकी से नज़र आते हैं ।
इतना ही नही ,कॉलोनी के किसी भी घर के किसी भी दुखद समाचार की खबर वे बिना किसी के कहे कॉलोनी में उसके आत्मीय स्वजनों तक पहुचा देते थे ,फिर भला उसके लिए उन्हें कितना भी लम्बा चक्कर क्यों ना लगाना पडे या फिर से उसी ओर जाना पडे जहाँ से वे आ रहे होते थे । यह उनकी सरकारी ड्यूटी का हिस्सा तो था नही पर इसे भी वे उतनी ही गंभीरता ओर जिम्मेदारी से निभाते थे .मौसम के तेवर कितने भी बिगाड हुए क्यों ना हो पंडितजी बिना किसी रुकावट के अपना काम करते थे और वह भी अपनी चिर परिचित मुस्कराहट के साथ .ना उनके चेहरे पर कभी परेशानी झलकती थी ना उनकी आवाज़ में शिथिलता .जेठ का प्रचंड ताप हो ,मूसलाधार बारिश या फिर कडाके की सरदी पंडितजी की उपस्थिति हमारी दिनचर्या का अंग थी जैसे .घर गृहस्थी वाले आदमी थे ,रोज़ पास के गाँव से साइकिल चलाते हुए आते थे .परेशानियाँ ,झंझटें ,तो उनकी ज़िंदगी में भी आती ही रही होगीं पर उसका प्रभाव वे अपने काम और जिम्मेदारी पर नही पडने देते थे .और जिम्मेदारियां भी कैसी ,जिसमें से बहुत सारी तो उन्होने खुद ओढ़ रखी थी .हमारी कॉलोनी में पंडितजी की पोस्टिंग काफी लंबे समय तक रही थी .हमारी किशोरावस्था से हमारी शादी तक । इतने लंबे समय में मेरी याद में वे केवल एक बार छुट्टी गए थे .अपनी बिटिया की शादी के समय ।
हमारी बड़ी बहन जब शादी के बाद त्रिवेंद्रम चली गयीं थी तो पूरे घर को उनकी चिट्ठी का इन्तजार रहता था .हमारी अम्मा की बेचैनी और उत्कंठा का पंडितजी को पूरा पूरा अंदाजा रहता था .जिस बार जिज्जी की चिट्ठी ज़रा देर से आती थी ,वे अपना नियमित रास्ता छोड़ कर पहले चिट्ठी हमारे यहाँ पहुचाने आते थे भले ही उसके लिए उन्हें उल्टा चक्कर क्यों ना लगाना पडे .अम्मा के मन को दो घंटे पहले निश्चिन्तता पहुचाना ज्यादा मायने रखता था .बात केवल ससुराल गयी बिटिया की अम्मा के मन पडने की ही नही थी .पंडितजी को सबके मन में होने वाली उठा पटक का अंदाज़ा रहता था .किस बहु को मायके में होने वाली शादी के कार्ड का इन्तजार है ,किस लडके के लिए नौकरी का appointment लैटर जीवन मरण का प्रशन बना हुआ है ,किस बहु का moneyorder या चिट्ठी उसकी सास के हाथ में देने में कोई हर्ज़ नही है और किसके लिए मौका तलाशना है .पंडितजी की पकड़ हर नब्ज़ पर बिल्कुल सही थी ।
कॉलोनी में बडे हुए हर बच्चे की ज़िंदगी के हर महत्वपूर्ण पड़ाव में पंडितजी की साझेदारी थी .वे केवल आने वाली चिट्ठी ही नही पहुचाते थे वरन इन्तजार की जा रही चिट्ठी के ना आने की भी खबर दे जाते थे .'आजव नही आयी बिटिया/भैया 'कहते समय पंडितजी की आवाज़ में इतनी लाचारी होती थी कि चिट्ठी का इन्तजार करने वाला अपनी बेचैनी छुपाने लगता था .ऐसा लगता था कि वे चिट्ठी ला कर हाथ में नही रख पा रहे हैं तो जैसे चूक उनसे ही हो रही है ।
अपनी ड्यूटी के प्रती इतना गम्भीर होने का यह मतलब बिल्कुल नही था कि पंडितजी को हँसना चिढ़ाना नही आता था .और भी रस थे उनमे.पंडितजी पर यह पोस्ट हमारे romance में उनकी अहम भूमिका के जिक्र के बिना तो पूरा हो ही नही सकता .वो पंडितजी और हमारे कॉलोनी में आखिरी दिन थे .उनकी सेवानिवृति का समय पास आ रहा था और हमारे अम्मा बाबु की देहरी छोड़ने का .सुन्दर उन दिनों दिल्ली में थे .ई connectivity और ई मेल ,chat के जमाने वाले लोग समझ ही नही सकते कि चिट्ठी लिखने और उसके इन्तजार का मज़ा क्या होता है .क्या होती है धड़क्नो की रफ्तार हाथ में पकडे लिफाफे के खुलने से पहले .पर हमारे पंडित जी को सब पता था .हमने तो उस जमाने में भी दिल्ली और कानपूर की दूरी को बालिश्त भर का कर दिया था .और उसमे पंडितजी ने हमारा पूरा साथ दिया था .कभी कभी सबेरे नौ बजे ही गेट पर आवाज़ आती ,बिटिया लेव ,दिल्ली वाली चिट्ठी रहे ,तो हम कहे सबेरे पहुँचा देयी .तुम्हारे बैंक जाये से पहिले .और फिर साइकिल में चढ़ते चढ़ते अम्मा की ओर देख कर हस्नते हुए कहते ,'और का अब दिन भर चैन तो पड़ जई ।' यही नही एक दिन में आने वाली दो दो चिट्ठियों को भी वे सुबह शाम दोनो समय उतनी ही मुस्तैदी से पहुँचा जाते थे .पर हमे यह बताना भी नही भूलते थे कि यह वे मेरी मनोदशा के मद्देनज़र कर रहे है
तो ऐसे थे हमारे पंडितजी .हमारे दुःख सुख ,उतार चदाव में हमारे साथ .हमे तो ऐसा लगता है कि भगवान ने उन्हें डाकिया बनाने के हिसाब से ही बनाया था .he was cut for that job .

Tuesday, October 2, 2007

फुलवा माली


माली का नाम -फुलवा .सुनते ही मजा आता है ना । हमें भी आया था जब हमने पहली बार सुना था .पर फुलवा माली की इस नाम से जुडी जो कहानी हम कहने जा रहे हैं ,उसका दर्द हमने उस समय कहीँ महसूस तो किया था पर पूरी तरह समझे तो अब हैं ।
सफ़ेद धोती ,बंडी नुमा कुरता और कंधे पर अंगोछा ,कुछ ग्ठा बदन ,छोटा क़द ,और एक निस्छ्ल हँसी -ये थे हमारी कॉलोनी के वेलफेयर सेंटर के माली । जब हम बच्चे थे तो इस सेंटर का जो रूप रंग ,जो गतीविधिया थी ,उसकी नए आये लोग कल्पना भी नहीं कर सकते .खैर उस पर बात फिर कभी .अभी तो अपने माली काका पर वापस चलते हैं .सेंटर में उस समय पूर्ण रूप विक्सित बागीचा हुआ करता था ,सामने कीओर .बागीचा यानी लोँन .इसी बागीचे में काम करते हमे माली काका दीखायी पड़ते थे .खुरपी से कभी घास साफ करते ,कभी पौधे सवार्ते ,वे हमें बागीचे का एक हिस्सा ही लगते थे जैसे .हमने उन्हें कभी बागीचे से अलग और बगीचे को उनके बिना देखा ही नही था .और एक दिन माली काका बागीचे में नही थे .यूं तो शायद मेरा ध्यान इस बात पर नही जाता पर उस दिन किसी कारण वश हम सामने की सीढ़ीयों में अकेले बैठे थे .शायद अम्मा की सिलायी क्लास छूटने का इंतज़ार कर रहे होंगे और कोई साथी सगाथी नही होगा .हाँ तो अचानक हमें लगा कि बगीचे में कुछ मिसिग है .फिर ध्यान गया की माली काका नहीं हैं .एक छोटा सा अचरज का भाव उगा -अरे हाँ सच माली काका बागीचे से अलग कोई चीज हैं .हमने पहली बार माली काका का नोटिस लिया .अब रोज आते जाते हम बागीचे में देखते । कभी कभी पौधों को पानी डालते कोई एक अपरचित व्यक्ति दिख जाता .और करीब द्स बारह दिन बाद अचानक एक दिन माली काका बागीचे में थे .हमे लगा आज बागीचा फिर से ज्यादा भरा पूरा लग रहा है .हम बागीचे में उनकी उपस्थिति के अनजाने ही कितने आदी हो गए थे .ऐसा जीवन में बहूत सारी चीजो के साथ होता है कि वे हमारे पास ,हमारे साथ थी यह हमें उनके ना होने पर ही पता चलता है ।
हाँ ,तो इतने दिन बाद उन्हें बागीचे में देख हम अन्दर से बहुत खुश हुए .यह भी शायद मानव स्वाभाव है कि वह अपने चारों तरफ जो है ,जैसा है ,जहाँ है वैसा ही चाहता है .कहीं भी कुछ हिल्ने से असुर्छा सी पनपने लगती है शायद .हम दौड़ते हुए माली काका के पास गए .ve सर jhukaye ghas में कुछ khod रहे थे .'kahan थे इतने दिन '.इतने पास से aayii aawaj सुन कर unahone सर उठाया .क्या था उनकी aankho में .halka सा अचरज ,कुछ ख़ुशी या दुःख .'हमसे poochh रही हो ,bitiya .'हाँ और क्या ,हम रोज देखते थे .तुम कितने दिन से नहीं आ रहे थे .हम कुछ utejjna ,कुछ utsah में बोले चले जा रहे थे .'सो kaahe bitiya ,hamaka कहे dhoodh रही थी .हम ekdam से chup रह गए .सच ,हम क्यों intzar कर रहे थे उनके लॉट आने का .यह हमारी उनसे पहली बात cheet थी .उनके बीच में चले jaane से पहले तो हमने उनसे कभी कोई बात तक नही kii थी .हम क्या और कैसे samjhate कि उनके ना रहने पर हम उन्हें क्यों miss कर रहे थे .हमे उनसे कोई काम तो था नही .हम माली काका को क्या bataate जब हमे खुद भी उसकी ठीक ठीक वजह समझ में नही आ रही थी .उस समय तो nahiihii aayii थी .lekin कुछ भी कहने की jarurat नही padii .शायद मेरे chehare ,मेरी aankho में aisaa कुछ था कि उन्हें सब बिना कहे ही समझ में आ गया .और aise shuru huii उनकी हमारी dostii ।
अब कभी कभी वे हमारे घर आने लगे थे .अक्सर जब वे आते तो हम apnii baundrii में charpaii पर बैठे कुछ पढ़ लिख रहे होते .ekdin unhone हमसे कहा 'bitiya हमे hamaraa नाम लिखना sikhaa dogii .हमने पूछा 'काका,tumne kakahaaraa यानी क ,kh ,likhnaa आता है क्या? unhone कहा ना bitiya .मैंने कहा फिर तो नाम likhnaa siikhne में बहूत समय lagega क्यों कि पहले तो k, kh g ,seekhna padegaa .काका ने कहा ना हमें पूरा लिखना नही siikhna हैं .तुम तो बस हमें hamaraa नाम लिखना sikhaa दो .तुम लिख दो ,हम देख कर nakal कर lege और फिर बार बार लिख कर सीख jayege .हमे उनकी बात पूरी तरह समझ में नही aayii .padhna ,लिखना seekhne का मन karnaa तो समझ में आता है ,पर यह केवल अपना नाम लिखना seekhnaa .हमने पूछा achchaa apnaa नाम bataao .माली काका कुछ देर के लिए बिल्कुल chup से हो गए .जैसे नाम कहीं खो गया हो और उसे dud कर laane में उन्हें समय लग रहा हो .या फिर apnaa ही नाम याद karanaa पद रहा हो .और सच कुछ aisaa ही था .कहीं बहूत दूर चले गए माली काका vartmaan में वापस आये .'हमारी maai ने बहुत प्यार से हमारा नाम phoolchanda रखा रहे.बहूत प्यार करती थी हमारी maaii फूलों से .हम लोग jaat से माली हैं bitiya .आस पास के gaon माँ kauno saanii naa रहे हमारी maaii का फूलों की maala goonthne में .काका नाम लिखना seekhna भूल जैसे apnii maai के achra की chhaon में ही चले गए थे .में slet battii ले उन्हें seekhane की पूरी taiyarii में थे .पर उनके chehare के भाव देख उन्हें बीच में tokane का मन भी नही कर रहा था .phir भी मैंने कहा phoolchand कि phoolchandra .ना bitiya phoolchand .तुम तो hamar naamay bigad dogii .हमने अपने गयान पर prashnchinh लगते देख jara tunak कर कहा तुम्हे कुछ मालूम तो है नही .सही to phoolchandra ही होता है.काका बिना जरासा भी pertubed हुए बोले अब tumhar सही गलत तो hamkaa नही मालूम पर hamaar maaii तो hamaar नाम phoolchand ही रखे रहे .हमने कहा achha baba तो phoolchand ही likhnaa sikhaa देते हैं काका बोले naahi.'फिर' ?maaii hamakaa प्यार से phulwaa bulawat रही .stithii कि gambhiirta कुछ कुछ samajhane के baavjood मेरा bachpanaa जोर मार रहा tha .फुलवा ,यह कैसा ladkiyon जैसा नाम है .kaakaa thore hurt हो गए .'i hamaar maai का प्यार रहे .इस बार मैंने पूरी sanjiidagii से कहा ,'achchaa काका फुलवा likhnaa sikha दे .kaakaa ने humak कर कहा ,'हाँ bitiya।' और फिर abhyas shuru हुआ .जब मैंने पहली बार उन्हें उनका नाम लिख कर दिखाया तो उनके chehare की ख़ुशी देखते banatii थी .slet हाथ में ले un लिखे हुए aksharon पर यूं हाथ phira रहे थे जैसे apnaa bhoola bisraa astitatva हाथ आ गया हो .बागीचे में ghul मिल वे बस माली ,माली kaaka हो कर रह गए थे .उनकी maaii का phulwaa तो सच कहीं bilaa ही गया था .shayaad अपने आप ko mahsoosne कि chaah में वे apnaa नाम likhnaa siikhnaa chaah रहे थे ।
काका ने बताया कि gaon में logon ने कब फुलवा का phullu और phullu का pullu बनाया पता ही नही चला .maaii chalii गयी और उसके साथ ही चला गया फुलवा नाम .फुलवा लिखना siikh कर unhone ना केवल अपनी पहचान gum होने से bachaa lii थी balki apnii maaii को mahsoosne का ,उसे अपने पास रखने का tareeka भी dood लिया था .और फिर भी कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है .

Saturday, September 29, 2007

अटल बिहारी बाजपेई से पहला परिचय


बात उन दिनो की है जब हम शायद पांचवी या छठी कक्छा में पड़ते थे । हम घर में सबसे छोटे थे इसलीये बाज़ार के kisii भी छोटे मोटे काम के लीये अम्मा हमें ही दौड देती थी .हमारे मोहल्ले की एक ही बाज़ार हुआ करती थी ,उसी रावन जलने वाले मैदान के पास .अक्सर हम पाते थे कि उस मैदान में दरिया बिछी हैं और एक सीरे पर कुछ तख़्त जोड़ कर स्टेज बनायी गयी है.जीस पर कुर्सिओं पर कुछ लोग बैठे हैं और एक सज्जन माइक के सामने खड़े हुए भाषण दे रहे हैं .दरियों पर मोहल्ले के चाचाजी लोग बैठे पूरी तन्मयता से कहने वाले कि बातें सुना करते थे .हाँ वे दिन ऐसे ही हुआ करते थे । लोगों कि जिन्दगी और मन दोनो में इत्मीनान हुआ करता था .दूसरों को सुनने का सब्र हुआ करता था हम भी आते जाते थोरी देर रुक कर सुना करते थे .उनकी कही बातें तो शायद मुझे पूरे तौर पर समझ में नही आती रही होंगी पर मुझे यह बात बहुत फैसीनैट करती थी कि एक आदमी बोल रहा है और इतने सारे बड़े लोग चुपचाप बैठ कर उसकी बातें सुन रहे हैं .अब भई क्लास में ऐसा दृश्य तो समझ में आता है .वहाँ तो हमारी मजबूरी होती है पर इन लोगों को क्या चीज यहाँ बाधें रखती हैं .यही कौतूहल हर बार मेरे कदम वहाँ रोकने लगा और धीरे धीरे मुझे इसका चस्का लग गया .अब हमें भाषण सुनने में मजा आने लगा था .हंलां कि इसमे मेरा साथ कॉलोनी का कोई बच्चा नही देता था .पर हमें बचपन से ही इसकी विशेष फिकर नहीं हुआ करती थी .हमें तब भी लगता था कि एवेर्य्बोद्य must have फ्रीडम to ऎन्जॉय ons ovan spas .यह और बात है कि तब हमें इस बात को इस तरह ना कहना आता था ना सोचना .हाँ हमे अपने दोस्तो सखियों से कोई शिक़ायत नही होती थी कि वे मेरा साथ नही दे रहे .पर उस समय यह भी था कि कहीँ आना जाना बच्चों कि अपनी मर्जी पर नर्भर भी कहॉ कर्ता था .anyvay ,हम धीरे धीरे पड़ोस वाले सेन गुप्तों काकू के साथ भाषण सुनने के लिए ही वहां जाने लगे .अब हमें कौन वक्ता रूचिकर बोल रहा है कौन बस यूं ही सा ,यह भी थोडा थोडा समझ में आने लगा था .और एक दिन जब मंच पर एक व्यक्ति ने बोलना शुरू किया तो उसकी आवाज भाषा और अंदाज ने हमें कहीँ और पहुचा दिया ,। कुछ्था उस सख्श कि ओज भरी आवाज में ,भाषा में ,बात कहने के स्टाइल में कि मेरे मन में अक इक्छा ने जनम लिया हम भी ऐसे बोल पाते तो .हम उस मंच पर तो नही पहुचे पर स्कूल ,इन्तेर्स्कूल ,बैंक इन्टर बैंक के विभिन्न कोम्पेतिशन में मेरे पार्टिसिपेशन और जीतने कि नीव उसी दिन रखी गयी थी .और उसी दिन अटल बिहारी बाजपेई ने अपना एक बहुत बड़ा प्रशंसक पाया था .उन दिनों त
। व। तो हुआ नही करते थे नेताओ को सुनने का माध्यम ये सभाये ही हुआ करती थी .बाजपेई जी भी तब उभरते हुए नेताओ की श्रेणी में आया करते होगें .एक लंबे अर्से बाद जब वे हमारे शहर लखनऊ से चुने जा कर प्रधानमंत्री बने तो बाबुपुरवा की उस छोटी बच्ची को बहुत ख़ुशी हुई थी की उनकी जीत में एक वोट उसका भी था .हाँ तब तक लखनऊ हमारा शहर था .जीवन की मांगो के हीसाब से thiikane तो बदलने ही पड़ते हैं .हम लोग जब छोटे थे तो personality development या hobbies को profession में बदलने की ना तो क्लासेस हुआ करती थी ना ही ऐसे concepts सुने जाते थे .कम से कम मध्यमवर्गीय तबके में तो नहीं .मोहल्ले में होने वाली ये सभाएँ ,कविसम्मेलन ,पड़ोस की दीदी, भाभी, बुआ, ,रामलीला ,दुर्गापूजा जैसे सार्वजानिक त्यौहार यही सब हमारे जीवन और व्यक्तित्व को दिशा देती पाठशालाएँ होती थी .

Thursday, September 27, 2007

छोटे भैया रहट वाले

आज के समय का gaint wheel हमारे समय में रहट हुआ करता था .काले रंग के लकड़ी के चौड़े फटटो के दो क्रॉस ,एक दूसरे से थोड़ी दूरी पर खडे रहते थे .उनके बीच में लकड़ी के चार पालने जैसे झूले होते थे ,जीन्हे हम लोगों के छोटे भैया हांथो से धक्का दे कर ऊपर नीचे गोल -गोल घुमाते थे .छोटे भैया का यह रहट लकड़ी के फटटो को नट बोल्ट से कस कर खड़ा कीया जाता था .घर से school के रासते में पड़ने वाली बाज़ार के पास रहट खड़ा कीया जाता था और phir महीने डेढ़ महीने बाद एक din स्कूल से लौटते समय हम पाते ki वह जगह खाली है .रहट जहाँ गड़ा रहता उन गढ़ो को mitti से पूर diya जाता था । उस ताजा पड़ी mitti को देख हंमे ऐसे ही खाली पन का एहसास होता था जैसे कीसी अपने के चले जाने पर होता है .उस दीन स्कूल से घर के रास्ते में ना लडाई झगडा होता था ना ही एक दूसरे को चीढ़ाना .
ये छोटे भैया कहॉ से आते थे और कहॉ को जाते थे यह तो हम लोगों को ठीक ठीक पता नही था । ना ही उनसे कोई गाँव दुआर ki रिश्ते दारी थी .पर यह सच है ki हमे उनके आने का इन्तजार रहता था और उसका कारण केवल रहट झूलना नही होता था .हमे यह भी पता था ki जितना खुश हम उन्हें देख कर होते थे वे भी उतना ही खुश होते थे .मजाल था ki स्कूल जाते समय हम रहट में बैठ जाएँ .उन्हें ज्यादा पैसे दे कर बैठाने के लिए कहने जैसी बातें तो हम सोच भी नहीं सकते थे । छोटे भैया का कहना था ki स्कूल जाते समय खेल या मजे का मूड नही होना चाहिऐ .
हम तब आज का जितना तो सोच नही पते थे पर anubhav jaroor कर लेते थे .हमे उनका यूं kandhe पर grihasthii lad कर अचानक ही कीसी नयी दिशा को चल देना तब भी bahoot fascinate karata था .शायद aankhe बंद कर कीसी anjan sukun भरी जगह पर pahuch जाने का जो chaska है उसके पीछे kahnii छोटे भैया का हाथ है ."samresh basu के भी कोई छोटे भैया jarur रहे hogen .सच है vyaktitv के bahut से pahalu की neev बचपन में hii पड़ jati है.

Wednesday, September 26, 2007

everything has a purpose

i have heard that in some languages the word chance does not exist .Where God is present there is no place for chance .Everything is regulated ,ordered from high above . Everything that happens to us happens for a purpose .I have experienced it to be true . We do not possess the foresight to decipher the exact purpose of the events at the time of their happening . But at some other point of time the realisation will dawn upon us .i feel that my starting of this blog at this particular period of time has also got certain significance .so i will continue writing it .computer and net connection are at my home for last almost eleven years but i had never been much inclined to use it , except few astray mails . but now something propels me to write .so, amen .

Tuesday, September 25, 2007

मेरा सबसे पहला दोस्त ..........


बोलना शुरू करने के बाद और school जाना शुरू करने से भी पहले का मेरा दोस्त है -राकेश चतुर्वेदी .यह अलग बात है ki राकेश से तकरीबन बाईस साल से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है .where are u rakesh .which branch of allahabad bank .बस zindagi की व्यस्ततायें बढ़ गयीं aurphir milna नहीं हो पाया .हमें लगता है ki हमारे जीवन के हर दौर में ईश्वर लोगों से हमें एक खास मकसद से milaata है .
मेरी अम्मा और राकेश ki भाभी( जहाँ तक हमें याद है वह अपनी माँ को भाभी ही बुलाता था ।) बाबुपुरवा के. वेलफेयर सेंटर में एक साथ tailoring का course कर रहीं थी .वहां हम ही दो बच्चे अपनी माँ ke साथ आया करते थे
राकेश बहुत शांत और सीधा बच्चा था and i was outgoing even at that age .मैं उसे हाथ पकड़ कर
खेलने के लिए लाती थी,उसकी भाभी के पास सेऔर जब हम लोगो ने school जाना शुरू कीया तो भी साथ ही थे । in fact उस समय बाबुपुरवा कॉलोनी और kidwainagar के अधिकतर बच्चे उसी school यानी "kidwai school में ही जाते थे । स्कूल की building राकेश घर के सामने थी .kidwainagar के main चौराहे से थोड़ा सीधे चलिए और first left hand turn में मुड़ जाईए .बस उसी गली में बने मकानों में से एक में था हमारा पहला school .हाँ तो अपनी दोस्ती पर चलते हैं . स्कूली पढ़ाई का पहला साल था । साल के अंत में पहली बार parikshaa .परीणाम घोषित हुआ .राकेश क्लास में प्रथम आया और में दव्तीय .उसका मुझसे एक नंबर ज्यादा था .हमें ठीक ठीक याद नहीं हमने क्या अनुभव किया या कैसा लगा । पर कुछ तो जरूर रहा होगा मेरे चहरे पर कि दोनो रिपोर्ट कार्ड देखने के बाद राकेश ने मेरा हाथ पकड़ा और सीधे वीथेका दीदी के सामने .'दीदी ,मेरा आधा नंबर नीता को दे दीजीए '.उसकी आंखो से आंसू बह रहे थे । स्टाफ रूम में टीचर हँस भी रहे थे और शायद उसके भोलेपन पर न्योछावर भी हो रहे थे । मुझे समझ में नही आ रहा था की क्या करना चाहिए पर इतना उस उम्र में भी पता कि मेरे दोस्त ने जो कहा वह सबसे अलग और अच्छा है .अब हम दोनो रो रहे थे और विथिका दीदी दोनो को समझाने कि कोशिश .राकेश को तो शायद यह घटना याद भी नहीं होगी पर हम इसे कभी नही भूले । समय समय पर बात चीत के दौरान हमने कई लोगों को इसे सुनाया भी हैं .आज जब हम पीछे मुड़ कर देखते है तो लगता है कि राकेश की दोस्ती हमारी jindagii के दोस्ती वाले खाने का शगुन हैं । जीवन के हर पड़ाव पर ,हर मोड़ पर मुझे बेमिसाल दोस्त milte रहे हैं .friends who have valued me ,loved me ,and pampered me .उन्होने मुझ पर भरोसा किया iseeliye मुझे खुद पर विश्वास है .

Saturday, September 22, 2007

कुछ कदम पीछे कि ओर


why i started this blog .i m of the genre which finds oneself more comfortable with कागज़ और कलम
a pen between fingers and the rustling of papers set the mind functioning and heart racing .but i also acknowledge the advantages of developing technology . sharing my thoughts and emotions with my friends by letters and on telephone was becoming increasingly difficult and inadequate . hence this blog . moreover i feel that people of my age and type start longing for communicating with the persons of their own age group . well the search has begun. let us see how many of us can find one another . i invite all u youngsters who chance to stumble upon this blog and have any memory of places or person talked about herein to express their views . i also request them share this with their parents and encourage them to join us in our this journey towards past .

my childhood memories start from babupurwa colony ,kidwainagar kanpur .उस समय किद्वैनगर चौराहे पर .एक पानी का फौन्तैन था और उसमे बाकायदा पानी चलता था । अँधेरा होने के बाद रंगबिरंगी lights के बीच girti पानी की इन्द्रधनुषी धाराएँ हमे kisi tilism से कम नही लगती थी । सच पूछो तो हमारा sansar बहुत सादा हुआ करता था । छोटी छोटी बातों में ढ़ेर सारी खुशियों वाला .और चौराहे प्र कॉलोनी कि तरफ वह वीराट पीपल का पेड़ जो जिसके हवा मे ताली बजाते पत्ते आज भी मेरी चेतना पर छा जाते है .
उस चौराहे के पास कॉलोनी के quarters के आगे बहुत बड़ा मैदान थापता नही अब क्या हाल है पर उस समय उस मैदान में दशहरा का मेला लगता था ,रावन भी जलता था . हम लोग नीरा दीदी के घर से आंगन में तखत के ऊपर कुर्सियाँ रख कर दीवार से लटक कर रावन का जलना देखते थे । u wont believe kisi भी multiplex कि बालकनी से देखने में हमे वह आनंद कभी नही आया .शायद वह उम्र ही ऐसी होती है ki उल्लास bina कारण छलकता है।
उस उम्र की एक और याद है जो हमे बहुत खूबसूरत लगाती है । अपने बाबू के साथ naharia के कच्चे रास्ते पनकी के mandir जाना । बाबू हमे और गीता jijji को cycle में बाबुपुरवा से पनकी तक ले जाते थे । आज की सड़के और traffic को देखते हुये तो यह असम्भव सा लगता है ना .पर उस समय naharia का कच्चा रास्ता बहुत हरा भरा होता था । पानी से भरी naharia में सफ़ेद kamalini के फूल khile रहते थे .naharia के kinare हरी मुलायम घास की चौड़ी पट्टी ,उसके बाद ऊँचे हरे पेड़ ,jinaki छाया घास पर दूर तक पसरी रहती थी । naharia के kinare कच्ची पगडंडी पर हमारे बाबू की cycle चलती थी । बीच में बाबू cycle kinare खड़ी करते और पानी में उतर हमारे लीये kamalini तोड़ते । हम और jijji kinare से उचक उचक कर उन्हें बताते की हमे कौन से फूल चाहिए .कमिलिनी की लंबी डंडी को बीच से थोड़ा थोड़ा तोड़ कर माला बनायीं जाती थी ,जीसमे नीचे कमिलिनी के फूल का locket रहता था .उस हरी भरी naharia का तो अब शायद कोई अस्तित्व ही नही है।
वह naharia रास्ते में कहॉ से शुरू होती थी और कहॉ ख़त्म यह तो हमे bilkul याद नहीं पड़ता पर उसकी haritima आज भी मेरे मन पर छाई है .शायद यह उस चौराहे पर के पीपल और naharia का ही मेरे अचेतन मन पर असर है ki nature se meri एक खास तहर ki अंतरंगता है .यहाँ तक ki when i close my eyes its never absolute black its green .i always dream of green hills and vast expanse of blue sky .in fact एक टुकड़ा आस्मान और एक मुट्ठी हरियाली हमेशा मेरे साथ रहती है ,बंद चाहर्दीरी में भी .
kuchh kadam peeche kii or .this journey to past becomes more fulfilling when your future is accompanying u .yes i am experiencing it .the peepal tree here is clicked by my fifteen year old son especially for this post.