Saturday, August 27, 2016

27.06.05

बारिश में भीगे दिन की शुरुआत. शहर अभी भी अजनबी है.अपने घर के खिड़की दरवाजे आवाज देते हैं.बारिश में धुल पुछ कर निखर आतीं थीं मेरे अमलतास की पत्तियां.

Friday, August 26, 2016

कुछ फुटकर लिखा पढ़ी



आज यूं ही अलमारी की सफाई करते हुए कुछ फुटकर कागज हाथ लगे जिन पर कभी कुछ लिखा था. हमें याद भी नहीं था.सोचा उसे यहां दर्ज कर लिया जाय.......

11.01.04
डूबते हुए सूरज को पोर -पोर अदृश्य होते देखना अपने आप  में एक ऐतहासिक अनुभव है.
-------------------------------------------------------------------------------------------

डूबते सूरज के हर पीछे छूटते कदम के साथ आकाश के सीने में हलचल बढ़ने लगती है.

--------------------------------------------------------------------------------------------------
अस्त होता सूरज हमें हमेशा किसी वीर योद्धा सा लगता है. अपने कांधे पर दूसरों की लड़ाइयां लादे, अनवरत संघर्षरत जो हर सांझ किसी घायल शेर सा अपने कर्म क्षेत्र की रण भूमि पर आहिस्ता -आहिस्ता अपना शरीर ढीला छोड़ देता है.आकाश उसे अपनी बांहों में समेट अपने आंचल तले दुबका लेता है. यह नेह, यह आश्वस्ति उसे एक नयी स्फूर्ति से भर देते हैं और अगले रोज वह फिर ताजा दम हो निकल पड़ता है एक और नयी लड़ाई जीतने. कुछ और अंधियारे कोनों से बतियाने.
--------------------------------------------------------------------------------------------------------े------

 एक सूर्यास्त तो वर्षों बाद आज भी मेरे स्मृति पटल पर ताजा है. मेरी उम्र उस समय यही कोई दस ग्यारह वर्ष की होगी. गर्मियों की छुट्टियों में हम गांव गए हुए थे.एक दिन चाची, भाभी, बुआ लोगों की टोली के साथ हम भी आम के बागीचे की सैर को गए थे.मई -जून के महीने थे. खेत खलिहानों में बदल गए थे. दूर- दूर तक फैले मटमैली मिट्टी के मैदान के बीच में जहां -तहां कटे अनाज, भूसे और दानों के ढेर नगे थे. कहीं दूर सांझ के धुंधलके में आम के झुरमुट की गहराती छाया खाली खेतों के विस्तार को विराम दे रही थी. ज्यादा चलने की आदत न होने के कारण मैं थक कर एक खेत की मेड़ पर बैठ चारों ओर देख रही  थी. गहराती शाम का मायावी संसार और चारों ओर पसरा सन्नाटा.... एक सम्मोहन सा छा रहा था. सारी शैतानी और चुलबुलाहट भूल मैं बिल्कुल शांत बैठी थी.तभी मेरी घूमती नजर सामने सूरज के गोले पर जा टिकी.बहुत बड़ी परात जितना सिंदूरी गोल सूरज..दूर इतना नीचे लग रहा था जैसे खेत की मेंड़ पर टिका हुआ हो. धरती पर सूरज ...वह भी इत्ता बड़ा कि मैं अपनी नन्हीं- नन्हीं दोनों बाहें फैला कर भी इस सिरे से उस सिरे तक नाप न सकूं. विस्मय से विमुग्घ तक ना जाने कितने भाव भर रहे थे मन में. मुझे लग रहा था सूरज के उस पार कोई जादुई संसार है. मैं बाहें फैला दौड़ कर वहां पहुंचूगी तो खुल जा सिम सिम  सी कोई खिड़की खुलेगी और मेरे सामने होगी कोई अनोखी , नयी सी दुनिया. बगीचे में कूकती कोयल की आवाजें और भाभियों की दबी दबी खिलखिलाहटे मुझे सुनायी देना बंद हो गयी थी. विश्लेषण की समझ तो थी नहीं पर विराट के सम्मुख मन कौतुहल और आदर से भर उठा था. शायद सूरज मेरे लिए ही जमीन पर उतरा है. किसी नन्हीं राजकुमारी सी मैं उसकी डोली में बैठूं तो वह आहिस्ता -आहिस्ता ऊपर उठता जाएगा. लाल पीले सिंदूरी रंगों की झलर -मलर के बीच से कैसे लगेगें ये खलिहान, ये बगीचे. यह सूर्यास्त से मेरा पहला सीधा साक्षात्कार था.