Tuesday, November 21, 2017

मेरा चंद्रजोत

माल्यवंत की पहाड़ी पर खड़े उस खंडहर की छत से जब उस सुबह तुम पर मेरी नजर पड़ी तो लगा जैसे रघुराम मंदिर के खूब खुले खुले प्रांगण में रात चुपके से कोई देवता कल्पवृक्ष रोप गया हो। तुम लग भी तो इतने पावन, इतने दैवीय रहे थे. जहां हम खड़े थे वहां से तुम कई फीट नीचे लगे थे पर सच कहें तो तुम्हारी ऊपर को उठी बाहें जैसे हम तक पहुंच रही थीं। नम भोर की ओस डूबी ताजगी में तुम्हारी पत्तियों का सब्ज रंग और उनके बीच हर टहनी, हर डाल में भरपूर फूले तारों जैसे सफेद नाजुक फूल, ऐसा लग रहा था जैसे आखर आखर वेद ऋचायें लिख गया हो कोई। उतने ऊपर से भी तुम्हारे नीचे बिछी,टपके हुये फूलों की धवल चादर साफ दिखायी पड़ रही थी। सच, सम्मोहित से खड़े रह गये थे हम।
और जब नीचे आ पास से महसूसा तुम्हें तो लगा तुमने मेरे भीतर ही जड़ें जमा ली हैं या फिर हम तुममें समाहित हो गये हैं। कितना अवर्चनीय सुखद अनुभव था। तुम खड़े थे सतर, निर्लिप्त और इक्का दुक्का फूल आहिस्ता आहिस्ता झर रहे थे – हल्की हरी और सफेद पतली, लम्बी डंडी के सिरे पर छोटी छोटी पांच सफेद पांखुरियां – हल्का, नाजुक, रेशमी फूल। तुम्हारी छाया में बैठ ऐसा लगा था जैसे अनवरत आशीर्वचनों की बौछार में भीग रहे हो—मन प्राण सब तृप्त, स्निग्ध । एकदम अलौकिक अनुभूति।
पता नहीं किस नाम से जाने जाते हो तुम। मैंने कोशिश की जानने की पर अभी तक तो पता नहीं चल पाया। पर हमें तुम उस उगती भोर में चंद्रजोत सरीखे लगे, सो मेरे नजदीक तुम्हारा नाम चंद्रजोत ठहरा।





छाया चित्र -- सुंदर अय्यर