Thursday, November 8, 2007

दीवाली की शाम का वो खालीपन...

आज छोटी दीवाली की रात है । सोसायटी के कम्पाउंड मे चहल पहल खत्म हो गयी है । बच्चे पटाके छुड़ाने के बाद अपने अपने घर जा चुके हैं । एक एक कर घरों के अन्दर की बत्तियां बंद हो गयी हैं । बाहर लटकी झालरे एकाएक अकेली हो उठी हैं। किसी झालर के बल्ब जल बुझ रहे हैं,किसी के एक्टक देखे जा रहे है, कोई झालर लगातार लप्लपा रही है । गरज यह कि जिसे जो काम सौपा गया है वह उसे किये चला जा रहा है बिना रुके ।कभी कभी दूर छोड़े गये पटाके की ’भड़ाम ’सुनायी देती है ।सन्नाटा थरथरा कर फिर ठहर जाता है ।बल्की उस अवाज के बाद और गहरा हो जाता है । यूं चहल पहल एवं उत्सवी माहौल के इन दिनों मे तो मन उमगा उमगा होना चाहिये य फिर रात के इस प्रहर दिन भर के कार्यक्रमों के बाद ,सन्तुष्टि और अलस भाव से भरा । पर हम पर ये सन्नाटा ये अकेलापन क्यों हावी हो रहा है ।
सच तो यह है कि कल शाम पार्क की एक बेन्च पर किनारे की ओर अकेले बैठे अकंल और हवा मे कुछ देर को ठहरे उनके हाथ हमसे भुलाये नही भूल रहे हैं ।अकंल से हमारा कोई व्यक्तिगत सम्बंध नही है ,लेकिन हम उन्हे तक्रीबन पिछ्ले दो साल से जानते हैं। इस घर मे आने के बाद से अक्सर ही पीछे मन्दिर मे जाना होता है । ऐसा कई बार हुआ है कि अकंल और हम एक ही समय वहां पहुंचे हैं । अकंल तो हमे शयद ही पह्चानते हों। हमे क्या... हमे लगता है कि वे पार्क और मन्दिर मे नियम से उसी समय रोज मौजूद रहने वालों मे से भी शायद ही किसी को पह्चानते होगें ।वे पार्क कुछ देर लोगो के बीच होने की अपनी जरूरत पूरी करने आते है फिर वे लोग कोई भी हो उन्हे कोई फर्क नही पड़ता । लेकिन अकंल को एक बार पार्क मे देख लेने के बाद उन्हे भुलाना मुश्किल है ।
८५ या ८६ वर्ष के आस पास होगे अकंल ।उनके समूचे व्यक्तित्व पर आभिजात्य की छाप है । कपड़े लत्ते आज भी बेहद सलीके और नफासत से पहनते हैं । नही सायास नही ,जैसे पूरी जिन्दगी करते करते वह एक आदत सी बन जाय उस तरह ।वे अपनी गाड़ी मे ड्राइवर के साथ आते हैं । हाथ मे छड़ी रहती है पर ड्राइवर एक्दम सट्कर साथ साथ चलता है । उसकी जरूरत भी है क्यो कि ऊबड़ खाबड़ जमीन पर वे कभी भी लड़खड़ा सकते हैं । एक एक कदम जमा कर बेहद आहिस्ता आहिस्ता चलते है । विगत दो वर्षों मे ही कितना परिवर्तन आ गया है । पहले वे सीढीयां उतर कर नीचे मन्दिर तक आ जाते थे अब ऊपर से ही हाथ जोड़ कर पार्क की ओर मुड़ जाते हैं इतने दिनो मे कभी भी परिवार का कोई सदस्य या मित्र उन्के साथ नही दिखा । बस वे और उनका ड्राइवर ।

गाड़ी से उतरते ही वे मन्दिर के बाहर पेड़ों के चबूतरों पर बैठे वाड़ी गाव के बुजुर्गो से हाथ जोड़ कर नमस्कार करते है । नमस्कार करते समय उनके चेहरे पर मुस्कान जरूर होती है पर उस मुस्कान मे हमेशा एक बेचारगी का भाव रहता है ,जैसे कह रही हो मुझे मालूम है कि हम नाआये तो तुम्हे कोई फर्क नही पड़ेगा पर आप लोग यहां नही होगें तो हमे पड़ेगा । छोटी छोटी कोठरियोंमे पूरे परिवार के साथ रहने वाले उन अन्पढ बूढों के सामने वे जैसे अकिंचन हो उठते है । पार्क ,मन्दिर मे मिलने वाले हर छोटे बड़े को हाथ जोड़ कर नमस्कार करते है। हां पास के गावं के बच्चो को देख कर उन्के चेहरे पर अलग खुशी छा जाती है । हमे लगता है वे बड़ो के सामने अन्दर ही अन्दर कही संकुचित हो उठते है । शायद लगता हो कि ये लोग सोच रहे होगे कि मै अपनी इस अवस्था मे इन्से हाथ जोड़ कर नमस्कार कर रहा हूं । जब इतना बूढा और अकेला नही था तब इस तबके के लोगो से कहां इस तरह जुड़ने की कोशिश करता था ।बच्चो के सामने यह संकोच बिला जाता होगा तभी शायद खुशी इतनी सच्ची लगती है । अक्सर उन्की जेबे बच्चों के लिये टाफी,चाकलेटो से भरी रहती है । कभी कभार बच्चो को अपनी गाड़ी मे बिठा एक आध चक्कर भी लगवा देते है । लेकिन अपने सन्नाटे को ॆ भरने की हर कोशिश वे और अकेले क्यो लगते है ।
कल शाम उनके साथ पार्क के अन्दर उनका ड्राइवर नही आया था । एक महिला थी ऐसे ही नौकरानी जैसी । वह उन्हे पार्क मे ज्यादा दूर नही ले जा पायी । अंकल को भी उसके साथ चलने मे ज्यादा विश्वास नही हो पा रहा था । उसने एक बेन्च पर बैठाल दिया और खुद अपनी अन्य परिचितो के बीच चली गयी । ड्राइवर हमेशा अनंकल के साथ उसी बेन्च पर बैठता था । आज दूर पार्क के सिरे पर लम्बी बेन्च के एक किनारे पर बैठे अंकल बहुत अकेले से लग रहे थे । हम जहां थे वहां से उन्का बैक प्रोफिले दिख रहा था । एक तो इमली के ऊंचे ऊचे पेड़ों से जमीन पर उतरता अंधेरा ,चारो ओर छायी चुप ,उस पर दूर शांत बैठे अंकल कैसी तो उदासी तारी हो रही थी मन मे । तभी अंकल के पास से एक नव्युवक गुजरा । अंकल ने हाथ जोड़ नमस्का र किया उसने भी उत्तर दिया । अकंळ ने हाथ आगे बढाया ,उसने भी बढाया ।उन्होने अपनी दोनो हथेलियो के बीच उसकी हथेली थाम ’हैंड शेक’ किया । हाथ ऊपर नीचे होते रहे । कुछ पल ज्यादा ही । फिर शायद उस नव्युवक ने धीरे से अपना हाथ खीचा । छ्णांष को अंकल दोनो हाथ खाली हवा मे उठे रहे । दोनो हथेलियां एक दूसरे से थोड़े फासले पर । फिर उन्होने हाथ नीचे कर लिये । लेकिन उस चुटकी भर समय का वह फ्रेम मेरी आखो मेरे मन मे जड़ा रह गया ।
बोलने बतियने ही नही स्पर्श के सम्वाद के लिये भी तरस रहे है अंकल । किस किस स्तर पर अकेलापन झेल रहे है । साथ छॊड़ गयी पत्नी , बड़े हो गये बच्चे ,बिछुड़े मित्र ...कौन कौन याद आया होग उनको ।
कुछ ऐसा दर्द दे रहा है उनका अकेलापन कि सोच लिया है इस बार मिलने पर उनके पास बैठ बतियागे । देखे कुछ हो पाता है हमसे कि नही । उनकी नही अब तो यह हमारी जरूरत है ।

4 comments:

उन्मुक्त said...

मालुम नहीं क्यों, मैं अंकल से बात करना चाहूंगा।

Anonymous said...

Bahut hi khoobsoorat !

Sootradhaar said...

नमिता..
जब हम एकाकी रहना चाहते है तो रह नही पाते ऒर जब हमे साथ की जरूरत होती है..तब हमे चारो तरफ़ कोई दिखाई नही पड्ता यही जिन्दगी की त्रासदी है..!

namita said...

सच कहा सूत्रधार जी
जीवन के हर प्रहर की अपनी ज़रूरते होती है और कभी कुछ कभी कुछ हाथ से फ़िसल जाता है .
वैसे आज कल अंकल दिखयी नही पड़ रहे .

नमिता