डलहौजी के पास कालाटोप गांव की वह सुबह जब भी याद आयेगी, मन को तरो ताजगी से भर जायेगी। नहीं केवल ताजगी से नहीं, उस दिन तो बाहर से भीतर तक की लम्बी यात्रा हुई।
रात जम कर बारिश हुई थी। दूर पहाड़ो पर बर्फ़ भी गिरी थी पर सुबह एकदम धुली-धुली निखरी हुई थी। मुख्य रास्ता छोड़ हम जैसे ही कालाटोप जाने वाली पगडंडी पर मुड़े तो जैसे बाकी सब केवल पीछे ही नहीं छूटा वरन धुल पुंछ गया। सर्पीली पगडंडी के एक ओर नीचे गहरी घाटी और दूसरी ओर पहाड़ियां। पहाड़ियों पर खड़े ऊंचे लम्बे चीड़ और देवदार के पेड़, इतने ऊंचे, इतने ऊंचे कि फ़ुनगी को देखने के लिये जमीन पर सीधा लेटने की जरूरत मह्सूस होने लगे। अन्तहीन ऊंचाई पर पसरा आसमान पेड़ों की फ़ुनगियों पर चुनरी सा टिका हुआ था। दूसरी ओर घाटी में भी इन पेड़ों का सघन विस्तार था, इतना घना कि नीचे झांकने पर धरती कहीं नज़र ही नहीं आ रही थी। घाटी में खड़े पेड़ों की फ़ुनगियां तो जैसे पहाड़ियों पर खड़े पेड़ों को चुनौती देने को लालायित दिख रही थीं पर उनका तना शुरू कहां से हो रहा था यह देख पाना भी सम्भव नहीं था। इतनी अतल गहरायी थी घाटी की। इन दोनों के बीच की पगडंडी मे खड़े थे हम। घाटी के पेड़ों के उस पार चमक रहा था सुबह का सूरज। सुई से पत्तों के सिरों किनारों पर पिछली रात की बरिश की बूंदे जड़ी हुई थीं और जंगल के बीच से छन कर आती सूरज की रौशनी में हीरों सी चमक रही थी। अद्भुत दृश्य था, वर्णनातीत, शब्दों की पहुंच से बहुत दूर।
हम दोनों के अलावा वहां उस समय कोई और नहीं था, निःशब्दता भी जैसे दूर से आती बांसुरी की धुन सी मन मे घुल रही थी। चारों ओर जंगल पर पसरी खामोशी डरा नहीं रही थी वरन गुनगुना रही थी। वैसे सन्नाटा था ही कहां, आहिस्ता आहिस्ता एक एक पांखुरी खोलते फ़ूल सा मन धीरे धीरे विस्तार पा रहा था। अनहद नाद की गूंज की शुरुआत सा कुछ करवट ले रहा था भीतर।
पगडंडी पर आगे बढे तो एक मोड़ पर पहाड़ियों की तरफ़ कुछ ऊंचाई पर छोटा सा घास का हरा भरा मैदान था जिस पर एक बेंच पड़ी हुई थी। हम कुछ देर के लिये उस पर बैठ गये। घाटी के जंगल में कहीं दूर एक चिड़िया बोली और चारों और पसरा मौन जलतरंग सा बज उठा। सुंदर उन दृश्यों को कैमरे मे कैद कर रहे थे और हम उन्हें भीतर तक उतार रहे थे। कच्ची पगडंडी पर हम और आगे चले। घाटी के जंगल से छन कर आती रौशनी की शहतीरें, नम अंधियारा और कोमल उजास मिल कर कुछ ऐसा तिलिस्म रच रहे थे कि लग रहा था कि यह बलखाती पगडंडी हमे ले जा कर किसी अनमोल खजाने के दरवाजे पर खड़ा कर देगी और सच ऐसा ही हुआ।
रास्ता जा कर खत्म हुआ वन विभाग के रेस्ट हाउस के गेट पर। गेस्ट हाउस के सामने से निकल थोड़ा नीचे उतर हम लोग जहां पहुचे वहां एक-दो छोटी चाय की दुकानें और कैन्टीन वगैरह थी। थोड़ा और नीचे उतर कर था दस बारह घरों का एक छोटा सा गांव और उसके बाद पहाड़ियां नीचे उतर सीधे घाटी मे समा गयी थीं। धुन्ध में लिपटी विस्त्रित घाटी के उस पार थी बादलों के लहराते आंचल के बीच से लुका छिपी खेलती बर्फ़ से सजी पहाड़ो की चोटियां, सूरज की रौशन उगलियां बर्फ़ पर ऐसे चमकते कसीदे काढ रही थी की अपना आप भी चमकता हुआ लगने लगा। खिलंदड़े बच्चों से इधर उधर भागते बादलो ने तो जैसे ठान रखा था कि वे पलक झपकाने का भी समय नही देंगे और हर पल एक नया दृश्य सामने लायेंगे।
हम चाय का कप हाथ मे ले बेंच पर बैठे सामने मंच पर घटित होता जैसे कोई नाटक देख रहे थे। इतनी तेजी से दृश्य बदलते थे, हर पल एक नया रूप सौन्दर्य का सामने होता था कि ठगे से बैठे रहने के अलावा कोई चारा ही नहीं था और फ़िर अचानक बादलों ने बरसने की ठान ली। मोटी-मोटी बूंदे टपकने लगी। हम भाग कर वन विभाग की एक इमारत के छायादार चबूतरे पर चढ़ गये और खंबे से टिक आसमान का धरती को अपने रस मे सराबोर करना देखने लगे और लो अचानक यह क्या....बारिश थमी और पूरी घाटी इस सिरे से उस सिरे तक इन्द्रधनुष से खिल उठी। इतना बड़ा इतना साफ़, अपने सतरंगे कलेवर में यूं मुस्कराता इन्द्रधनुष हमने इससे पहले कभी नहीं देखा था।
मेरा मन एकबारगी बच्चों के तरह किलका और लगा दोनो हाथ फ़ैला दौड़ते हुये जाएं और इन्द्रधनुष को अपनी बांहो मे भर लें, अप्रतिम.....अद्भुत......कितना कुछ दे गया वह दिन।
पर कालाटोप की यात्रा अधूरी रह जायेगी उस नन्हें से गांव के जिक्र के बिना। मुश्किल से दस बारह घर होंगे। नीची नीची छतों वाले छोटे-छोटे घर जैसे खिलौने से लग रहे थे। पर सब में ताले पड़े हुये थे। एक घर का तो ताला भी एक दरवाजे पर लगी कुंडी से उपर चौखट पर लगा था पर दूसरा दरवाजा शायद हवा से खुल गया था। चौखट के भीतर कुछ गिनती के बर्तन कुछ कपड़े लौट के आने वालों की राह देख रहे थे। सर्दियां बढने से पहले, बर्फ़ तेजी से गिरने से पहले इस गांव के लोग हर साल ऐसे ही अपने घरो को ताले लगा, उन्हे अपने ग्राम देवता के हवाले कर नीचे उतर जाते है। बर्फ़ पड़ने पर यह गांव पूरी तरह बर्फ़ से ढक जाता है। यहां तब रहना नामुमकिन हो जाता है। हम पर्यटक तो अच्छे मौसम में प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द ले वापस अपने घरो को लौट जाते हैं पर गांव के लोग बर्फ़ पिघलने पर फ़िर वापस आते हैं अपने घरों के दरवाजे छतें फ़िर ठीक करते हैं। सच कितना कठिन है ना साल दर साल यूं बिगड़ने बनने के दौर से गुजरना।
9 comments:
Hi Namita,
Kuch Yaden.. yaden hi rah jati hai
Namita di, let me see can i post a comment
Namita,
Aapi lekhni ko ek kaala tika laga dein!
Sach mein ham batan nahi paa rahein hain ki kya zya man bhaya kamere mein kaid tasveerein ya kalam ki khichi tasverien!
Badal, aasman darakht hawa, chidiya sab to n\behad apne hain. Aur kya chahiye. Thanks for sharing this experience
Nupur
ओ हो दीदी कितना सुंदर दृश्य कितनी सुंदर अभिव्यक्ति...मुझे लगा मैं भी वहीँ कहीं साथ हूँ....पेड़ों की छाया सी दूर तलक जाती और...धूप की गुनगुनाहट लिए पास सिमट आती...सच प्रकृति अपने में कितनी सम्पूर्ण है न...उसके पास जा कर बाकी कुछ याद ही नही रहता...ऐसा लगता है जैसे पूरा ब्रह्माण्ड हम में सिमट आया हो...और हम एक नन्हा सा कतरा बने उस में फ़ना हो गए हों.... सच में...मज़ा आ गया....!!!
upma dear...so nice to see u here.sach hai...ye yande hi kinhi palon me jeene ka sabab bhi ban jati hai.
nupur...ham jab bhi nature ke pas hote hai tum hame jaroor yad aati ho.hame lagata hai ki tum isake bare me likhati to sach ek nayi unchai par le jati.tumhari prashansa ka ek alag mayne hai.
sach......ye anmol cheeje ho to bas aur kya chahiye.
प्रिया.......तुम्हारे कमेन्ट ने तो मेरी पोस्ट का सार समेट लिया अपने आप मे.प्रक्रिति के सानिध्य मे अपना आप इत्न गौण लगता है कि सच खुद को विराट मे विलीन कर देने का हि भाव बचा रह पाता है.
तुम्हारे कमेन्ट ने हमारी पोस्ट को एक नया आयाम दे
दिय है.
thanks for being there.
namita
prakriti premi namita didi ko mera salaam.kya khoob likha hai aapne .sukhad aashcharya hua mujhe ,kyonki aapke lekhika hoone ki baat se to main avagat hee nahee thee.maine aapki aankhon se aaj us khoobsoorti ko dekh liya.aapse milane ki ichchha aur teevra ho gayi hai.chennai aayiye.hame behad khushi hogi.
aapki prashansika,
devika[chennai]
प्रिय देविका
देखो यह इन्टर्नेट की दुनिया हमे आपस मे जुड़ने के कितने नायाब अव्सर दे देती है .जब हम लोग आमने सामने एक दूसरे से मिलते थे तो कभी इन विषयो पर बात करने का अवसर ही नही आया और अब इतने वर्षो बाद इन्टरनेट पर मिले है तो कितना जुड़ाव अनुभव कर रहे है.
हम जरूर जल्दी ही मिलेगे.
नमिता
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