बीच बीच में हमने अपनी यात्रा डायरी के कुछ पन्ने इस ब्लाग पर शेयर किये हैं.फ़िर कभी तारतम्य टूट जाता है और कभी बस यूं ही ऐसा करने की.पुराना लिखे हुये को सहेजने की सार्थकता समझ नहीं आती और बस दिन निकलते रहते हैं.पर आज फ़िर मन किया तो एक और पन्ना फ़िर से जी लेने को आ बैठे.
५.५.८०
यांत्रिकता के दायरे में बंधी जिन्दगी में कारखानों के शहर में डूबती शाम के सौन्दर्य को अनुभव करने का समय ही नहीं रहता.कभी कभी बैंक से लौटते समय डूबते सूरज की लालिमा बरबस अपनी ओर खींचने लगती है पर आंखें पूरी तरह से त्रिप्त भी नहीं हो पातीं कि मिल की दैत्याकार चिमनियों से निकलता काला धुआ उस आग के गोले को निगल लेता है और तब डूबती सांझ में फ़ैलते अंधेरे मन को भी अवसाद से भर देते हैं.ऐसा लगता है तब कि मन के समस्त उल्लास एंव प्रसन्नता को परिसिथितियों ने अपने नागपाश में जकड़ लिया है.किरिच किरिच होती खुशियों के लहु लुहान अस्तित्व से ही मानो सारा आकाश रक्तिम हो उठता है.
पर कितना भिन्न है भीगती शाम में जंगलों के पीछे डूबते सूरज के स्निग्ध सौन्दर्य को यूं चुपचाप आंखों से पीने का यह सुखद अनुभव.धीमे धीमे पग धरती शाम चली आ रही है और उसके साथ ही माटी से उठने लगी है एक ऐसी सोंधी महक जिससे मन में अपूर्व शांति छा रही है.जंगलों के आद्र वातावरण से निकलती फ़ूलों की भीनी भीनी खुशबू ,सच कैसी प्यारी खुमारी है.डूबते सूरज के सुनहले गोले को घेरे हुये इन्द्रधनुषी रंगों की छटा..यूं लगता है खुशी से बौरा कर मन का मयूर अपने पंखों को फ़ैला कर मगन हो न्रित्य कर रहा हो.प्रक्रिति में बिखरी हुयी यह शांति ,यह सौन्दर्य मन की सारी कोमल और सरस अनुभुतियों को जगा गया है.जीवन की सार्थकता तभी है जब वह इस जंगल में उतरती शाम सा हो.अपनत्व एवं स्नेह की सोंधीं गंध में लिपटा हुया धुंध में लिपटे जंगल के पेड़ों सा शांत एवं धीर,डूबते सूरज के स्वर्णिम व्यक्तित्व सा गरिमामय.आकाश में बिखरे इन्द्रधनुषी रंगों की आभा सा आर्कषक और सबसे अधिक डूबती शाम सा समर्पित.
शाम इतनी सुखद इसिलिये लगती है कि क्यों कि वह दिन भर की उत्तेजना एयं कष्टों पर अपनी शांति का लेप कर सबको अपने आंचल में शरण देती है .जीवन भी इतना शांत एंव सुखद तभी होता है जब सबका दुःख दर्द बांटते हुये सब पर अपने स्नेह की वर्षा करते हुये जिया जाता है.
५.५.८०
यांत्रिकता के दायरे में बंधी जिन्दगी में कारखानों के शहर में डूबती शाम के सौन्दर्य को अनुभव करने का समय ही नहीं रहता.कभी कभी बैंक से लौटते समय डूबते सूरज की लालिमा बरबस अपनी ओर खींचने लगती है पर आंखें पूरी तरह से त्रिप्त भी नहीं हो पातीं कि मिल की दैत्याकार चिमनियों से निकलता काला धुआ उस आग के गोले को निगल लेता है और तब डूबती सांझ में फ़ैलते अंधेरे मन को भी अवसाद से भर देते हैं.ऐसा लगता है तब कि मन के समस्त उल्लास एंव प्रसन्नता को परिसिथितियों ने अपने नागपाश में जकड़ लिया है.किरिच किरिच होती खुशियों के लहु लुहान अस्तित्व से ही मानो सारा आकाश रक्तिम हो उठता है.
पर कितना भिन्न है भीगती शाम में जंगलों के पीछे डूबते सूरज के स्निग्ध सौन्दर्य को यूं चुपचाप आंखों से पीने का यह सुखद अनुभव.धीमे धीमे पग धरती शाम चली आ रही है और उसके साथ ही माटी से उठने लगी है एक ऐसी सोंधी महक जिससे मन में अपूर्व शांति छा रही है.जंगलों के आद्र वातावरण से निकलती फ़ूलों की भीनी भीनी खुशबू ,सच कैसी प्यारी खुमारी है.डूबते सूरज के सुनहले गोले को घेरे हुये इन्द्रधनुषी रंगों की छटा..यूं लगता है खुशी से बौरा कर मन का मयूर अपने पंखों को फ़ैला कर मगन हो न्रित्य कर रहा हो.प्रक्रिति में बिखरी हुयी यह शांति ,यह सौन्दर्य मन की सारी कोमल और सरस अनुभुतियों को जगा गया है.जीवन की सार्थकता तभी है जब वह इस जंगल में उतरती शाम सा हो.अपनत्व एवं स्नेह की सोंधीं गंध में लिपटा हुया धुंध में लिपटे जंगल के पेड़ों सा शांत एवं धीर,डूबते सूरज के स्वर्णिम व्यक्तित्व सा गरिमामय.आकाश में बिखरे इन्द्रधनुषी रंगों की आभा सा आर्कषक और सबसे अधिक डूबती शाम सा समर्पित.
शाम इतनी सुखद इसिलिये लगती है कि क्यों कि वह दिन भर की उत्तेजना एयं कष्टों पर अपनी शांति का लेप कर सबको अपने आंचल में शरण देती है .जीवन भी इतना शांत एंव सुखद तभी होता है जब सबका दुःख दर्द बांटते हुये सब पर अपने स्नेह की वर्षा करते हुये जिया जाता है.
2 comments:
नमिता दी
कमेन्ट्स हमने जान बूझ कर अपने ब्लॉग मे डाले, आप बतायें
तो मीशा, ब्लॅागिंग शुरू हो गयी. गुड। अभी देखते हैं जा कर।
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