Saturday, December 12, 2015

ललिया भौजी

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2 comments:

umashankar said...

आज अर्सों बाद किसी कहानी ने मुझे झकझोर दिया। थोड़ा संक्षिप्त ही सही, पर जैसे वो संसार जीवित हो गया हो। भौजी की घुटती हुई तड़प की झलक बड़ी कुशलता से प्रस्तुत की गई है। कहानी का अंत ऐसा न होता तो बड़ा दुःख होता। किसी न किसी को प्रायश्चित्त तो करना ही था। एक शिकायत भी है आपसे। कहानी को कुछ जल्दी ही समेट दिया आपने। एक और बात। लगता है कहानी की भौजी का सत्य से भी कोई नाता है।

namita said...

उमाशंकर जी,विस्तृत एंव विश्लेषात्मक टिप्पणी के लिए अतिशय धन्यवाद.हमारे जैसे छुटपुट लिखने वालों को एेसी ईमानदार और परिपक्व राय मिलमा तो सौभाग्य की बात है.हम संतुष्ट हैं कि कहानी का अंत आपको ठीक लगा.उससे भी ज्यादा अच्छा लगा कि आपने एकदम सही नब्ज पकड़ ली और उसे जाहिर भी किया. यही अपेक्षा तो हम करते हैं और गंभार पाठक की खासियत भी यही होती है. हम एक बार फिर से कहानी पर काम जरूर करेंगे.भौजी का सत्य से नाता.....एकदम सीधा तो नहीं पर ऐसी भौजियां हमारे आस-पास थी न...अब भी होती हैं, भले ही परिवेश बदला हुआ हो, वेश बदला हुआ हो. आपको भौजी सच के नजदीक लगी, मेरी कलम थोड़ा और मुस्कुराई.
और पढ़ियेगा, जब भी समय मिले
नमिता.