एक था कॉफी हाउस
उपन्यास और कहानियां भी एतिहासिक दस्तावेजों का काम करती हैं। स्थानीय स्थलों का तत्कालिक स्वरूप हो या क्षेत्रीय उत्सवों, मेलों का स्वरूप, प्रचलित सामाजिक अवधारणायें हो, या रीति रिवाज, कथाक्रम में पिरोए हुए होतें हैं और बरसों बाद भी हमें अपने विगत से जोड़े रहते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी स्थान का स्वरूप हमारे हमारे देखते देखते बदला होता है और फिर किसी किताब में उसके पुराने स्वरूप का जिक्र पढ़ते ही अपनी कुछ पुरानी यादों को हम दुबारा जी लेते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ अज्ञेय जी के नदी के द्वीप उपन्यास को एक बार फिर से पलटते हुए। पता नहीं आप में से कितनों को याद है हजरतगंज का पुराना कॉफी हाउस। जहां वर्तमान कैफे कॉफी डे है, उससे इनकमटैक्स आफिस की ओर चलने पर दो तीन दुकानों के बाद हुआ करता था। अब भी शायद नवीनीकरण के बाद उसका कोई छोटा संस्करण मौजूद है वहां। वैसे बहुत ठीक से पता नहीं है हमें। पुराने काफी हाऊस में भी भीतर जाने का हमारा अनुभव मात्र एक बार का है। जब हम लोग एक ट़्रेनिंग के सिलसिले में लखनऊ आए थे और उत्सुकतावश पूरा ग्रुप अंदर चला गया था । जानते हैं सबसे मजेदार बात क्या रही थी हम लोगों के लिए कि पौन घंटा भीतर बैठ गप्पे मारने के बाद भी बिना एक कप कॉफी पिए ही हम सब बाहर आ गए थे। हलां कि जो गजब का बहस- मुबाहिसा वाला माहौल था कि लग रहा था कि वहां हर व्यक्ति केवल बोलने बतियाने ही आया है और उसमें हम लोग आपस में बात चीत ज्यादा नहीं कर पाए थे, पर उन दिनों जब रेस्ट्रां में घुसना ही मध्यम वर्गीय लोगों के लिए रेयर टाइप की लक्जरी हुआ करती थी, भीतर बैठ कर बिना अधन्नी खर्चा किए बाहर आ जाना किसी थ्रिलिंग एडवेंचर से कम नहीं था हम लोगों के लिए। आइए, आपको ले चलते हैं कॉफी हाउस के उस माहौल में अज्ञेय जी की कलम के जरिए,
“चन्द्र का विश्वास था कि अच्छे पत्रकार के लिए कॉफी हाउस में घण्टों बिताना आवश्यक है – शहर में क्या हुआ है, क्या होने वाला है, क्या हो रहा है, सब कॉफी हाउस का वातावरण सूंघ लेने भर से भांप लिया जा सकता है। भुवन अनुभव करता था कि दूसरे पत्रकार भी ऐसा मानते हैं, क्यों कि वहां प्रायः उनका जमाव रहता था और सब वहां ऐसे कर्मरत भाव से निठल्ले बैठ कर , ऐसे अर्थ भरे भाव से व्यर्थ की बातें किया करते थे कि वह चकित हो जाता था.....”
छुटभइये नेता, पत्रकार , साहित्यकार बनने की प्रक्रिया में जुटे लोग, सबका जमावड़ा रहता था वहां । इंटरनेट के पन्ने नहीं होते थे न दिनों, पर आदान प्रदान की अनवरत सलिला प्रवाहित होती रहती थी ।
अब हमारे शहर में वह कॉफी हाउस नहीं है पर उसका जिक्र जिंदा है।
“चन्द्र का विश्वास था कि अच्छे पत्रकार के लिए कॉफी हाउस में घण्टों बिताना आवश्यक है – शहर में क्या हुआ है, क्या होने वाला है, क्या हो रहा है, सब कॉफी हाउस का वातावरण सूंघ लेने भर से भांप लिया जा सकता है। भुवन अनुभव करता था कि दूसरे पत्रकार भी ऐसा मानते हैं, क्यों कि वहां प्रायः उनका जमाव रहता था और सब वहां ऐसे कर्मरत भाव से निठल्ले बैठ कर , ऐसे अर्थ भरे भाव से व्यर्थ की बातें किया करते थे कि वह चकित हो जाता था.....”
छुटभइये नेता, पत्रकार , साहित्यकार बनने की प्रक्रिया में जुटे लोग, सबका जमावड़ा रहता था वहां । इंटरनेट के पन्ने नहीं होते थे न दिनों, पर आदान प्रदान की अनवरत सलिला प्रवाहित होती रहती थी ।
अब हमारे शहर में वह कॉफी हाउस नहीं है पर उसका जिक्र जिंदा है।
May 2018
No comments:
Post a Comment