Monday, June 10, 2019

मेंढक मंदिर

जबसे सुना था इस मंदिर के बारे में जाने की बड़ी इच्छा थी पर साइत आते आते बरस बीत गए। हालांकि बताने वाली बहुत कुछ नहीं बता पायी थी पर हमारी कल्पना तो उतने से ही उछाल मारने लगी थी जित्ता जरा सा सुना था। और जाना भी हुआ तो कब, जून की भद्दर दोपहरिया में, पर सोच लिया था कि जाना तो है ही।
सड़कें अच्छी बन गयीं हैं सो यात्रा में कोई परेशानी नहीं हुई। रास्ते में  रुके चाय पीने झरेखापुर की एक दुकान पर,  तिराहे के पास। तबियत खुश हो गयी बालक की बनाई चाय पी कर। भाई लोगों ने समोसा भी खाया और बहुत पसंद भी किया । उसी दुकान पर मिले एक सज्जन ने हरगांव के प्राचीन मंदिर की भी जानकारी दी और कहा जब यहां तक आये हैं तो लौटते में वहां भी हो लीजियेगा।
खैर, हम पहुंचे ओइल के मंदिर और सच मानिये, जीना चढ़ जैसे ही दरवाजे में घुसे कि कुछ पल तो अचम्भित खड़े रह गये। यह मंदिर अपने आप में हमारे शहर या प्रदेश में ही नहीं देश में भी अनूठा है।
मंदिर का निर्माण राय बख्त सिंह जो उस समय इलाके जमींदार थे, ने करवाया था। राय बख्त सिंह जी का देहांत 1838 में हो गया था । राय बख्त सिंह जी के वंशज अनिरुद्ध सिंह जी को 1849 में अवध के बादशाह द्वारा राजा की उपाधि प्रदान की गयी, जिसे बाद में ब्रिटिश सरकार ने वंशानुगत मान्यता प्रदान कर दी। आज भी वर्तमान
राजा विष्णु नारायण दत्त जी की कोठी ओइल में है और राजा एवं रानी साहिबा वहां अक्सर आते हैं। रंजीत के अनुसार राजा तो भोले शंकर हैं, अपने आप में रहते हैं पर रानी साहिबा को मंदिर के बाग की एक एक पत्ती की जानकारी है। खड़े हो के, भले ही धूप हो कि बरखा खुद ही निश्चित करती हैं कि कौन पौधा कहां लगेगा और किसे क्या तथा कितनी खाद दी जायेगी। जितने गर्व और प्रेम से वह रानी साहिबा के बारे में बात कर रहा था, साफ पता चल रहा था कि राजा- रानी अत्यंत लोकप्रिय हैं और गांव के लोगों के करीब भी।
हां तो बात मंदिर की हो रही थी। राय बख्श सिंह जी ने यह मंदिर एक तांत्रिक के संरक्षण में बनवाया था। मंदिर की संरचना, दीवारों पर उकेरी गयी आकृतियों को देख साफ पता चलता है कि यह मंदिर सामान्य से हट कर है। कुछ लोगों का कहना है कि अपनी प्रजा की भलाई के लिए यह मंदिर बनवाया गया था जिससे कि इलाके के लोग हमेशा धन-धान्य से परिपूर्ण रहें। कुछ लोगों का मानना था कि उन दिनों इलाका भंयकर सूखे की चपेट में था और मेघालय के इस कापालिक तांत्रिक के कहने पर वर्षा की कामना से मंदिर का निर्माण प्रारम्भ करवाया गया था। पता नहीं वास्तविक कारण क्या था। कापालिक तांत्रिक के संरक्षण में मंदिर निर्माण थोड़ा सामान्य से हट कर तो है पर इसीलिए तो हमें अपने क्षेत्र में इतना असाधारण मंदिर प्राप्त हो सका।
मंदिर के मुख्य आराध्य शंकर भगवान हैं। ऐसा कहा जाता है कि तांत्रिक के कहने पर ही राय बख्त सिंह जी मां नर्मदा में स्नान करने गये थे, जहां स्नान करते समय  तांत्रिक के कहे अनुसार उन्हें धारा में ही यह शिवलिंग प्राप्त हुआ, इसी कारण इस मंदिर में स्थापित शिव जी नर्मदेश्वर महादेव के नाम से जाने जाते हैं।
 अब आइये बात करते हैं मंदिर की संरचना की। सम्पूर्ण मंदिर एक मेंढक की पीठ पर बना है। इस मंदिर को मंडूक मंदिर या मेंढक मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर की संरचना तांत्रिक यंत्र पर आधारित है। मंदिर जमीन से तकरीबन 100 फीट की ऊंचाई पर है। सबसे नीचे मेंढक का आकार है जिसका मुख सामने की और और पिछला हिस्सा मंदिर के पीछे की और साफ साफ देखा जा सकता है. मेढक की आकृति के पैर दोनों ओर निकले हुए हैं। मेढक पर सीढ़ीयां यज्ञ की वेदी के आकार में बनी हैं । नीचे वाली तीन स्तर पर बनी सीढ़ीयां सत्व, रज और सम, प्रकृति के तीन मूल भूत तत्वों का प्रतिनिधत्व करती हैं। कहा जाता है हमारे पंच मूल भूत तत्व भी इन्हीं सूक्ष्म तत्वों से बने हैं। इनके ऊपर आठ और फिर सोलह दलों के कमल हों जैसे ,ऐसी आकृति है और उसके ऊपर मंदिर स्थापित है।
मेढक के चारों पैरों के पास दोमंजिला बुर्ज से बने हैं. इन सबकी बाहिरी दीवारों पर भी मुख्य मंदिर की भांति देवी, देवताओं, चौसठ योगिनियों के तथा अन्य बहुत से चित्र उकेरे हुए हैं । इन बुर्जों के भीतर जाने वाले दरवाजे पर ताला पड़ा था। यद्दपि बाहर से दूसरी मंजिल के भीतर बने रंगीन भित्ति चित्रों की झलक मिलती है ।
मंदिर के गर्भ गृह में घुसने के लिए बहुत छोटा सा दरवाजा है। झुक कर ही भीतर जाया जा सकता है। ठीक भी है, ईश्वर के समक्ष नत होना ही चाहिए। गर्भ गृह में बीच में करीब तीन फीट ऊंची सफेद संगमरमर की वेदी पर काले रंग के शिवलिंग स्थापित हैं  और मंदिर की एक और विशेषता भी गर्भगृह में देखने को मिलती है। यहां शंकर भगवान के अनन्य भक्त नंदी महाराज खड़े हैं। धीरज की प्रतिमूर्ति शांत मना नंदी यहां बिल्कुल अलग स्वरूप में हैं। कदम आगे - पीछे महाराज कुछ आतुर से दिखते हैं। मंदिर की छत के चंदोवे में रंगीन चित्रकारी है। नंदी महाराज भी सफेद संगमरमर के ही बने हैं। गर्भ गृह में एक तरफ बड़ा सा घंटा लगा है और उसके पीछे एक छोटा दरवाजा है जो कि बंद रहता है। मंदिर में उस समय पूजा कर रहे एक स्थानीय सज्जन ने बताया कि बहुत पहले राज घराने की महिलायें इसी दरवाजे से भीतर ही भीतर पूजा करने आती थी ऐसा कहा जाता है।
गर्भ गृह में प्रविष्ट होने वाले दरवाजे के सामने एक कुंआ है। इतनी ऊंचाई पर कूुंआ, सच अद्भुत । कुंए में पानी भी था और निकल भी रहा था। जमीन के स्तर पर पानी दिख भी रहा था. कहते हैं इसका पानी कभी नहीं सूखता। पानी से ध्यान आया कि जिन मेंढक महाराज की पीठ पर यह मंदिर बना है, उनका मुख खुला है और ऊपर सीढ़ीयों के जोड़ पर एक लाइन में कुछ ऐसे छेद बने हैं कि लगता है जैसे यब प्रबंध किया गया होगा कि जब शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाय तो वह अंत में मेंढक के मुंह से बाहर निकले।

मंदिर परिसर में चारों ओर काफी खुली जमीन है। एक तरफ कुंआ और हैंड पम्प हैं, पेड़ पौधे हैं और बहुत सारे बेल के पेड़ हैं। मंदिर की बाउंड्री की दीवार से लगे बाहर की ओर चारों तरफ ठाकुर द्वारे हैं। पहले कभी इनके दरवाजे मंदिर की ओर खुलते थे पर अब बंद हैं।
मंदिर के शिखर पर पीतल के कलश हैं । कलश पर चारों ओर गौ माता के मुख बने हैं। बताया जाता है कि एकदम शिखर पर कभी पूरा 'ऊं' लिखा था जो अब टूट कर आधा रह गया है।
 मंदिर की दीवारों पर बनी आकृतियों मेंऔर भी बहुत कुछ था जो हम पूरी तरह समझ नहीं पाये । कुछ ऐसा भी कहा जाता है मंदिर के विषय में जो हम देख नहीं पाये। कहते हैं कि सूरज की किरणों के बदलते कोणों के संग शिव लिंग भी रंग बदलता है। यह भी सुना कि पहले मंदिर की छत सूरज के घूमने के साथ साथ घूमती दिखायी देती थी पर  समय और प्रक़ृति की मार ने कुछ ऐसी क्षति कर दी है कि अब ऐसा नहीं होता है।
संरचना ही नहीं यह मंदिर मन में बहुत अलग सी अनुभूति भी जगाता है। गर्भगृह के भीतर सब कुछ शांत हो जाता है। बाहर बैठो तो मन जैसे भागता है पीछे की ओर जानने को बहुत कुछ --- कैसा रहा होगा वह समय, कौन होंगे वे लोग जिन्होंने निर्माण किया होगा मंदिर का। कौन थे वे तांत्रिक, यदि सच में थे तो। नहीं थे तो किसने सुझाया होगा यह अलग सा मंदिर बनाने को। यह भी सुनने में आया कि मंदिर निर्माण पूरा नहीं हो पाया था। चारों ओर बनी बुर्जियों में एक एक में गणेश जी, कार्तिकेय जी, आदि की स्थापना होनी थी पर तांत्रिक महाराज की पूजा में कोई बाधा पड़ जाने से वह संभव नहीं हो पाया,  इसीलिए वे खाली पड़ी हैं और प्रवेश निषेध है।
न जाने कितनी कहानियां, कितनी कथायें समेटे है अपने में यह मंदिर, पर सच नायाब है। अघाया नहीं हमारा मन। एक बार और जाना है और वह भी ज्यादा समय के लिए।
पता चला शिवरात्रि, दीपावली आदि में काफी बड़ा मेला लगता है यहां। बहुत भीड़ होती है ।उस समय कुछ अलग दृश्य रहता होगा ।
वैसे तो हम जब गए समय सही था। न ही भीड़ ज्यादा थी, न आपा धापी। बिल्कुल सुनसान भी नहीं था। क्षेत्रीय लोगों की आवाजाही थी ,जो काफी समय लगा कर विधि विधान से पूजा कर रहे थे। कुछ जोड़े बस यूं ही घूमने आये थे।  कुछ अन्य प्रांतों के पर्यटक भी थे। एक बड़ा पारिवारिक समूह था, मराठी बोलता हुआ।
देखे फिर कब बुलाते हैं भोले बाबा, पर बुलाना जरूर.......................


































सभी चित्र -- कॉपीराइट सुंदर अय्यर







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