''नहीं जी, नाम वहीं लिखे जाते हैं, जहां आदमी टिक कर रहे- तभी तो घरों के नाम
होते हैं, या फिर कब्रों के।" निर्मल वर्मा, 'कव्वे और काला पानी' से।
लेकिन घर भी
मकान हो जाते हैं और फिर बहुत धीरे धीरे तब्दील हो जाते हैं खंडहरों में, भीतर बाहर सब और नाम बेसबब सा खुदा रह जाता है। कई बरस पहले की याद चमक गयी मन
में जब हमने कब्रों को घर होते देखा था। नहीं , चले गये लोगों का तो घर होती ही हैं कब्रें।
हमने तो उन्हें जिंदगी से सराबोर घरों में तब्दील होते देखा है।
उन दिनों
हमारी पोस्टिंग आगरा में थी और हमने एक नयी बनती , बसती कॉलोनी में घर लिया था। रिक्शे से बैंक
आते जाते रास्ते में एक बहुत बड़ी मैदान सी जगह में कुछ कच्ची- पक्की कब्रें बिखरी
हुई थीं। काफी बड़े- बड़े छायादार पेड़ भी थे बीच बीच में। कोई बाउंड्री न होने के
कारण सब कुछ साफ दिखता था। पैदल आने -जाने की पगडंडियां भी बन गयीं थीं और कुछ
घुमंतु प्रजाति के लोग जो जगह जगह तम्बू लगा कर रहते थे और अपने अपने हुनर के
हिसाब से काम भी करते थे , वे भी अक्सर अपने तम्बू बीच की खाली जगहो में लगा लिया करते थे। इसमें छोटे
स्तर पर मिट्टी के खिलौने बनाने वाले होते थे, साइकिल के पहिए के बीच में लगने वाले हरे, लाल, पीले रंगों के ब्रश के बाल जैसे सजावटी सामान बनाने वाले होते थे और भी उन
दिनों प्रचलित बर्तन में कलई, जड़ी बूटी, नट आदि किस्म किस्म के काम करने वाले लोग रहते थे। जिंदगी
अपनी पूरी रौ में बहती थी। कुछ कब्रें साबुत थी, पक्की, चार खम्बों , पक्की छत और
ऊंचे चबूतरे वाली। इन्हीं में से किसी में कभी- कभी बँधा रहता था धोती से बनाया
गया पालना और आराम से सोता था नवजात शिशु। उसकी मां भी जैसे निश्चिंत हो जाती थी
उसे किसी बुजुर्ग के साये में सौंप और करती रहती थी अपने काम काज, कभी घन
चलाना, कभी टिक्कड़ सेंकना। माटी के नीचे जो भी होगा, अच्छी लगती होंगी न उसे भी
उगती जिंदगी नरम- गरम सांसें। अक्सर देखा था, अंधियारा घिर जाने के बाद, वहीं पास
चूल्हे की आग सुलगती थी, अम्मा को घेर बच्चे बैठे रोटी खा रहे होते, तो कब्र के
सिहराने जल रहा होता एक दिया। कितनी अच्छी रीत थी न, जलाने वाली को नहीं मालूम
होता था कौन था, कब चला गया था, कैसे गया था, उसे तो इतना मालूम था कि इनकी छत तले
उसके बच्चे बारिश होने पर भीगते नहीं थे, जेठ के ताप से भी बचते थे और पूस की रात
आसमान से झरती ठंड से भी। सो जोत जगाये रखना तो उसका धर्म बनता था न।
मृत्यु की ऐसी
निस्संग स्वीकृति, जीवन और मृत्यु का यूं हाथ थामे चलना कैसी तो आश्वस्ति देता है
मन को।
पेड़ के तने
पर खोद कर, ऐतिहासिक इमारतों में जहां तहां उकेर कर, चट्टानों पर लिख कर या फिर घर
और कब्र पर ही लिख कर नाम, भला कौन सी अमिट छाप छोड़ पाने का मोह पाले रहते हैं हम।
शाश्वत तो जीवन तभी होता है जब वह खुद को मृत्यु का ही एक हिस्सा मान लेता है।
छाया, सुंदर अय्यर
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