Thursday, August 13, 2009

यूं तो नया भी बहुत कुछ है लिखने को पर कभी कभी लगता है पुरानी यादो को भी सहेज के रखते ही चले .डायरी के पुन्ने तो पीले भी हो चले है और भुरभुरे भी इसीलिये उन्हे यहां उतार रहे है.और फ़िर जो स्थान आज से २४ साल पहले जैसे थे आज वैसे तो नही ही रह गये है तो उनका वह स्वरूप भी सहेज लेना चाहते है.
६.२.८५. ..................इलाहाबाद से जबलपुर की ओर बढ रहे है.रेलगाडी की खिड़की से भागते हुये द्रिश्यो को आंखो मे भर मन मे उतार लेना प्रारम्भ से ही अत्यंत प्रिय लगता रहा है हमें और फ़िर इस रास्ते के द्रिश्यो से तो प्रथम मिलन है हमारा.वैसे भी मध्य प्रदेश की लाल बजरी,काले स्लेटी शिला खंड ,अपने चमकते घाघरे का घेर पकड़ कुशल नर्तकी की तरह पल पल बदलती मुद्राओ एवं भंगिमाओ का सम्मोहन बिखेरती उछल उछल चट्टानो के सीने पर पैर रख अपने नुपुरों की मधुर ध्वनि से पलाश के वन गुंजाने वाली जल धाराये हमे सदा से ही अपनी ओर एक अद्रिश्य डोर से बरबस खींचा करती हैं.
शंकरगढ की सीमा प्रारम्भ होते ही अचानक आंखो के सम्मुख एक साथ सैकड़ो ज्योति पुंज झिलमिला उठे.सफ़ेद सिक्ता के ऊँचे ऊँचे टीले सूर्य की सुनहली रश्मियों के स्पर्श से जगमगा उठे थे.बीच बीच में चमकने वाले कण तेज स्फ़ुलिंग की तरह झट से मुस्कुरा उठते थे .ऐसा लग रहा था अपनी स्वर्णिम किरणो की अंजुरी बांध सूर्य ने धरती के आंचल में असंख्य बहुमूल्य रत्न उड़ेल दिये हो.
और देखो तो कितनी तेजी से द्रिश्य परिवर्तन हो रहा है.कैसी अद्भुत नाट्य्शाला है प्रक्रिति की .अभी कुछ पल पहले आंखे सुनहले रुपहले प्रकाश एवं रंगो के रेशमी तन्तुओं पर फ़िसल रही थीं और अब है जैतपुरा का यह लाल गेरुआ चूनर मे लिपटा रंग बिरंगा रूप.ढेर ढेर गेरु के पहाड़.हरे चमकीले पत्तो से लदे पेड़ो के झुरमुट मे बसे घरो की चटक दीवारे,लाल छते.कैसा अद्भुत और प्यारा सम्न्वय है रंगो का.इतने प्यारे रंग ऐसी प्यारी आभा वाले तो बस प्रक्रिति के ही कैनवस मे द्रिश्टिगोचर होते हैं.
पलाश के जंगल............और करौंदे की फ़ूली झाड़ियां .हवा में खट्टी मीठी गंध घुल रही है.कोमल कोमल हरी पत्तियों के बीच दंतुली खोल भोलेपन से मुस्काते छोटे छोटे फ़ूल.करौंदे की झाड़ी कैसी रससिक्त लगती है.अजीब लगेगा शायद कि भला झाड़ी का रस से क्या सम्बंध,पर है रस भी और शक्ति भी.साफ़ सुथरे बंगलो के कुशल हाथो से सवांरे गये लान में लगे डेहलिया,रजनीगंधा और चम्पा में रस है तो पर इतना महत्व पूर्ण कहां जितना पत्थरों की संगत में कांटों की छातीसे लिपट मुस्काते इन करौदों के नन्हे नहे फ़ूलो मे.मन कैसा खुशी से उमगता है प्रक्रिति की इन सौन्द्रावलियों के बीच.मन करता है दौड़ कर जायें उस थिरकती जल धारा केसंग ताल मिला ढेर सारी रुपहली झांझरो के नुपुर बजा अपना लाल हरा आंचल उड़ा इतना नाचें इतना नाचें कि आत्मसात कर ले यह प्रक्रिति हमें अपने भव्य व्यक्तित्व में.बस यूं हे घुल जाय हम इन अनाम फ़िजाओ में.

4 comments:

Divya Narmada said...

सरस भाषा, सहज शैली, कथ्य है रोचक सभी.
लग रहा है घुमक्कड़ बन, घूमने चल दो अभी.

namita said...

सलिल जी ..............धन्यवाद .आपकी टिप्पणी भी कितनी सरस है.

Sufi said...

Dear di, Bahut achha likha hai, sach hai purane dairy ke
panne kitni hi beeti yaaden samete rehte hain. Dobara unhe padhna kisi pichhli gali se gujarne Jaisa haseen lagta hai. Aapki kalam ka kamaal behadd khobsurat hai.
Love u,
Priya

Nupur Roopa said...

Namita,

Lagta hai hamare shabd kho gayein hai...aapke shabdon ne hame bhi apni diary ki yaad dila di...
Railgadi ka safar hame bhi atyant priya hai aur jo sab kuch aapne likha hai lagta hai hamari nazar se hi dekha hai...

Just lovely!!!!

Nupur