Monday, February 14, 2011

चामुन्डा देवी मे वो दोपहरी............



दिन का दूसरा पहर हो चला था जब हम लोग चम्बा के चामुन्डा देवी मन्दिर पहुचे .यदि उस मन्दिर के पीछे बने नागर शैली वाले शंकर भगवान के मन्दिर पर नजर नही पड़ी होती तो शायद हम लोग मोड़ से आगे की चढाई चढते चले गये होते.
पत्थर के ऊंचे चबूतरे पर छोटा सा पहाड़ी शैली मे काष्ठ निर्मित माता का मन्दिर. चबूतरे से नीचे जाती सात आठ सीढीयां एक और थोड़ा बड़े चबूतरे पर उतर रही थी और उसके नीचे बड़े बड़े गोल पत्थरो का खुला सा प्रांगण.मंदिर के चबूतरे से घाटी मे छितरा हुआ चम्बा उतरते दिन की धूप मे ऊंघता हुआ लग रहा था.नीचे बहुत नीचे बहती रावी की पतली सी धारा सामने की पहाड़ियों से कुछ यूं लिपट कर बहती दिखायी दे रही थी जैसे मजबूत कन्धो पर सिर टिकाये सोती आशवस्त किशोरी.दूर बहुत दूर पहाड़ियों की चोटियों के परे घर लौटती सूरज की किरणे बादलों के पास पहुचते ही जैसे शरारत से भर उठती और उन्हे अपने नर्म स्पर्शो से गुदगुदा जाती.बादलो का चेहरा आल्हाद से भर कैसा रौशन हो उठता और वे सिकुड़ते सिमटते एक दूसरे को धकियाते हुये इधर उधर भागने लगते.

मंदिर मे उस समय भीड़ बिल्कुल नही थी.चारो ओर एक मीठी सी चुप पसरी हुई थी. मंदिर के प्रांगण मे पीपल का एक भरा पूरा पेड़ उसके चारो ओर बने गोल चबूतरे पर लाल कपड़ो मे लिपटी कुछ मूर्तियां और हवा की मद्धम मद्धम धुन पर थिरकते पीपल के ताज़ा हरे पत्ते सब मिल भरोसे और विश्वास का एक कवच बुन रहे थे.यूं ही सिर उठा कर ऊपर देखा तो नीले चमकते आसमान ने जैसे अभय मुद्रा मे हाथ उठा दिया.हमे नही मालूम वह असर मन्दिर की पवित्र देहरी का था,चारो ओर से हमे घेरे प्रक्रिति के खूबसूरत ताज़ातरीन द्रिश्यो का था या दूर दूर तक फ़ैली शान्ति का पर वे कुछ पल किसी करिश्मे से कम नही थे जब हम खुद से और अपने आस पास से इतना सामंजस्य अनुभव कर रहे थे,एकाकार होने की अनुभुति.
यह मन्दिर सत्रहवी शताब्दी मे राजा उम्मेद सिंह ने बनवाया था.मन्दिर के एक ओर पक्की सड़क है जिससे किसी भी वाहन द्वारा वंहा तक पंहुचा जा सकता है और दूसरी ओर तीन सौ से भी अधिक सीढीया है जो चम्बा नगर की ओर उतरती है.कहते है पहले मंदिर तक केवल इन्ही सीढीयो द्वारा पंहुचा जा सकता था.वे पहाड़ियां जिन पर मंदिर स्थित है उन्हे शाह मदार के नाम से जाना जाता है.मंदिर मे कई पौराणिक संदर्भ बहुत सी सुन्दरता से उकेरे हुये है.
मंदिर एतिहासिक एवंम स्थापत्य द्रिष्टिकोण से तो महत्वपूर्ण है ही लेकिन मेरी यादो मे यह एक अलौकिक अनुभव के रूप मे हमेशा बना रहेगा.





(pics copyright-sunder iyer)

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