Tuesday, October 16, 2012

एक सैर उजाले की ओर

कल से नवरात्री शुरू हुई और सबेरे का प्रारूप भी थोड़ा बदल गया.यूं भी सितम्बर के आते ही भीतर बाहर सब धीरे धीरे करवट ले उठ सा बैठता है; कुछ ताज़ा -ताजा,खिला-खिला सा.
सबेरे उठ कर ,नहाया -धोया और पौने छः बजे तक हम सड़क  पर थे .कल से टहलने मे मंदिर हो कर आना भी शामिल हो गया है ,इसलिये नहाना भी निकलने से पहले ही होने लगा है.सड़क किनारे लगे पेड़ों पर सफ़ेद गुच्छे वाले फ़ूल आने लगे हैं.हरी पत्तियों के बीच से झांकते सफ़ेद फूलों के लट्टू जैसे गुच्छे,नट्खट बच्चों के झुंड से कभी  हवा के संग और कभी आपस में चुहल कर रहे थे.देख कर मुस्कुराहट खुद ब खुद होंठो पर आ गयी.
और आगे बढे और हम अपने पसंदीदा हरसिंगार के नीचे थे.हलकी सी नम सुबह के धुंधलके में आहिस्ता आहिस्ता झरते हरसिंगार  को  जीना हमें हमेशा अपने भीतर की यात्रा की ओर मोड़ देता है.बाहर का सब कुछ -सड़क,आते जाते लोग,सर्र से निकल जाती इक्का दुक्का गाड़ियां सब जैसे आंखों के सामने होते हुये भी नहीं होते हैं. कितना वीतरागी होता है ये हरसिंगार भी-पूरे उठान पर होता है,समूचा खिला और ताजा -तरीन ,फ़िर भी बिना किसी न-नुकर के,डाल से अलग हो जमीन पर आ जाता है.क्या डाल पर लगे लगे ,हवा के संग इठलाने का उसका मन नहीं करता होगा ?जिस शांति और इत्मिनान से वह जमीन की ओर कदम कदम बढता है ,उसे देख यह भी नहीं लगता कि उसे जबर्दस्ती धकेलना पड़ता है.अपनी नियति को अपना  प्रारब्ध मान उसे कर्म सा अंजाम दे जाने का कितना अद्भुत समन्वय है.और भी एक बात है ,अगर ये हर्सिंगार के फूल यूं ही डाल पर लगे लगे मुरझाते और उसके बाद झरते तो क्या उसकी डंडी का चटक केसरिया रंग हमें यूं याद रह पाता.शायद तब हम जान भी नहीं  पाते कि उन नन्हें-नन्हें सफ़ेद फूलों के पीछे इतने रंग भरे छंद भी रचे हुये हैं.तो क्या हमारी सुबहों में अंजुरी भर रंग भरने को ही यूं मुस्कुराते हुये अपने अंत को गले लगाता है हरसिंगार और एक हम हैं कि सुबह सबेरे सैर को जायेंगे तो दूसरों के द्वारा पाले पोसे पेड़ों पर लगे फूलों को एड़ियों के बल उचक उचक तोड़ेंगे लेकिन जमीन पर बिछे हरसिंगार को पैरों तले रौंदते हुये चले जायेगे.इन्सान हैं न हम-जो पहुंच से थोड़ा दूर है,जो मुश्किल से हाथ आता है उसके पीछे भागेंगे लेकिन जो हमारे लिये सब कुछ सहर्ष न्योछावर करने को तैयार है उसकी कद्र नहीं करेंगे.
चलिये अब आगे बढते हैं.हां तो हमने हरसिंगार के नीचे बैठ फूल इकट्ठा किये .हमें यूं जमीन से हरसिंगार के फूल चुनना हमेशा बहुत अच्छा लगता है.एक एक फूल को पोरों पर मह्सूसना और फ़िर उन्हें अंजुरी में सहेजना.हर पल एक रेशमी एह्सास भीतर उगता है और मन कैसा तो तरल हो उठता है.
और फ़िर सबेरे की सैर का आखिरी पड़ाव-मन्दिर.दियों की लौ से बिखरता प्रकाश,हवा में घुलती धूप,अगर की खूशबू,मुर्तियों पर चढे रंग-बिरंगे फूल,पूजा-अर्चना करते,इधर उधर आते- जाते भक्त,कोई किसी कोने में ध्यान मग्न है तो कोई शंकर भगवान को जल चढाते हुये सस्वर पाठ कर रहा है.मन स्वतः ही पावन हो उठता है.हमने भी मां के सामने बैठ पाठ पूरा किया,तब तक आरती शुरू होने का समय हो गया था.पुजारियों ने कई कई बत्तियों वाले बड़े दिये हाथों में ले लिये. शंख की गूंजती ध्वनि,  घंटियों की जलतरंगी टुनटुनाहट, घंटों की टंकार और एक लय मे उठती गिरती तालियों की धुन के ऊपर छाये आरती के बोल--अपना आप कीचड़ से बाहर निकल आये कमल सा सुथरा और ताज़ा लगने लगा.
कोलोनी के द्वार पर ,सड़क के बीचों बीच शंकर भगवान की तकरीबन पन्द्रह फ़ीट ऊंची प्रतिमा के पीछे सुर्य भगवान चमक रहे थे.सड़क किनारे गेंदे के फूलों की दुकानें पीली-लाल रंगोली सी सज रही थी.बच्चे स्कूल के लिये निकलने लगे थे.एक और दिन हुलसता सा हमारे इन्तज़ार मे था.









१७.१०.२०१२
सभी छायाचित्र सुंदर अय्यर द्वारा.









4 comments:

Incognito Thoughtless said...

यहां हम भी उपौकाज के उसी रास्‍ते पर जाते हैं जहां हरसिंगार बिखरे पड़े होते हैं। रोज़ ही ढेर से हरसिंगार उठाकर लाते हैं और अपनी छोटी सी मेज पर सजा देते हैं।

पर यहां हमें दो तरह के हरसिंगार मिले....। न न आश्‍चर्य से आंखें न फैलाइए....।
एक मेन रोड पर...किसी के घर के दरवाजे पर लगे हए, बिखरे हुए, जहां से तमाम गाडि़यां अपना विषैला धुंआ छोड़ती हुई सर्र सर्र निकलती हैं.....ये फूल कुछ अजीब से पीलियाए हुए होते हैं। उनमें ताज़गी का आभास नहीं होता....सुगंध जा चुकी होती है...कमरे का सूनापन नहीं भरता।


एक रे‍लवे गेस्‍टहाउस के दरवाजे के दोनों ओर लगे और जमीन पर अपनी चादर बिछाए...। ये जरा सन्‍नाटा एरिया है। यहां से ज्‍यादा वाहन नहीं गुज़रते। रेलवे अधिकारियों का रिहायशी इलाका है...। ये फूल कुछ अजब सी सफेदी और ललाई लिए हैं और बेहद ताज़गी से भरे हुए....। छूते ही उसी स्‍पर्श का आभास होता है जो आपने बताया है। कमरे में लाकर रख दो तो कमरा खिल उठता है, एक महमहाहट सी भर जाती है और आंखों में ठंडक का एहसास होता है....।

हम पहले वाले को कहते हैं....ये हरसिंगार बेचारा..प्रदूषण का मारा....।

पर सचमुच सुबह का ये वक्‍त बहुत सुन्‍दर होता है...। मैं आपके घर से उस सड़क तक घूम आयी जिस पर आप रोज सुबह सैर करने जाती हैं...हालांकि मुझे नहीं पता कि आप किधर जाती हैं। उस मंदिर के घंटों की संगीतमय धुन कपूर और घी की महक भी भर गयी है नाक में....
सब कुछ दृश्‍यमय हो गया है..।

अनुजा

namita said...

अनुजा...सच यह सुबह का वक्त बिल्कुल अपना होता है.हमें धुंधलके में अकेले ही सैर पर निकलना अच्छा लगता है क्यों कि तभी हम अपने नजदीक हो पाते हैं.इन महीनों का तो आकर्षण ही कुछ और होता है.सब कुछ उत्सवी और रंग ,सुगंध से भरा भरा.पावन सा.
हमारा हरसिंगार तो मेन रोड पर ही है पर हम सबेरे जल्दी निकलते हैं तो जाते समय हमें ताजे ही मिल जाते हैं फूल.
कल जाना तो अपने हरसिंगार से हमारे वालों की ओर से सुप्रभात बोल देना.
नमिता

Sufi said...

.इन्सान हैं न हम-जो पहुंच से थोड़ा दूर है,जो मुश्किल से हाथ आता है उसके पीछे भागेंगे लेकिन जो हमारे लिये सब कुछ सहर्ष न्योछावर करने को तैयार है उसकी कद्र नहीं करेंगे...सही तो है ... यही तो इंसानों की फितरत ...! वैसे बेहद खूबसूरत दृश्य बिम्ब है ...जानती हो दी जब मैं सुबह तीन बजे सोती हूँ तो एक चिड़िया जाग जाती है ...सच में इतनी प्यारी किचर पिचर करती है जैसे खुद से ही बातें कर रही हो ...उसकी आवाज़ इतनी प्यारी है कि मैं हमेशा उसे सुनते सुनते ही सो जाती हूँ ...और अगर नींद न आये तो ऐसा लगता है जैसे वो मुझ से ही बात कर रही है ...सच प्रकृति खुद में इतनी सम्पूर्ण है इतनी हसीं उसके पास जाओ तो कभी अकेलापन महसूस ही नहीं होता ...! हरसिंगार का वर्णन बहुत अच्छा लगा ...!

namita said...

अरे प्रिया..तुम्हे पता नहीं क्या कि उस चिड़िया को कौन भेजता है?तुम्हारे सोने का समय कुछ लोगों के उठने का समय होता है.तुमसे ही तो बाते करने आती है वो जिससे तुम जल्दी सोना और जल्दी उठना शुरु कर दो और प्यारी तो वह होगी ही ,आखिर भेजता कौन है?
सच है प्रक्रिति तो खुले हाथों लुटाने को तैयार है,बस हमें लेना सीख्ना होगा.पेड़,पौधे,प्क्षी,आकाश,पहाड़ ,नदियां सब हमें भीतर तक इतना भर देते हैं कि सच अकेलेपन की तो बात ही दिमाग मे नहीं आती.
प्यार
दी