Monday, December 10, 2012

देवा मेले का वह एक अश्व...

गांव के मेलों की अपनी एक अलग आत्मा होती है-माटी सी सोंधी,पानी सी तरल और हर मेले मे आने वाली भीड़ मे होती हैं अनगिनित कहानियां। यूं तो हमारे देश की जमीन पर से धीरे धीरे गांव ही अंतर्ध्यान जा रहे हैं तो फ़िर गांव वाले मेले भला कैसे बचे रह पांयेगे पर फ़िर भी अब भी बहुत सारे मेले नियमित रूप से लगते है। सच है कि बदलते समय के साथ इन मेलो का मिजाज भी काफ़ी हद तक शहरी होता जा रहा है लेकिन अब भी इनमे बहुत सारी ऐसी चीजें देखने को, बहुत कुछ ऐसा अनुभव करने को मिल जाता है जिन्हें अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में कहीं बहुत पीछे छोड़ आये हैं।
हाल ही में हमने भी ऐसे ही एक मेले में एक दिन गुजारा.इस बात को तकरीबन एक महीना तो होने जा ही रहा होगा पर न तो मेले की यादें धुंधलायीं हैं, न ही वो कहानियां भूली है। यह देवा शरीफ़ के उर्स पर लगने वाला दस दिन का मेला था।
बाराबंकी से तकरीबन 12 कि.मी. और लखनऊ से करीब 24 कि.मी. की दूरी पर देवा मे सैयद वारिस अली शाह की दरगाह है.इस दरगाह के प्रति सभी धर्मो के लोगो के मन मे समान रूप से आदर और श्रद्धा है।
दस दिनों तक चलने वाला यह मेला बहुत बड़े क्षेत्र मे फ़ैला होता है। इस मेले में पशुओं की खरीद फ़रोख्त का कारोबार काफ़ी बड़े पैमाने में होता है। नहर किनारे के मैदान के बड़े हिस्से में घोड़े बंधे हुये थे। घोड़ों के व्यापारी परिवार सहित मेले मे आते हैं पूरे दस दिनों के लिये। उन दिनों उनका घर टेंट मे होता है और चूल्हा खुले आसमान के तले।
घोड़े तो बहुत थे मैदान में पर इस एक घोड़े ने बरबस हमें अपनी ओर खींच लिया। चारों पैरों में रस्सियां बंधी थी, जिनका दूसरा सिरा जमीन पर गड़े खूंटों से मजबूती से बंधा था। एक रस्सी गर्दन मे भी थी। इतने बंधनों के बावजूद इस घोड़े के वजूद मे बेइन्तहा ठसक थी। वो रस्सियां उसके कैद में होने का नहीं वरन उसकी ताकत का, उसकी सामर्थ्य का एह्सास दिला रही थीं। हल्के से खम के साथ तनी उसकी गर्दन मे आत्मसम्मान था पर अहंकार नहीं। पता नहीं क्यों इस घोड़े को देखते हुये हमें Victor E.Frankl की ये पंक्तियां याद आ गयीं...
" Everything can be taken from a man but one thing: the last of human freedoms- to choose one's attitude in any given set of circumstances,to choose one's own way."
मेले में पशुओं से सम्बन्धित सामानों की भी काफ़ी दुकानें थीं। समय के साथ साथ इस चीजों का स्वरूप भी बदल गया है। पशुओं को बांधने वाली रस्सी जिसे पगहा भी कहते हैं, उनके मुंह को बंद करने के लिये बांधी जाने वाली जाली, ये सब पहले रस्सियों से बनायी जाती थी, बान, मूंज, सन की रस्सियों से पर अब ये रंग बिरंगी प्लास्टिक की डोरियों से बनी हुयी थी। हां बैलों, गायों और भैसों के गले में पहनाई जाने वाली बड़े बड़े कांच के मनकों की मालायें अभी भी वैसी ही थीं।

इसके अंदाज ने इसे सबसे ऊपर ला खड़ा किया.

बिकने की तैयारी में बाज़ार मे खड़े घोड़े.पूरे मैदान में ऐसी कई कतारे थीं.
ग्रामीण क्षेत्र से आये ये लोग निश्चय ही अपने अपने पशुओं के हिसाब से चीजों का जायजा ले रहे हैं या फ़िर चीजों के बदलते स्वरूप का विष्लेशण चल रहा है.क्या पता इन दादा जी के हाथ मे कभी रही हो किसी इक्के,तांगे मे जुती उनकी प्यारी घोड़ी की रास और इन रंग बिरंगे आभूषण,अलंकारों को देख मन भीग रहा हो इस चाह से कि काश वो होती आज तो उसके लिये भी कुछ न कुछ जरूर ले जाता इस मेले से.या फ़िर घोड़ी अब भी हो पर मन की इच्क्षा और जेब के बीच का फ़ासला आड़े आ रहा हो.ये अबूझ सी कहानियां ही इन मेलों का सबसे बड़ा आकर्षण होती हैं मेरे लिये.

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