Wednesday, October 19, 2022

महेश्वर में पहले दिन की घुमक्कड़ी

जैसा कि हमने पहले बताया हम लोग पाँच तारीख को यानि पाँच सितम्बर 2022 को महेश्वर पंहुच गए थे। रिसोर्ट में दोपहर का भोजन कर के हम लोग निकल पड़े घूमने। रिसोर्ट शहर के शोर शराबे से अप्रभावित शांत स्थल पर स्थित है। गेट के बाहर सड़क के पार एक रास्ता सप्तमातृिका मंदिर के बगल से नीचे की ओर जाता है। सीढ़ीयाँ बनी हुई हैं। इन सीढ़ीयों से उतर हम नर्मदा के घाट पर पहुंच गए। यहाँ से घाट-घाट ही आगे बढ़ते जाने का रास्ता है। यह छोटा सा घाट है। नीचे चौड़ी वाली सीढ़ी पर एक छोटी सी मठिया बनी है जिसमें शिवलिंग स्थापित हैं। हम लोग नदी किनारे के संकरे रास्ते पर चल दिए। थोड़ी दूर चल कर रास्ते से सटा एक लम्बा चौड़ा कच्चा चबूतरा था और इस चबूतरे से लगा थोड़ी और ऊंचाई पर बड़ा टीन शेड था जिसमें बैठने की जगह बनी हुई थी। इस टीन शेड के पीछे बायीं तरफ को ऊपर जाती सीढ़ीयाँ थी जो एक मंदिर तक जाती थीं। सीढ़ीयों के आस- पास कुछ घने- पुराने पेड़ भी थे। हम लोग जब रास्ते से जा रहे थे तो उसके पास वाले ऊँचे चबूतरे पर कंडे की आग सुलगा कर कुछ लोग बाटी सेंक रहे थे। मिट्टी पर ही ढेर लगी बहुत सारी बाटियाँ। उन लोगों ने हम लोगों को भी बाटी खाने को आमंत्रित किया। यह एक समूह था जो धार से आया था, छोटी काशी में मंदिर भ्रमण हेतु। हमें बहुत अच्छे लगते हैं ऐसे समूह। एक साथ अपने गाँव मोहल्ले से निकलते हैं तीर्थाटन के उद्देश्य से। थोड़े दिन को रोजमर्रा की चिंताओं से मुक्त और जिस भी स्थान पर जाते हैं, जाने अनजाने लोगों से खुले दिल से मिलते हैं, बतियाते हैं। हम लोग रिसोर्ट से भर पेट लंच कर के न निकले होते तो उनकी बाटियों का स्वाद जरूर चखा होता, पर उस समय तो उनसे थोड़ा बतिया कर आगे बढ़ गए।
आगे एक और घाट मिला। घाट था तो रास्ते ने चौड़ा हो कर एक समतल चबूतरे का आकार ले लिया था। नर्मदा की ओर सीढ़ीयाँ जल तक उतर गयीं थीं। सीढ़ीयाँ चबूतरे के दूसरी ओर भी थीं जो ऊपर उठती हुई एक जर्जर से दरवाजे की देहरी पर रूक गईं थीं। यह दरवाजा एक ऊंची चाहरदीवारी में जड़ा था जिसके भीतर से बड़े- बड़े पेड़ बाहर को झाँक रहे थे। दरवाजा बंद था। देह जर्जर हो गई थी पर कपाट अपने दायित्व बोध के प्रति पूरी तरह सजग थे। पता नहीं क्या था वहाँ जिसके व्यक्तिगत गोपनीयता के अधिकार की रक्षा में वे पूरी तरह से सजग थे। बड़े -बड़े पेड़ सीढ़ीयों के दोनों तरफ भी थे। सीढ़ीयों के दोनों तरफ ऊँचे चबूतर भी थे। हम लोग थोड़ी देर यहाँ रुक कर बैठे। इ्क्का- दुक्का लोग जल में स्नान कर रहे थे। सीढ़ीयों चबूतरों पर भी एक दो लोग लेटे हुए थे। एक अजब सी विश्रांति छाई थी।ऐसा असर था कि हम लोग भी बस चुपचाप बैठे थे, ऐसा लग रहा था कि उस पल, उस जगह जैसे शब्दों, आवाजों की आवाजाही पर निषेध है या फिर बेमानी से हैं शब्द। क्यों ऐसा लग रहा था पता नहीं, पर था ऐसा। कोई उद्गिनता या बेचैनी नहीं बस एक अजब सा ठहराव अनुभव कर रहे थे। जब वहाँ से उठ कर हम लोग चलने लगे तब नजर पड़ी चबूतरे की एक दीवार पर लिखा था कि इस घाट पर लोग पूर्वजों के तर्पण अनुष्ठान आदि करते हैं। तो क्या अनजाने ही कोई बात हमारे मन तक पहुंच गई थी। क्या अनुष्ठानों के श्लोकों, मंत्रों ने उतनी जगह की हवा में अपनी कालजयी उपस्थिति बना ली थी।
कुछ देर सुस्ता कर थोड़ा और आगे बढ़े। एक और घाट मिला। यह पहले वाले से अधिक व्यवस्थित था। यहाँ पर भी सीढ़ीयाँ ऊपर को जा रहीं थीं पर सीढ़ीयों के अंत में एक बड़ा फाटक था। फाटक के दोनों ओर ऊंची दीवार थी।
हम लोग फाटक के अंदर गए तो आयताकार खुले प्रांगण सें आमने- सामने दो छतरियाँ बनी हुईं थीं, जिनकी बाहरी दीवारों पर बहुत सुंदर नक्काशी थी। ये छतरियाँ अवश्य ही किंन्हीं राजसी व्यक्तित्वों की समाधियाँ रहीं होंगी, जिन पर मंदिर बने हुए थे। जिस समय हम लोग वहाँ पहुंचे मंदिर खुले नहीं थे। इनके विषय में हमें कोई विशेष जानकारी नहीं प्राप्त हो पाई, किंतु ये छतरियाँ स्थापत्य कला की अनुपम दृष्टांत हैं। दीवारों पर बनी जालियाँ, मेहराबें और दीवारों पर उकेरी आकृतियाँ सब मिल कर ऐसी शोभन लगती हैं कि वर्षों बाद इन्हें निहारते हुए हमारा मन उन अनाम कलाकारों के प्रति श्रद्धा एवं प्रशंसा से भर उठता है।
उस समय प्रांगण में हम लोगों के अतिरिक्त एक बाबा जी और थे। ये बाबा जी यात्रा पर थे। वे बिहार से यात्रा करते हुए महेश्वर पहुंचे थे। एक बैग में अपना सामान साथ लिए चल रहे थे।आगे का बहुत कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं था उनका। ऐसे लोगों से मिलने के बाद मन में बहुत कुछ उठता है। बाबा जी बहुत शांति से बैठे थे और बहुत बातें करने का मूड नहीं था उनका,वरना पूछते कहाँ से चला जीवन और कैसे यहाँ तक पहुचा। लेकिन होता है न कई बार कि हमारे भीतर का जंगल ही इतना हुआहाती होता है कि बाहर की यात्रायें भी आसानी से उससे बाहर नहीं निकाल पाती हमें।
खैर, बाबा जी को उनके अपने साथ छोड़ हम बढ़ गये प्रागंण के दूसरे सिरे पर बने एक और फाटक की ओर। फाटक तक पहुंचने को बनी सीढ़ीयों पर चढ़ हम फाटक के दोनों ओर बने चबूतरों में से एक तक पहुंच कर बैठ गए।वहाँ बैठे हुए चारें ओर देखते, वातावरण को आत्मसात करते ऐसा लग रहा था जैसे हम इतिहास के किसी बिसरे सफे पर ठिठक गए हों। दीवारों के कंगूरों पर मौसम दर मौसम बारिश की भेंट शैवाल हरियल घाघरा फैलाए जम कर बैठी थी। कहीं कहीं बीच-बीच में इक्का- दुक्का पौधे भी सिर उठाए खड़े थे। दीवार पार से कुछ बड़े और बहुत पुराने पेड़ों की शाखाएं भी अंदर को झांक रहीं थीं। एक अजब सी शांति और ठहरापन था वातावरण में। थोड़ी देर में फाटक से निकल कर एक और बाबा जी आए और फाटक के दूसरी तरफ वाले चबूतरे पर बैठ गए। इन बाबा जी ने स्वयं ही बातों का सिलसिला शुरू किया और काफी देर बतकही हुई। वर्तमान में बाबा जी सपत्नीक महेश्वर में ही निवास करते हैं पर महेश्वर न उनका पैतृक निवास स्थल है, न ही वे किसी पूर्व योजनानुसार वहाँ आ कर बसे । कुछ यूं समझिए कि महेश्वर ने उन्हें एक बार आने पर जाने ही नहीं दिया। बाबा जी के घर में एक पारिवारिक दुर्घटना के कारण दोनों पति- पत्नी का मन बहुत व्यथित था। उसी समय उनके गाँव घर के आस- पास से कुछ लोग नर्मदा परिक्रमा के लिए निकलने वाले थे तो बाबा जी और उनकी पत्नी भी उनके साथ हो लिए। मैया नर्मदा ही मन की हलचल को शांत करने का कोई रास्ता निकालेगीं। उस क्षेत्र में माँ पर ऐसा ही अगाध विश्वास है लोगों का और माँ भला कब निराश करती हैं। परिक्रमा करते हुए यह समूह पहुंचा महेश्वर। जैसी की प्रथा है परिक्रमावासियों को लोग रुकने का स्थान भी देते हैं और उनके खाने- पीने की व्यवस्था आदि भी अपनी सामर्थ्य अनुसार करते हैं। तो महेश्वर के एक परिवार ने भी इन लोगों का आथित्य सत्कार किया। हुआ कुछ यूं कि उसी दौरान मेजबान पति- पत्नी मोटर साइकिल से कहीं जा रहे थे कि रास्ते में दुर्घटना हो गई। परिक्रमावासी जो लोग उनका आथित्य ग्रहण कर रहे थे उस स्थान तक गए और दम्पति को घर तक लाए। दोनों लोगों को बहुत चोट आई थीं। घर में छोटे बच्चे थे। परिक्रमावासी दो- चार दिन तो वहाँ रुके, उनकी सहायता की तदोपरांत अपनी बाकी की परिक्रमा पूरी करने को जाने के लिए तत्पर हुए। दम्पति ने उनसे कुछ दिन और रुकने का आग्रह किया किंतु अब वे लोग अपनी परिक्रमा पूरी करने को आतुर थे। बाकी सब लोग तो आगे बढ़ गए किंतु बाबा जी और उनकी धर्मपत्नी ने निश्चय किया कि वे रुकेंगें और जब वह दम्पति पूर्णतया स्वस्थ हो जाएंगे तब फिर वे अपनी परिक्रमा पूरी करने के लिए जाएंगे। तो बाबा जी सपत्नी उनके यहाँ तकरीबन तीन- चार माह एकदम घर के सदस्यों की भाँति रहे और उन सज्जन और उनकी पत्नी की देखभाल अपने स्वयं के बच्चों के समान की। उनके स्वस्थ हो जाने पर जब बाबा जी परिक्रमा पर जाने को उद्दत हुए तो उन सज्जन ने बाबा जी से अनुरोध किया कि वे परिक्रमा पूर्ण कर के पुनः वहीं आयें और रहें।बाबा जी परिक्रमा पर निकले थे घर से अपना छोटा बेटा सदा के लिए खो देने के बाद और उन्हें यहाँ महेश्वर में जैसे एक और बेटा मिल गया था, वह भी बहु और बच्चों के साथ। यद्यपि बाबा जी के घर में उनका बड़ा बेटा- बहु और उसके बच्चे थे, बाबा जी का अपना घर आदि भी था, किंतु दोनों लोगों का जैसे वहाँ से मन उचाट हो गया था। परिक्रमा पूरी करने के उपरांत बाबा जी पत्नी सहित महेश्वर में ही आ बसे। उनका अपने स्वयं के बेटे से संपर्क है, शायद कभी कभार जाना- आना भी होता है किंतु अब वे महेश्वर में रह कर एक मंदिर की देख- भाल करते हैं और पूजा- पाठ में व्यस्त रहते हैं। कैसी- कैसी होती हैं जीवन यात्रायें और जीवन सचमुच यात्रा ही है। सामने प्रवाहित होती माँ नर्मदा जैसे अपनी झिलमिल मुस्कारहटों में यही कह रहीं थीं,रूक जाय सो जीवन कहाँ। जब जो थमाये नियति उसे सहजता से स्वीकारना ही सार है जीवन का।
उसके बाद हम बाबा जी के साथ बड़े फाटक के अंदर गए और एक प्राचीन शिव मंदिर के दर्शन किए।
दूसरी तरफ के गेट से निकल हम भर्तहरि गुफा पंहुचे। ऊंची चाहरदीवारी के भीतर एक बहुत बड़ा वृक्ष था, जिसके चारों ओर ऊंचा चबूतरा था। जिस चबूतरे पर कुछ पुरानी मुर्तियाँ स्थापित थीं। वृक्ष के एक तरफ था केदारेश्वर मंदिर। कुछ बहुत भव्य इमारत नहीं, नीची छत वाले एक छोटे से कमरे में जो शायद पहले कभी गुफा रहा होगा शिवलिंग स्थापित था। शिवलिंग भव्य था और वहाँ कि शांति, बाहर पेड़-पौधे उस स्थान को तपोवन सी गरिमा प्रदान कर रहे थे। इसी के पास थी भर्तहरि गुफा। यहां एक देवी जी स्थापित थीं। बाबा जी के ही सौजन्य से हमें यह जानकारी प्राप्त हुई कि इन्हीं देवी के सम्मुख, इसी गुफा में राजा भर्तहरि ने तपस्या की थी। इस गुफा को भी थोड़ा काट-छाँट कर, पुताई कर के व्यवस्थित सा कर दिया गया था। इस गुफा की दीवारों में दो ओर दो सुरंगे बनी थी, जो इस समय बंद थीं। बताया जाता है कि इस गुफा से भीतर ही भीतर एक सुरंग उज्जैन और दूसरी ओंकारेश्वर को जाती थीं। हम लोगों ने ओंकारेश्वर में शंकराचार्य वाली गुफा में भी एक रास्ता, सीढ़ीयों जैसा ऊपर को जाता दिखा था. कैसा रहा होगा वह समय और इन सब स्थानों का उस समय का स्वरूप, घने जंगल, ऊँचे पेड़, गुफायें, भीतरी रास्ते और पद यात्रा करते लोग- तपस्वी, तीर्थयात्री और बाहर से अधिक भीतर की यात्रा करते लोग। कितना कुछ खोजा है हमारे मनस्वियों ने सृष्टि के विषय में, सृष्टि को संचालित करती उस महाशक्ति के बारे में, मनुष्य के अपने भीतर के गव्हरों के बारे में।
वहाँ से निकल कर हम सड़क पर आए तो बगल में दिखा एक वृद्धाश्रम। आश्रम के बाहर एक विशाल पेड़ था, ऊँचे चबूतरे वाला। उस चबूतरे पर कुछ महिलाएं और लड़कियाँ बैठीं थीं।थोड़ी देर उनसे बतियाये। सुंदर ने कैमरा फोकस किया तो लड़कियाँ तो धीरे से उठ किनारे हो गईं पर माता जी ने खूब खुश हो कर फोटो खिचवाई भी और कैमरे के स्क्रीन पर देखी भी। फोटो देख कर मुंह पर आंचल रख जो शरमाईं हैं न कि हम सब खिलखिला पड़े। चाहे बच्चियों का थोड़ा झिकझिकते हुए कैमरे के फोकस से बाहर जाना हो या माता जी का शरमाना, आज के समय में ऐसे अनुभव मन पर जेठ के बाद की पहली बारिश सा सोंधापन भर जाते हैं।
उन्हीं लोगों ने सामने ऊपर को जाती सीढ़ीयाँ दिखा कर बताया कि सामने गणेश मंदिर है। हम लोग मंदिर गए। वहाँ दो व्यक्ति घणेश जी का श्रृंगार करने की तैयारी कर रहे थे। उन लोगों ने बताया कि गणेश चतुर्थी वाली दस दिन की अवधि में प्रति दिन अलग- अलग तरीके से गणेश जी का श्रंगार करते हैं। हम लोगों को संध्या आरती के समय पुनः वहाँ आने का निमंत्रण भी दिया। मंदिर बहुत बड़ा या भव्य नहीं था किंतु तरह- तरह के वृक्षों से घिरे खुले स्थान में बना छोटा सा मंदिर शांत और सुरम्य था।
दिवस का अवसान समीप था और अब तक हम लोग काफी थक भी गए थे तो वापस रिसोर्ट की ओर चल दिए। गणेश जी की संझा आरती में हम लोगों रिसोर्ट में शामिल हुए। ऐसा रहा महेश्वर में हमारा पहला दिन, स्थापत्य कला के अनुपम दृष्टांतों में डूबते उतराते, इतिहास के कतिपय भूले- बिसरे पन्ने पलटते, मंदिरों की पावन देहरियों पर माथा टेकते और अलग- अलग लोगों के बीच जीवन के अनुभव सहेजते। यात्रायें, सच कितना कुछ सिखाती हैं, कितना कुछ दे जाती हैं। All pictures@ by Sunder Iyer

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