
बात उन दिनो की है जब हम शायद पांचवी या छठी कक्छा में पड़ते थे । हम घर में सबसे छोटे थे इसलीये बाज़ार के kisii भी छोटे मोटे काम के लीये अम्मा हमें ही दौड देती थी .हमारे मोहल्ले की एक ही बाज़ार हुआ करती थी ,उसी रावन जलने वाले मैदान के पास .अक्सर हम पाते थे कि उस मैदान में दरिया बिछी हैं और एक सीरे पर कुछ तख़्त जोड़ कर स्टेज बनायी गयी है.जीस पर कुर्सिओं पर कुछ लोग बैठे हैं और एक सज्जन माइक के सामने खड़े हुए भाषण दे रहे हैं .दरियों पर मोहल्ले के चाचाजी लोग बैठे पूरी तन्मयता से कहने वाले कि बातें सुना करते थे .हाँ वे दिन ऐसे ही हुआ करते थे । लोगों कि जिन्दगी और मन दोनो में इत्मीनान हुआ करता था .दूसरों को सुनने का सब्र हुआ करता था हम भी आते जाते थोरी देर रुक कर सुना करते थे .उनकी कही बातें तो शायद मुझे पूरे तौर पर समझ में नही आती रही होंगी पर मुझे यह बात बहुत फैसीनैट करती थी कि एक आदमी बोल रहा है और इतने सारे बड़े लोग चुपचाप बैठ कर उसकी बातें सुन रहे हैं .अब भई क्लास में ऐसा दृश्य तो समझ में आता है .वहाँ तो हमारी मजबूरी होती है पर इन लोगों को क्या चीज यहाँ बाधें रखती हैं .यही कौतूहल हर बार मेरे कदम वहाँ रोकने लगा और धीरे धीरे मुझे इसका चस्का लग गया .अब हमें भाषण सुनने में मजा आने लगा था .हंलां कि इसमे मेरा साथ कॉलोनी का कोई बच्चा नही देता था .पर हमें बचपन से ही इसकी विशेष फिकर नहीं हुआ करती थी .हमें तब भी लगता था कि एवेर्य्बोद्य must have फ्रीडम to ऎन्जॉय ons ovan spas .यह और बात है कि तब हमें इस बात को इस तरह ना कहना आता था ना सोचना .हाँ हमे अपने दोस्तो सखियों से कोई शिक़ायत नही होती थी कि वे मेरा साथ नही दे रहे .पर उस समय यह भी था कि कहीँ आना जाना बच्चों कि अपनी मर्जी पर नर्भर भी कहॉ कर्ता था .anyvay ,हम धीरे धीरे पड़ोस वाले सेन गुप्तों काकू के साथ भाषण सुनने के लिए ही वहां जाने लगे .अब हमें कौन वक्ता रूचिकर बोल रहा है कौन बस यूं ही सा ,यह भी थोडा थोडा समझ में आने लगा था .और एक दिन जब मंच पर एक व्यक्ति ने बोलना शुरू किया तो उसकी आवाज भाषा और अंदाज ने हमें कहीँ और पहुचा दिया ,। कुछ्था उस सख्श कि ओज भरी आवाज में ,भाषा में ,बात कहने के स्टाइल में कि मेरे मन में अक इक्छा ने जनम लिया हम भी ऐसे बोल पाते तो .हम उस मंच पर तो नही पहुचे पर स्कूल ,इन्तेर्स्कूल ,बैंक इन्टर बैंक के विभिन्न कोम्पेतिशन में मेरे पार्टिसिपेशन और जीतने कि नीव उसी दिन रखी गयी थी .और उसी दिन अटल बिहारी बाजपेई ने अपना एक बहुत बड़ा प्रशंसक पाया था .उन दिनों त
। व। तो हुआ नही करते थे नेताओ को सुनने का माध्यम ये सभाये ही हुआ करती थी .बाजपेई जी भी तब उभरते हुए नेताओ की श्रेणी में आया करते होगें .एक लंबे अर्से बाद जब वे हमारे शहर लखनऊ से चुने जा कर प्रधानमंत्री बने तो बाबुपुरवा की उस छोटी बच्ची को बहुत ख़ुशी हुई थी की उनकी जीत में एक वोट उसका भी था .हाँ तब तक लखनऊ हमारा शहर था .जीवन की मांगो के हीसाब से thiikane तो बदलने ही पड़ते हैं .हम लोग जब छोटे थे तो personality development या hobbies को profession में बदलने की ना तो क्लासेस हुआ करती थी ना ही ऐसे concepts सुने जाते थे .कम से कम मध्यमवर्गीय तबके में तो नहीं .मोहल्ले में होने वाली ये सभाएँ ,कविसम्मेलन ,पड़ोस की दीदी, भाभी, बुआ, ,रामलीला ,दुर्गापूजा जैसे सार्वजानिक त्यौहार यही सब हमारे जीवन और व्यक्तित्व को दिशा देती पाठशालाएँ होती थी .