Tuesday, October 30, 2007

वो सर्दियों का आना

आज बाहर धूप नही है । मौसम बदल रहा है ।सर्दियों का मौसम बस आया ही समझो । यहा पुणे मे तो उतनी ठंड नही पड़्ती पर फिर भी मौसम के बदलते मिजाज का अह्सास तो हो ही जाता है । बचपन मे सर्दियों के मौसम का मतलब था खूब करारी भुनी मूंग्फली ,लैया पट्टी,रजाई मे घर के अन्दर एक और घर । बाबू मेस्टन रोड से बड़ी बड़ी मूंग्फली लाते थे ,एक साथ खूब सारी ।पूरी सर्दियों का इन्त्ज़ाम होता था ।कन्स्तर मे भर कर रखी जाती थी मूंग्फलिया। अम्मा सिल-बट्टे पर धनिया का नमक पीसती थी । रोज़ रात को रेडियो पर ’हवामहल’के प्रसारण् के समय यानि रात के सवा नौ बजे मूंग्फली खायी जाती थी ।
इस मूंग्फली खाने वाली बात से हमे सिहारी याद आ गया । सिहारी यानि राम्विनोद मिश्रा । सिहारी बाबू से इंग्लिश ग्रामर पढ्ने आता था ।सिहारी अब नही है पर उन दिनो की कितनी सारी बाते है जो हमे याद आ रही है । सिहारी के आने का समय हमेशा हवामहल वाला होता था और जिस दिन वह बाबू को अपने उत्तरों से संतुष्ट नही कर पाता था उस दिन बाबू जरूर डांट्ते थे ,’हियां हवामहल सुनै और गपिआवैं आवत हो कि पढैं’।जिस दिन पढाई ज्यादा हो जाती थी उस दिन सिहारी इशारों से पूछ्ता था अम्मा को काम खत्म कर मूंग्फली ले कर आने मे कितनी देर है ।
सुनने मे लग रहा होगा कि ये कितनी साधारण बातें हैं पर उन दिनो हम लोग हर छोटी छोटी बात का लुत्फ उठाना जानते थे । हमारे पास चीजें बहुत कम होती थी पर बोर शब्द हमारे कोष में नही होता था ।
बात सर्दियों की शुरुआत की हो रही थी और हम कहां निकल गये । ऐसा ही होता है मन के साथ । अगर ’राह पकड़ एक चला चले तो मधुशाला ’पाही जाये पर ऐसा करना आसान कहां होता है ।
लेकिन बात अगर सर्दियों के शुरु होने की है तो हमे चन्दन मित्रा का वह लेख जरूर याद आता है जिसमे रजाइयों के बक्से खुलने से ले कर नींबू के अचार रखने की तैयारी का इतना सटीक और भव्नात्मक वर्ण्न है कि मन अपनेआप सर्पट जा अतीत के गलियारों ंमे रुके ।
लेकिन अब मेरा आज मे वापस आना जरूरी हो गया है । चले रसोई की ओर ,बालक के स्कूल से लौटने का समय पास आ रहा है।फिर मिलेगें

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