Saturday, April 19, 2008

आज की सुबह और हम

आज कल हर इतवार की सुबह जल्दी उठना होता है .सुन्दर को छः बजे तक निकल जाना होता है ना .यूं तो हमको भोर की ताजगी मे नहायी हवा को घूंट घूंट पीना हमेशा से बहुत पसंद है पर अलस सबेरे मंदिर की तरफ़ वाली सड़क पर निकल जाने का आनं द तो बस मह्सूसा ही जा सकता है .कैसे भी शब्द हो उस अनुभुति को कलम्बद्ध कर पाना उसकी समूची गहरायी के साथ ,नहीं सम्भव हो ही नहीं पायेगा .
अभी तक छः बजे भी काफ़ी अंधेरा होता था तो बस हम सुंदर के जाने के बाद निकलते नहीं थे .अरे हां ....,हमे और अंधेरे से डर .यह तो हमारे पति का ब्लड प्रेसर ना बढ जाये इस्लिये भरोसा दिला देते कि अंधेरे मे नहीं जायेगे और एक बार हमने किसी को किसी बात का भरोसा दिला दिया तो उसे तोड़्ना ..ना भाई ऐसा तो हो ही नही सकता .क्या कहा ...रघुकुल रीति .......याद आ गया .अब जो भी हो अपन तो ऐसे ही हैं .हां तो बात सबेरे की हो रही थी .
आज देखा कि छः बजे ठीक ठाक उजाला था तो हम भी संग निकल लिये और आगे वाले तिराहे से सुंदर बस स्टाप की ओर और हम मंदिर की ओर मुड़ गये .
मुड़ते ही बायीं ओर एक छोटा सा जो कार्खाना है उसके कम्पाउन्ड मे खूब भरे पूरे ऊंचे ऊंचे कैसोरिना के पेड़ों का एक सघन झुंड है .ठिठक ठिठक कर पांव धरती सुबह की छाया मे पेड़ो का रंग खूब गाढा हरा लग रहा था .हमने गरदन पीछे कर उनसे नज़र मिलाने की कोशिश की तो पाया कि हरीतिमा की उस ऊंचायी के बीच बीच मे सफ़ेदी के फ़ूल खिले है जहां तहां .हां हमको पता है कैसोरिना मे फ़ूल नहीं होते .ये फ़ूल थे भी नही ये तो ढेर सारे बगुले थे .अच्छा तो ये इन बगुलो का बेड्रूम है .सच कहे तो हमे इतना लालच आया कि क्या बतायें .सोचिये तो ज़मीन से पचीस तीस फ़ीट ऊपर ,आस्मान से झरती चांदनी ,हवा मे घुली पत्तो फ़ूलो की खुशबू और आहिस्ता आहिस्ता डोलता शाखाओ का हिंडोला .....जमीन पर आने का दिल ही ना करे .खैर हम तो जमीन पर ही थे .तो सारे बगुले निश्चल बैठे थे .लेकिन थोड़ी थोड़ी कुन्मुनाहट होने लगी थी .ऐसा होता है ना ..नींद खुल जाने के बाद भी बिस्तर पर आंख बंद कर लेटे रहने का सुख .नींद की खुमारी टूटी नही होती .अभी भी सपनों की दुनिया का एक टुकड़ा मन मे टका होता है पर कानो मे सबेरे की आवाजे आने लगती है .एक अजब सा आश्वसति का भाव छाता है मन मे .एक साथ जमीन और आस्मान मे होने जैसा सुख .बस बगुले भी उसी दुनिया मे थे .हमने सोचा और थोड़ी देर और सही फ़िर तो दाना पानी का सवाल सर चढ कर बोलेगा ही .
आगे बढे तो खूंटे पर बंधे बैल ,गायों के गले की घंटिया धीरे धीरे बज उठती थी और ताजा कटे चारे की खुशबू हवा मे महक भर रही थी .उन्के परे ,छोटे छोटे घरो के पीछे कुछ खेतो मे हाथ भर के बिरवे खड़े थे.सड़क किनारे के ऊंचे पेड़ घर वापस जाते तारो को हाथ हिला हिला विदा कर रहे थे .मंदिर के पास पहुचे तो ढोल ,मजीरे के साथ कीर्तन की धुन सुनायी पड्ने लगी .ऐसा रोज तो नही होता .कुछ विशेष होगा .मंदिर मे हनुमान जी की मठिया के सामने व्रिद्ध लोगो का एक समूह आंखे बंद किये भाव विभोर हो भक्ति मे लीन था .मन तो जैसे आरती का दिया हो गया पावन ,कोमल ,धुला धुला .
फ़िर हम इमली के पेड़ो की कतार के नीचे होते हुए नदी किनारे के बर्गद की तरफ़ निकल गये .और पता झाड़ियों ,पेड़ो के पार ,चारों ओर की हरियाली के बीच दूर था सिं दूरी फ़ूलो से लदा गुल्मोहर .पूरा का पूरा पेड़ बस फ़ूल हो रहा था .रस रंग से लबालब भरे किसी प्रेम गीत सा .एक चक्कर लगा लौट चले हम घर की ओर ....हवा से बतियाते ,गुल्मोहर को सहेजते और ऊपर वाले की ड्योढी पर सर झुकाते ....ऐसी नियमतो से भरी सुबह सबकी झोली मे डाले .

5 comments:

Sootradhaar said...

नमिता..
हम जैसे तमाम आलसियो के लिये जो सुबह देर तक पडे रहने वालो के लिये आपका यह लेख अमरत पान के बराबर है..हम भी सोचते रहते है कि हमे भी कोई बहाना मिले..सुबह-सुबह की ताजगी भरी मन्द-मन्द बहती समीर को अपनी सा॑सो मे समाहित करने का.चलिये आपका प्रेरणाश्रोत बनने के लिये धन्यवाद !

Batangad said...

क्या बात है। आपने सचमुच शब्दों से इतना खूबसूरत समां बांधा है कि हम भी आपके साथ सुबह का सफर कर आए।

namita said...

हर्ष
अपनी आज कल की महानगरीय ज़िन्दगी मे ऐसी सुबहे तो सपने जैसी हो गयी है ना .जब कभी हाथ लग जाती है तो सहेज कर रख लेने क मन करता है .अच्छा लगा तुम्हारा आना और प्यारी सी बात कहना .
नमिता

yashasvi said...

ati sunder rachna hai... subah ka varnan mujhe early bird bana ke hi chorega

namita said...

यश
हमरे पास ऐसी अन्गिनित सुबहो का खजाना है क्यों कि हम हमेशा से जल्दि उठने के आदी है और फ़िर इश्वर की दया से ऐसी जगह रह रहे है जहां अभी भी हरियाली मौज़ूद है .
अच्छा लगा तुम्हारा आना .
नमिता