Thursday, April 24, 2008

मेरी डायरी के पुराने पन्ने

आज पुराने कागज़ उलटते पलटते एक पुरानी डायरी हाथ लग गयी .बहुत पहले से ही हमारी आदत रही है कि कहीं किसी नये स्थान घूमने जाते थे तो अपना अनुभव दर्ज करते चलते थे ,हां इसे आप यात्रा व्रितांत कह सकते है .लेकिन आज जो पन्ने हाथ आये कुछ खास ही है .आज से तेईस साल पहले ....हां कुछ दिन इधर उधर कर लीजिये ...शादी के बाद हम दोनो घुमने जा रहे थे .हनीमून भी कहा जा सकता है .....चलिय चलते है यादों के गलियारों मे ....
१४.०६.८५
रात के अंधेरे को चीरती बस दिल्ली से मसूरी की ओर भागती जा रही थी .तपन ,जलन से भरे दिन के बाद खुले आकाश के नीचे अठखेलियां करते अलहड़ झोकें चंदन लेप कर जा रहे थे .अंधेरा छाया था बस में और एक निश्तब्धता भी .शांत हो सोते लोगों की उतरती ,चढती सांसे एक अजीब से सुरक्छित शांत आवरण मे लपेट रही थी वातावरण को .कभी किसी झोकें के साथ लिपट कर चुपके से खिड़की से कूद आती थी दूर कहीं खिले फ़ूल की
गंध.गंध ,लय और स्पर्श सब मिल एक मादक एह्सास का ताना बाना बुन रहे थे चारों ऒर .एक अलस संतुषटि सी भरी थी मन मे .
१५.०६.८५
सबेरे जब आंख खुली तो बस खड़ी थी देह्रदून के आखिरी मोड़ पर .चारो ओर हरे ऊंचे पेड़ और जंगलों के बीच से ऊपर दर ऊपर उठती जाती सड़क .ताजगी भरे एह्सास से दिन शुरु करने को घर से निकल पड़े लोग .चारों ओर देखते हुए यू लग रहा था कि मेरे हाथो ंमे पकड़ी स्लेट पर गीला कपड़ा फ़ेर कर किसी ने मिटा दिये हैं ऊची ऊची इमारते ,काली चिकनी सड़को पर भागती बसे ,कारे और प्रक्रिति के मन के बिल्कुल करीब से ला बिखेर दिये हों ये आंखो से मन तक शीतलता पहुंचाते हरे भरे जंगल .हवा मे शहद घोलती पंछियो की आवाज़े और तन मन दुलराता ,मह्काता पवन.
फ़िर शुरु हुई चढाई .दूर दूर तक हाथ पकड़े खड़े पहाड़ो की कतारो की ऊंचाइयां और उनके आगोश मे सिमटी पड़ी घाटियों की गहराइयां दोनो ही मेरे मन को अंदर तक प्रभावित करते हैं .कुछ ऐसा प्रभाव डालती है इनकी भव्यता कि हम जैसे सांस अंदर को खींच छोड़ना ही भूल जाते है ं.
टहलते घूमते मसूरी में एक ग्रेव्यार्ड मिला .ऊपर सड़क पर चलते चलते नीचे देखा.हरी मखमली घास के बीच ,इधर उधर बिखरे पत्थर के छोटे बड़े चबूतरे,इनके अंदर जो कुछ था वह भी कभी जिन्दगी था.बीच बीच मे सीधे तने खड़े ऊंचे लम्बे पेड़ .आकाश की ओर मुंह उठाये उनकी फुन्गिया मानव के जीवन का सत्य उजागर करती लगती थी .जड़े माटी मे गहरे ,उड़ान आकाश तक भी हो तो भी सत्य जीवन का यह माटी ही है पर इसी से क्या हम ऊपर देखना और बढना छोड़ दे ? नहीं बिल्कुल नहीं.जीवन नश्वर है माना ,उप्लब्धियां कैसी भी हों सब बेमानी हो जाती हैं अपने लिये जब टूट जाता है श्वासों का क्रम पर उससे क्या छण का अस्तित्व अप्ने आप मे कम वजनी तो नहीं .हर छण को अर्थ्पूर्ण बनाने के लिये पूरी लगन से जीना है,पूरे विश्वास के साथ.
पत्तियों के झुर्मुट में लुका छिपी खेलती कोई किरण सूरज की कभी नीचे कूद आती थी झपाक से.हवा के झोंको से पत्तियों के हिलने के साथ ही उसकी सुनहरी काया ,इस कब्र से उस कब्र तक भागती लगती थी .ऐसा लगता था कब्र के सीने पर सर टिका ,आहट ले पहचानने का प्रयत्न कर रही हो किसी बिछुड़े हुए अपने को .
सच कहें तो पूरी मसूरी में हमे सबसे प्यारा कोना वही लगा .पेड़ों की छाया के संग आँखमिचौली खेलते सूरज की रौशनी के उजले उजले टुकड़े,दबे पांव धीमे से आती ठंडी हवा,नर्म हरी दूब,शांत चुप ठहरा हुआ सा वक्त और चिर निद्रा मे लीन,जीवन के ना जाने कैसे कैसे उतार चढाव की कहानी अपनी मुठ्ठी मे बंद किये कब्रें .मेरा मन किया ढलान उतर कर नीचे जांय और बैठ कर चुपचाप घास पर ,आंखे बंद कर बाते करे इन सोती हुई कब्रों से.और फ़िर सुनते सुनते स्पन्दन्हीन हो पत्थर हो जाये उन्ही की तरह .ऐसी राहत देती शांति थी कि भाव्नाओ ,विचारों ,आवेगो की उठा पटक मे घिरा मन ललचा उठा पथरा जाने को .पर आगे तो जिन्दगी बांहे फ़ैलाये बुला रही है .
इस यात्रा के और पड़ाव अभी बाकी हैं .लेकिन वे भाग दो मे ं.

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