Saturday, December 27, 2008

२३ नवम्बर भी और रविवारो की ही तरह शुरु हुआ.एक साधारण सा दिन.छोटू को सबेरे सबेरे बी.टी के एक्जाम्स के लिये निकलना था तो उसे नाश्ता करा कर और दे कर सात बजे तक विदा कर दिया था.पर पता नहीं क्यों यूं ही घर मे पेपर, किताब पढते हुए ,नेट करते हुए ,खाना बनाना और कपड़े धोने के बीच कई बार चाय पीते हुये दिन बिताने का मन नहीं कर रहा था.पर यह भी सच था कि काम खत्म भी करने थे और कहीं बहुत दूर निकल जाना ,वह भी बिना किसी प्लानिंग के सम्भव नहीं लग रहा था.हमे अचानक याद आया कि एक दिन सुदंर ने बताया थाकि उन्होने ने बाणेर में पहाड़ी पर एक मन्दिर देखा था.निर्माण की अवस्था मे था शायद वह.हमने सोचा चलो वहीं तक हो आते हैं.सच तो यह कि वाहन का ना होना सबसे बड़ी रुकावट बन जाता है कहीं भी बाहर निकलने में .खैर हम लोग तकरीबन साढे दस बजे तक काम निपटा कर घर से निकल ही पड़े.
हमें मन्दिर का ठीक ठीक पता नही था,पर निकल पड़े थे तो मिल तो जायेगा ही.फ़ूड बाज़ार तक का आटो किया और फ़िर सीधे पैदल चलना शुरु किया.यह अच्छा है कि हम लोग जब बाहर यूं ही घूमने निकलते है तो बहुत सुविधाये हमे नहीं चाहिये होती हैं. मौसम भी हमे परेशान नहीं करता ,चाहे उसका मिज़ाज कैसा भी हो.ठीक है शारीरिक थकावट वगैरह तो होना स्वाभाविक है पर हम मन से मस्त रहते है और ऐसा हम दोनो के ही साथ नही है, वरन बच्चे भी घूमना ऐसे इन्ज्वाय करते है.हां तो कुछ दूर ही पैदल चलने के बाद पहाड़ी पर मन्दिर दिखना तो शुरु हो गया पर उस तक पहुंचने का रास्ता नज़र नहीं रहा था.पूछते पाछ्ते हम बाणेर गांव की उस गली तक पहुंच ही गये जहां दो घरो के बीच की जगह से ऊपर को जाती सीढीयां दिखायी दी.हमारी उत्तरां चल की यादें ताज़ा हो गयीं वहां भी एक दूसरे से पीठ टिकाये ऐसे ही छोटे छोटे घरो के बीच से सकरा सा रास्ता फ़ूटता था और कभी ऊपर पहाड़ो को और कभी नीचे गुफ़ाओ को जाती सीढीया किसी मन्दिर तक ले जाती थी.
सीढीया चढते हुये हम कल्पना करते जा रहे थे कि बारिश के मौसम मे यह जगह कितनी खूबसूरत लगती होगी.पहाड़ी हरियाली से भरी हो तो हवा में ताजगी अपने आप ही घुल जाती है.खैर इस समय भी कुछ बड़े ,कुछ छोटे पेड़ पहाड़ी पर फ़ैलते भूरेपन की एकरसता तोड़्ने का भरसक प्रयास कर रहे थे और कामयाब भी हो रहे थे.चढाई की शुरुआत में ही एक गुफ़ा में भी मन्दिर है शिव जी का -बाणेश्वर महादेव.पर हम लोग पहले ऊपर वाले मन्दिर गये.शायद पहले कोई पुराना छोटा मन्दिर या मठिया रही होगी जिसका जीर्णोद्धार हो रहा है.अभी मन्दिर बन रहा है.साफ़सफ़ाई करने वाले तो है पर कोई पुजारी जी वगैरह दिखलाई नही पड़े .हो सकता है कि त्योहारों और पूजा पाठ वाले मौसम मे ही अभी रहते हो.यह मन्दिर तुकाई माता के मन्दिर के नाम से जाना जाता है.इन देवी के अवतार के विषय मे कोई बताने वाला तो वहां था भी नहीं और अंडाकार चिकने पत्थरो मे सत्यनारायण के दर्शन कर लेने वाले हमारे मन को कहाँ फ़र्क पड़ता है कि देवी का नाम क्या है और वे कहां से अवतरित हुईं.
मन्दिर में बेइंतहा शान्ति थी.खिड़्कियों से अंदर आती सूर्य की किरणॆ धूप छांव का एक करिश्माई संसार रच रही थी चारो ओर से आती ठंडी हवा बहुत सुकुन दे रही थी.सड़क की ओर खुलते मंदिर के छज्जे से नीचे दूर दूर तक फ़ैला शहर दिख रहा था.जो इमारते नीचे से आकाश को छूती लगती है वही इस ऊंचायी से माचिस की डिबिया सी लग रही थी.नहीं मन्दिर बहुत ऊंचाई पर नहीं है पर शायद यह भौतिकता से आध्यात्मिक निर्मलता की दूरी हो.बस कुछ कदम और मन किसी दूसरे लोक मे ही होता है.
मन्दिर के पीछे की ओर दूर तक बची खुची पहाड़ियो का सिलसिला है.दूर एक और छोटा मन्दिर भी दिखायी पड़ता है.उस मन्दिर से इस मन्दिर तक आने जाने का रास्ता भी है.कुछ लोग जा भी रहे थे पर हम लोग नहीं गये.पहाड़ियो के पहले कुछ और बनती इमारतो के ढांचे,अपनी अपनी सरहदें और इन सब के बीच अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते इक्का दुक्का खेत.थे एक ही दो पर सच पूछिये तो चारो ओर फ़ैले सीमेंट,कंक्रीट पर भारी पड़ रही थी,आंखे जुड़ाती उनकी हरियाली.हम कितने भी झंडे गाड़ ले अपनी प्रगति के पर प्रक्रिति का इक नन्हा सा भी कतरा हमे जता देता है कि सर्वोपरि तो वही है जो सहज है स्वाभाविक है.
नीचे कर हम गुफ़ा में शंकर भगवान के मन्दिर में गये.पुरानी सदी की कुछ मुर्तियां,कुछ खंडित ,कुछ साबुत एक किनारे रखी हुई थी.भीतर छोटी सी जगह में शिवलिंग स्थापित है.नीम अंधेरी गुफ़ा में कोने में दिया जल रहा था.उस प्रकाश में सब कुछ भुला अंतस में भक्ति की अलख जगाने की शक्ति थी.हम लोग बहुत देर तक वहां बस चुपचाप बैठे रहे.सुंदर ने उस स्थान को चित्रो में सहेजा और फ़िर हम वापस गये.वहीं चौड़ी सड़क पर भागते वाहन,ऊंची इमारते,बड़ी दुकाने.लेकिन सब कुछ नया सा लग रहा था.ऐसा ही होता है.रोज एक ढर्रे से चलती जिन्दगी के बीच हम जब कुछ समय थोड़ा अलग ढंग से गुजार लेते है तो ताजादम हो एक बार फ़िर जद्दोजहद के लिये तैयार हो
जाते है.कुछ मुश्किल भी नही होता ऐसा कर पाना बस अक्सर हमी अपने आपको तैयार नहीं कर पाते.कहीं बाहर निकलना भी शायद इतना जरूरी नहीं होता .हां कुछ समय अपने साथ गुजारना बहुत जरूरी है.



मन्दिर के भीतर

6 comments:

विजय तिवारी " किसलय " said...

नमिता जी
नमस्कार
आपके द्बारा लिखा गया यात्रा वृत्तांत पढ़ कर
ऐसा लगा की मैंने भी बाणेर में पहाड़ी पर बने
मन्दिर -बाणेश्वर महादेव और तुकाई माता
के मन्दिर के दर्शन कर लिए हों .
अच्छे आलेख के लिए बधाई

आपका
विजय

namita said...

विजय जी
अतिशय धन्यवाद.ऐसी अनायास प्रशंसा सच बहुत सुखद होती है.
दर्शन लाभ देते रहियेगा.और मेरे लिखे पर अपनी टिप्पणियां दीजियेगा.
हमारा उत्साह वर्धन भी होगा और बेहतर लिखने की ओर भी कदम बढेगे.
नमिता

NAVAL LANGA said...

Namitajee,

I was officer in UCOBANK for 28 years and had opted for VRS in 2001. I am presently practicing as a lawyer in Gujarat High Court.
Keep meeting here, on blogger.

I would certainly keep reading your Hindi blogs. But do write in English, too. There is wide readership.

Naval Langa
Naval Langa
SHORT STORIES by NAVAL LANGA
PAINTINGS GALLERIES

Other Interesting Blogs
BIG CITIES OF INDIA

LIFESTYLE AND RELATIONSHIP

namita said...

naval ji
thanks a lot for visiting my blog.i knew that you are in gujrat and an advocate but never knew you were a banker as well.i was with BOI and opted under vrs at the same time.well that was the only time vrs was offered in banking industry.
i try to express in english as well but in our that other platform only.however i always feel that i am unable to express myself in as lucid a way as in hindi.in fact in hindi the expression flow almost effortlessly.but i shall definitely try to be more regular in english.after all it's never late for learning and trying.
thanks for encouraging and the valuable suggestion

yashasvi said...

ahhaaa... namita ji

bahut achha laga , pahari, mandir, ekaant aur bass yun hi nikal pardna, .. jab yun inikal pare toh mausam bhi tang nahi karta.. yeh ghumkarpan aur thora sa pagalpan, basss yeh do mil ke jivan ko hara bhara bana hi deti hain...

namita said...

i know yash............ye ghumkkadi tumhare bhi khoon me rachi basi hai na.yayavar ki tarah kandhe par jhola dal nikal padana kitna karishmai sa anubhav hai na.
i hope one day we all will go somewhere like this together.halan ki ham log aur kitne din unchaiyan napane ke laayak rah paayege pata nahee.par koi bat nahee ham log nichali pahadi par baith jaayege tum log lambe dag bhar ham logo ke liye uparke anubhav bator lana.

sneh
namita