Friday, March 27, 2009

भुलेश्वर मन्दिर..दीवारो पर रचे छंद..भाग १

पिछले रविवार यनि २२ मार्च हन भुलेश्वर मन्दिर गये.थोड़ा बहुत सुना था इस मन्दिर के विषय में कुछ तस्वीरे भी देखी थी पर जो अभूतपूर्व अनुभव हुआ उसकी तो हमने कल्पना भी नहीं की थी. अचानक ही जाना तय हो गया.रात सुंदर के पास श्रीजित का फोन आया और सबेरे उसकी गाड़ी से हम लोग निकल पड़े.पुणे से तकरीबन ५५कि.मी. की दूरी पर है यह तेरहवीं शताब्दी का मन्दिर.शोलापुर हाइवे पर शहर के बाहर निकलने पर लोग रास्ता बता देते हैं.हां ,बस आदि का कोई साधन हमे नहीं दिखा मन्दिर के आस पास.अधिकतर लोग कार,टैक्सी या बाइक पर ही आ रहे थे.
तो शहर का छॊर खत्म होते ही सड़क के दोनो ओर फ़ूल पौधो की नर्सरी और फ़िर अंगूरो के बाग शुरु हो जाते है.दूर घेरा बांध खड़ी पहड़ियो के बीच एक पहाड़ी पर मन्दिर का आकार हाइवे से ही दिखने लगता है.धुंध मे लिपटा .आगे जा कर दाहिने मुड़ कर सड़क छुट्पुट बिखरे गांव के बीच से हो कर गुजरती है और फ़िर शुरु हो जाता है पहाड़ियो पर चढाई का सिल सिला.बारिश का मौसम होता तो सारी पहाड़ियां हरियाली से लदी होती.घाटियों से ले कर चोटियो तक बादल भाग दौड़ कर रहे होते और हो सकता है कई झरने भी उछल कूद करते दिख जाते .यकीनन प्रक्रिति का यह श्यामल रूप मंत्रमुग्घ करने वाला होता पर इस समय यानि गर्म मौसम मे मन्दिर तक पहुंचने का अपना एक अलग सुख है जिसकी चर्चा हम बाद मे करेगे .अभीतो हम रास्ते पर ही हैं.इस समय ऊपर चटक नीला आसमान था और नीचे पहाड़ियों पर भूरा सुनहला रंग बिखरा था. सुखी हुई वनस्पति का रंग पकी हुई गेंहू की बाली सा था और बीच बीच मे बड़े पेड़ जो अपनी हरीतिमा को बरकरार रखे थे.पर अपनी इस सफ़लता पर ना झूम रहे थे ना इठला वरन स्थितप्रग्य धीर मनस्वियों से खड़े थे,शांत ,धीर गम्भीर जैसे कह रहे हो देखो जितनी गहराई से अपनी माटी से जुड़े रहोगे मन का रस उतना ही बचा रहेगा.रास्ते के घुमावों चढाई उतार के बीच मन्दिर की झलक मिलती रहती है.
भुलेश्वर मन्दिर के चारो ओर कभी एक किला था.अब यह तो हमे ठीक ठीक नही मालूम की मन्दिर पहले बना कि किला पर हां मन्दिर समय की मार और मनुष्य की विध्वंसात्मक प्रवर्तियों का शिकार होने के बावजूद आज भी अपनी समूची गरिमा के साथ स्थापित है पर किले के अवषेशों के नाम पर केवल दो ढहते हुए बुर्ज ही बचे हैं.कुछ जानकारों के अनुसार किला सोलहवी शताब्दी मे बनवायागया था.यानि मन्दिर के बाद मे.सच ही तो है नश्वर तो मानव होता है इश्वरीय सत्ता तो अजर अमर है.इस किले को दौलत मंगल गढ या मंगलगढ के नाम से जाना जाता है.
मन्दिर को तेरहवीं शताब्दी मे चौला वंश के राजाओ ने बनवाया था.मन्दिर के विषय मे पौराणिक मान्यता है कि यही वह स्थान है जहां देवी पार्वती ने भगवान शंकर के समुख न्रित्य किया था और यहीं से दोनो ने सीधे कैलाश पर्वत की ओर प्रस्थान कर विवाह सम्पन्न किया था.मन्दिर स्थापत्य कला एवं पत्थरों पर करीगरी का एक अनुपम खजाना है.मन्दिर का निर्माण हेमादिपथ स्थापत्य कला के अनुसार हुआ है.कहते है कि चौला राजवंश के एक प्रतिभा शाली मंत्री ने इस पद्धति की शुरुआत की थी.महाराष्ट्र मे इस स्थापत्य पद्धति के अंतर्गत निर्मित कई प्रसिद्ध मन्दिर है.आस पास पाये जाने वाले काले रंग के बेसाल्ट पत्थर और लाइम स्टोन से निरमित है यह मन्दिर.
मन्दिर का प्रवेश द्वार गोमुखी तरीके से यानि कि छिपा हुआ बना है.कुछ लोगो का मानना है कि तेरहवीं शताब्दी मे इस प्रकार के प्रवेश्द्वार नही बनते थे .शायद विध्वंश के दौरान पहले वाला द्वार नष्ट हो गया होगा और बाद मे शिवा जी के काल मे इसका पुनः निर्माण हुआ होगा.
आज मन्दिर एक उंची पहाडी पर है.मन्दिर तक गाड़िया आसानी से पहुंच जाती हैं .कोई सात आठ सीढीया चढ कर एक लम्बे चौड़े खुले चबूतरे पर पंहुचते है.भरी दोपहर मे भी यहां हवाये ठंडी और सुखद थी.मन्दिर के प्रवेश द्वार के सम्मुख लोहे के गर्डिल पर एक विशाल घंटा लगा है.मन्दिर मे घुसते ही एक सपाट बड़ा कमरा है जिसके पीछे वाली दीवार पर एक सकरा दरवाजा है.इस छोटे से द्वार मे घुसते ही दाहीनी ओर सकरी थोड़ी अनगढ सी सीढीया उपर जाती है और यहीं से शुरु हो जाता है नीम अंधेरे,रौशनी,आत्मा तक पहुचने वाली ठंडक और मुखर पाषाणो के बीच आपका सफ़र.

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