Sunday, October 28, 2018



पिछले कुछ दिनों से हमारा आंगन चूं चूं की लगातार चहक से दिन भर गुलजार रहने लगा है. दो तरह की आवाजें आती हैं, एक तो पाइप और दीवार के बीच बने घोसले से दो नवजात शिशुओं की जीवन जानने की उत्सुकता से भरी चहचहाहट और दूसरी आंगन ऊपर के जाल से नीचे को सतर्क नजर रखे मां पिता की चिंतातुर आवाजें जो किसी के भी आंगन में आते ही तेज हो जाती, कुछ कुछ बौखलाहट भी तारी हो जाती। शायद बच्चों को बिल्कुल चुप हो जाने का संकेत देने की कोशिश में रहते वे. पर बच्चे तो बच्चे ठहरे, उन्हें कब आगत का भय सताता है। दोनों शिशुओं की चहचहाहट बदस्तूर जारी रहती। या फिर कहें कि बच्चों को मन पहचानना बड़ों से ज्यादा आता है इसलिए वे निश्चिंत रहते।.उन्हें पता है कि इस आँगन में वे सुरक्षित हैं। आज उनमें से एक घोसले से नीचे उतर आए। आंगन में उस समय काम हो रहा था, बर्तन वगैरह धुलने का।उतर तो आये महाशय पर घर के बाहर पहला कदम कब आसान हुआ है। घबराए से, कुछ भौचक से बैठे थे, जब उन्हें कैमरे में सहेजा। और ऊपर जंगले से झांकते मां पिता की सांस अटकी थी । खैर जैसे ही आंगन खाली हुआ, मां दौड़ कर नीचे आयी। बार बार उड़ कर बच्चे को दिखाती कि कैसे उड़ कर ऊपर जंगले तक पहुंचना है। हम देख रहे थे, इनकी जिम्मेदारी तो हम लोगों से ज्यादा कठिन होती है. हम तो हाथ पकड़ कर चलना सिखा लेते हैं. ये तो केवल कर के दिखा पाती है पर शायद सिखाने का यही ज्यादा अच्छा तरीका है, कर के दिखाना। बहरहाल कई तरह के प्रयासों के बाद छुटकू जी आज खुली छत तक पहुंच गये. ईश्वर उन्हें लम्बी उड़ानों के सुख दें और उनके परों को आसमान नापने की ताकत.


12 April 2018

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