Sunday, October 28, 2018

तुंगभद्रा नदी किनारे की शाम । दूर परले सिरे पर सूरज अभी ऊंचे पेड़ों के झुरमुट से बाहर नहीं आया था लेकिन झींसी बारिश सी झरती उसकी मद्धम रौशनी में कांस की बालियां हीरे की कनी से जड़ी लग रहीं थीं। और कांस ही
क्यों काले पाथरों की चट्टानी काया भी जैसे उसकी नेहिल छुअन से तन्वंगी हो उठी थी।
हम लोग नदी के उस किनारे चट्टानॆ पर खड़े थे जहां इस पार से उस पार करती नावें आती जाती हैं। नदी के पाट में सूरज की झलमल लगभग उसी जगह कौंध रही थी जहां चट्टाने और कांस थी। कुल मिला कर वह हिस्सा हमें इतनी जबरदस्त रूप से आकर्षित कर कहा था कि हम खुद को रोक नहीं पाए और हाथ हाथ भर लम्बी घास के कीचड़ भरे मैदान को पार कर , नदी के किनारे किनारे चट्टानों तक जा पहुंचे। काफी बड़ी ऊंची चिकनी चट्टानें थीं और उस पर कांटों वाले जंगली पेड़ भी थे बीच बीच में जहां तहां चट्टानों के आस पास। पर भला मन का पगलाया उछाह कब हारा है इन बातों से तो अंततः हम चढ़ ही गए चट्टानों पर और सच मानिए पहुंच वहां मन एक साथ शांत और चंचल हो उठा। अरे वाह, कैसे नहीं सम्भव है ऐसा। कभी इमली, या अमिया की खटमिट्ठी चटनी नहीं खाई क्या। हां फिर, बिल्कुल वैसा ही मजा, जीभ तालू से लग चट्ट करे तो सनसनाता सा खट्टा और रस गोल गोल मुंह में घूम बूंद बूंद गले से आहिस्ता आहिस्ता उतरे वह वाला मीठा ।विरोधाभास भी एक अलग ही तरह की एडवेंचरस अनुभूति देते हैं।
हां तो, चट्टानों पर से नदी और दूर तक दिखाई दे रही थी। बीच बीच में पानी में पालथी मार बैठी शिलाओं से कुछ गुपचुप बतियाती, हाथ मिलाती, गले मिलती, नदी धीरे धीरे बही चली जा रही थी। सूरज अपनी इधर उधर भागती किरणों को बटोर पुटरिया में बांध लेने की कोशिश में था, आखिर घर वापस चलने की बेरा हो रही थी पर शैतान बच्चियों सी चंचल किरणें कभी नदी में छलांग लगा पानी में जलपरियों सी किल्लोल करने लगती , कभी कांश के झुरमुट में घुस उसे जहां तहां ऐसे गुदगुदातीं, ऐसे संवारतीं कि उसे खुद अपना आप अनचीन्हा लगने लगता।
संवारने की क्या कहें कांस भी अपनी उम्र के उस पड़ाव पर थी जब निखार महुआ के रस सा टपकता है। कुछ और उम्रदराज होने पर हीरे की कलगी सी ये बालियां, सन जैसे बालों वाली हो जाएगीं पर अभी तो सच्ची ऐसे झलमला रही थी उसकी काया कि मेरा मन कर रहा था कि उसकी हंसुली गढ़वा लें । कैसी सजेगी न गले में। गले का तो पता नहीं पर मन यह सोचते ही जगर मगर हो गया। जब भी हम बेतरतीब बिखरी प्रकृति के बीच होते हैं मन में ऐसी ही न जानें कितनी भोली भाली इच्छाएं लटपट भागी चली आती हैं और हमें अपनी दूधिया बौछारों में भिगो जाती हैं।


Hampi....2017...

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