उस दिन किसी ऑफीशियल कार्य से अपने गांव के पास के कस्बे
में जाना हुआ तो अचानक मेरा मन किया कि एक
चक्कर गांव का भी लगा लें। यूं तो करीब तीस पैंतीस साल का समय बीत चुका था मुझे
गांव छोड़े, बहुत कुछ बदल गया था आसपास, जीवन भी किसी और दिशा में बह निकला था, पर
पता नहीं क्या था कि उस दिन गांव बहुत खींच रहा था। सरसों फूलने के दिन थे तो मैं
पैदल ही खेतों के बीच की पगडंडी पर चली जा रही थी बीते हुए बचपन और किशोरावस्था को
मन ही मन जीती। न जाने कहां-कहां से स्मृतियां बंद किवाड़े खोल भागी चली आ रही थीं।
अब यूं तो गांव से कोई भी रिश्ता नहीं रहा था हम लोगों का, न घर दुआर, जमीन, न बाग
बगीचे लेकिन फिर भी माटी का जुड़ाव शायद इतनी आसानी से नहीं जाता।
गांव की शुरुआत पर ही पीपल के पेड़ के नीचे बैठी मटमैली
धोती में लिपटी एक आकृति दिखाई पड़ी। पास पहुंच कर देखा तो पहचान लिया, ये बृजरानी
बुआ थीं। उनकी धुंधलाती आंखें मुझे नहीं पहचान सकी थीं पर हमारी यादों में उनकी
सुनाई कहानियों के साथ साथ वो भी संपूर्ण रूप से जीवित थी। परिचय देने पर उनके
चेहरे पर अजीब सी ललक और खुशी पसर गई।
मैंने पूछा, ''बुआ यहां अकेले गांव बाहर क्यों
बैठी हो !''
पेड़ के नीचे सिंदूर में लिपटे भगवान की ओर
इशारा करते हुए बोलीं, ''बिटिया, अब यहीं ठिया है और यही आसरा।''
बृजरानी बुआ अपने पति
की मृत्यु के बाद बहुत छोटी अवस्था में ही अपने मायके वापस आ गई थीं। और चार
भाइयों की इकलौती बहन को भाभियों समेत पूरे परिवार ने, परिवार क्या समूचे गांव ने भरपूर लाड़ से संभाला था। बुआ थीं भी ऐसी कि जरूरत किसी की भी हो, कैसी भी हो, एक
पांव से पूरे गांव में चकरघिन्नी की तरह घूमती रहती थी। सब के काम आने वाली, सबके
दुख दर्द साझा करने वाली बुआ ने घरों में ही नहीं लोगों के दिलों में भी अपनी जगह
बना ली थी।
लेकिन समय कब एक सा रहता है, पुराने गए, नए आए, बुआ भी
शारीरिक रूप से अशक्त हो गई थीं। यूं जब तक उनके हाथ पैर चलते रहे न उन्होंने कभी
अपनी देहरी की कमी महसूस की न जमीन की। पर आज जीवन के इस पड़ाव पर वे कितनी
निस्सहाय बैठी थीं।
बुआ से बातें ही कर रहे थे कि करीब उन्नीस बीस साल की एक
लड़की साइकिल चलाते हुए आई और रुक गई। उसने मेरी तरफ एक प्रश्नवाचक निगाह डाली और
बुआ से बोली, ''कुछ मिला है खाने को सवेरे से?''
उनके कुछ कहने से
पहले ही दो मिठाई के टुकड़े अपने झोले से निकाल उनके सामने बढ़ा दिए। ये सरोज थी,
गांव की ही एक लड़की जो पास के डिग्री कॉलेज में पढ़ने जाती थी। उसका चेहरा बुआ की
बातें बताते-बताते आक्रोश से तमतमा गया था।
वो बोली, ''अभी अगर दादी के नाम घर जमीन
या बाग बगीचा होता तो सब इनको पूछते।''
तब तक आसपास और भी गांव की दो चार महिलाएं आ
जुटी थीं। उनमें से एक बोली, ''धत् पगलिया, लड़कियों के नाम कहीं जमीन जायदाद होती
है।''
सरोज बोली, ''हो सकती है और होनी चाहिए भी, हमारे कॉलेज में पिछले हफ्ते एक
संस्था से लोग आए थे, उन्होंने बताया था कि माता-पिता की हर संपत्ति पर लड़कियों
का भी उतना ही अधिकार होता है जितना कि लड़कों का।''
लेकिन ये बात वहां किसी के गले
के नीचे नहीं उतर रही थी। उनका सोचना था कि लड़की को तो ब्याह कर दूसरी जगह जाना
होता है तो मायके की संपत्ति में उनका कैसा हिस्सा।
पर इन सब से अलग थी बुआ के मन की पीड़ा, उन्होंने तो ताउम्र
घर दहलीज की कमी महसूस ही नहीं की थी। उनका कहना था कि घर जमीन होने से अगर चार
लोग दरवाजे पर जुटे भी रहते तो क्या उससे मन का सुख मिल जाता? सरोज की सोच इसके बिलकुल इतर थी, उसका कहना था, जरूरतें तो
पूरी होतीं और गांठ मजबूत हो तो सम्मान मिल ही जाता है। और मैं सोच रही थी कि दो
पीढ़ियों के बीच के इस वैचारिक और भावनात्मक अंतर पर कैसे एक पुल रचा जाए।
बिलकुल सही है सरोज कि स्त्री को समान अधिकार, हक दिलाने के
लिए कानून हैं, विभिन्न स्तरों पर उसका शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक उत्पीड़न
रोकने के लिए भी स्पष्ट कानून हैं किंतु क्या मात्र कानून बना लेने से सारी
समस्याएं हल हो जाती हैं। यह सच है कि कानून पक्ष को मजबूती देता है, नियम कानून
की जानकारी अपने हक की बात दूसरों के सम्मुख रखने में सक्षम बनाता है। अधिकारों की
लड़ाई लड़ने में कानून हथियार का काम करता है। किंतु सुधार के लिए मात्र कानून का
बनना या उसकी जानकारी होना ही पर्याप्त नहीं है। सामजिक रूप से सच्चे अर्थों में
स्त्री की स्थिति के सुधार के लिए आवश्यक है हमारे दृष्टिकोण एवं सोच में बदलाव।
समाज के हर तबके को जब यह सहर्ष स्वीकार्य होगा कि स्त्री बेटी हो पत्नी हो, मायका
हो या ससुराल हर देहरी पर उसका अपना भी एक हक है। उसका अस्तित्व, उसकी भागीदारी
समान है। तभी सच्चे अर्थों में परिवर्तन संभव है। इसीलिए कानूनी जानकारी देने के
साथ-साथ आवश्यक है कि सोच में बदलाव के लिए जमीनी स्तर पर काम किया जाए।
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