Friday, November 2, 2007

चबुतरे पर बैठ देखि ्गयि वो फ़िल्मे...

आज अखबार में खबर पढी कि अखिल भारतीय मराठी फ़िल्म संग्ठन ने एक निर्ण्य लिया है कि वे अब मराठी फ़िल्म्स महाराष्ट्र के गांवो मे होने वाले मेलों मे तम्बू टाकीजों में भी दिखाया करेगे । आव्श्यक कार्यवाही शुरु हो गयी है । उस्के बाद उनकी योजना राज्य के बड़े शहरों जैसे पुणे आदि मे भी तम्बू टाकीज शुरू करने की है ।उन्का मानना है कि इससे मराठी फ़िल्मों का प्रचार प्रसार तो होगा ही उनके लाभार्जन मे भी खासी व्रिधी होगी। जरूर होगी । बड़े बड़े होटलों में परम्परागत वेश्भूषा पहने वेटर,बैल्गाड़ी के पहिये , लाल्टेन ॥जब गांव वहां हिट हो रहा है तो तम्बू टाकीज भी हाथों हाथ लपका जायेगा । पर हम यह पोस्ट तम्बू टाकीज की अपेछित लोक्प्रियता या व्यवसायिक लाभ के मद्देनजर नही लिख रहे हैं । तम्बू टाकीज ने हमे फिर कुछ भूला बिसरा याद दिला दिया ।
कुछ ऐसे ही माहौल मे हम अपने बचपन में वेल्फेयर सेन्ट्र के मैदान मे फिल्म्स देखा करते थे । वहां तो सिर के ऊपर तम्बू भी नही होत था । ओपेन एयर थियेटर था । दो लोहे के खम्भे स्थायी रूप से गड़े थे । जिस दिन फ़िल्म दिखायी जाने वाली होती थी ,सफेद पर्दा टांग दिया जाता था । वही पास मे एक ऊंचा चबूतरा था। अमूमन तो यह नाट्को और राम्लीला के मन्च के रूप मे प्रयोग किया जाता था पर जिस दिन फिल्म दिखयी जाती थी यह महिलाओं और बच्चों के बैठने के लिये निर्धारित स्थान था । यूंही जमीन पर बिछी दरी पर बैठ कर फिल्म का आनन्द लिया जाता था । चबूतरे के नीचे जमीन पर बिछी दरी पर बाबा,पिताजी और चाचाजी लोग होते थे । भाई लोग तो अपनी अपनी पसन्द की सुविधानुसार सायिकिल स्टैन्ड पर खड़ी कर ,उस पर टिक लिया करते थे । वैसे भी मोहल्ले की सारी लड़्कियों के सामने जमीन पर बैठ्ते अच्छे दिखते क्या वो लोग । हां एक बात और उस दिन सभी भाई लोगो को अपनी अम्मा ,बड़ीऔर छॊटी बहनो पर बड़ा प्यार उमड़्ता था । कभी मूंग्फली , कभी पानी पूछने के लिये चबूतरे के चक्कर लगा करते थे ।
फिल्म जिस दिन दिखायी जानी होती थी दोपहर को वेल्फेयर सेन्टर के नोटिस बोर्ड पर चाक से सूचना लिख दी जाती थी और फिर एक से दूसरे तक सूचना पूरी कोलोनी मे फैल जाती थी । खाना पीना जल्दी निप्टाने की तैयारी होने लगती थी । लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता था कि सूच्ना समय से सब तक पहुंच नही पाती थी । एक बार ऐसा ही हम लोगो के साथ हुआ । हम शायद तीसरी या चौथी क्लास मे पढते होगे । हमे मैदान मे खेलते समय पता लगा कि आज फिल्म दिखायी जानी है और बस शुरू ही होने वाली है । हम गिरते पड़ते घर पहुंचे अपनी बड़ी बहनों को खबर देने ।हमारी दोनो बहने हमसे करीब नौ दस साल बड़ी हैं । पहले से तैयारी नही थी इस्लिये खाना निपटा नही था । गैस तो थी नही कि स्विच बंद किया और उठ लिये । अंगीठी अगर एक बार सुलग गयी तो खाने का काम तो निपटाना ही था । उन लोगो ने कहा तुम चल कर देखो हम लोग आते हैं । हम भाग लिये । पर्दा तन गया प्रोजेक्टर सेट हो गया । हम बार बार पीछे मुड़ कर देखे पर हमारी बहनो का कही अता पता नही । फिल्म शुरु हो गयी । अब मेरा धीरज छूट गया । परदा अपनी तरफ खींच रहा था और मन घर की ओर भाग रहा था । मेरी बहने देख नही पारही हैं यह सोच कर मेरा मन नही लग रहा था । हम एक बार फिर सर्पट घर की ओर दौड़े । उन्होने फिर भेजा वापस कि देखो बस काम खतम ,आ हीरहे है । हम वापस सेन्टर । कुछ देर और हम फिर बेचैन और फिर भागे घर की ओर । इस बार वो लोग घर के दर्वाजे पर ही मिल गयी। इस सब भागा दौड़ी मे तक्रीबन बीस मिनट निकल गये । पर हम बहुत खुश थे कि अब बाकी फिल्म हम साथ साथ देखेगे । लेकिन जब हम वहां पहुचे तो देखते है कि लोग उठने कि तैयारी मे हैं। उस दिन केवल न्युज्रील दिखायी जानी थी । मेरे दुख की कोई सीमा ना थी । मेरा रोना किस्के लिये था । खुद अपनी फिल्म छूट जाने के लिये । अप्नी बहनो के वन्चित रह जाने के लिये या फिर अप्ने प्रयासो के निश्फल हो जाने पर । यह हमे ना उस समय पता था ना आज है पर्वह बच्ची आज भी हमारे अन्दर जिन्दा है ।

3 comments:

who cares... said...

जाग्रति , दो आंखे बारह हाथ और आशिर्वाद तो मुझे भी याद है...सुबह से ही हम लोग तैयारी शुरू कर देते थे. फ़लां फ़लां के साथ बैठना है. थोडी दादागिरी भी होति थी ...मल्टीप्ले़क्स मे वो मजा कहां...सब छूट गया...

rambmisra said...

Dear Namita,
I remember seeing Do Bigha Jameen. Those were the days. Keep this up.

Behariji

namita said...

well, i m loving it . i m reliving the days that too with people of those days ,the people who matter to me .