Thursday, December 27, 2007

हमारे छोटे भैया रहेट वाले

आज कल सिक्वेल का जमाना है । हेरा फ़ेरी के बाद फ़िर हेरा फ़ेरी ,धूम के बाद धूम २ वगैरह वगैरह ,तो भाई हम अपने रहेट वाले भैया पर भाग २ क्यों नही लिख सकते जब कि हमारे पास कहने सुनने को अनुभव है । वैसे भी जब पहली बार छोटे भैया को याद किया था तो ब्लाग की शुरुआत थी ।ज्यादा टाइप करना भी हमारे लिये परेशानी का सबब था ।इसीलिये कतरा कतरा से काम चला लेते थे । नही ऐसा नही है कि हम अब कोई बहुत बड़े लिक्खाड़ हो गये है पर हांं पहले से ज्यादा दोस्ती तो हो ही गयी है की बोर्ड और पी।सी। से । पहले वाले ब्लाग पर कमेंट करते हुए नरेश ने कहा भी था कि ’अभी बहुत कुछ और लिखा जा सकता था ’ फ़िर लिखने वाले को लिखने का बहाना चाहिये । इसका नशा भी शर चढ कर बोलता है ।हां तो लुत्फ़ फ़र्माइये ,पेश है छोटे भैया की याद मे एक और पोस्ट।
पैर के सामने आये पत्थर को हमने जोर से दूर तक उछाल दिया . अब और क्या करते ? इतना गुस्सा आ रहा था ,किसि पर तो निकाल्ना था ना . इन बड़े लोगो को तो समझाने की कोशिश भी बेकार है . इनके लिये तो बच्चो की न कोई इज़्ज़त होती है न बात की कीमत . जैसे ये सारे भारी भरकम शब्द बस इन बड़े बुजुर्गों के लिये ही बनाये गये हो . कितनी कोशिश की थी अम्मा को सम्झाने की,बस एक बार वह नयी वाली पेन्सिल स्कूल ले जाने दो .पर नहि अच्छी चीज है तो उससे घर मे ही लिखो . अब भला ये क्या बात हुई .जब तक उसे क्लास मे सब्को दिखाया न जाये ,सबकी आखो मे उसे छू लेने की ललक को देखा न जाये तो नयी तरह की चीज का क्या फ़ायदा .
कल कितने रुआब से सबके बीच मे हमने अपनी नयी पेन्सिल का जिक्र किया था . मेरे मामा कान्पुर आई .आई .टी . मे थे . वहां बहुत सारे दूसरे देशो के लोग भी थे . उन्ही मे से एक ने हमे वह पेन्सिल दी थी . तब आज की तरह ग्लोब्लि जेशन का जमाना तो था नही कि दूसरे देश और वहां की चीज ,मोहल्ले पड़ोस की बात हो . फि र असली मुद्दा यह नही था कि पेन्सिल कहां से आयी या किसने दी . वह पेन्सिल थी ही इतनी अलग और खूब्सूरत .काही रंग की एच.बी. पेन्सिल्स और लाल रंग मे काली धारियों वाली एक जैसी पेन्सिल्स की भीड़ मे कैसी अलग चमकति वह पेन्सिल.
मूड बेतरह खराब होने के बाद भी उस पेन्सिल का ध्यान आते ही मेरे मन मे खुशी उमगने लगी .चेहरे पर अप्ने आप ही मुस्कुराहट आ गयी . दोस्तो ,सहेलियों द्वारा चिढाये जाने ,मजाक उड़ाये जाने की आशंकाओ की धुन्ध छट गयी और मेरी समूची चेत्ना पर बस वह पेन्सिल छा गयी .
कैसा चमकता सा धानी रंग है और उसकी छुअन भी कैसी रेशमी है . ये अपनी आम पेन्सिल्स जैसी नही कि ज्यादा लिखो तो उन्ग्लियां कड़ी पड़ जायें .उसके हाथ मे आते ही ऐसे लगता है जैसे वह हमे सहला सहला कर और लिखने के लिये उकसा रही हो.और धानी रंग पर नन्हे नन्हे बसंती फ़ूल . बिल्कुल सर्सों के फ़ूले खेत सी जिसमे दोनो हाथ फ़ैला कर बस हवा के साथ दौड़ते जाने का मन करे.
हम अपने कल्प्नालोक मे ऐसे खोये थे कि हमे पता हि नही चला कि हम कब आधे से ज्यादा रास्ता पार कर चुके थे और स्कूल पास आने वाला है . हम वापस धरातल पर थे .सबके चेहरों पर छाने वाली
मुस्कान हमे अभी से डरा रही थी .
कल जब हम अपनी पेन्सिल का वर्णन कर रहे थे तो आधे से ज्यादा को तो विश्वास ही नही हो रहा था और अब जब हम उन्हे दिखा नही पायेगे तो सब कहेगे कि यह तो बस हर चीज की कल्पना कर लेती है इसलिये हमे बेव्कूफ़ बना रही थी . हमे कोई झूठा कहे तो सच कित्ता गुस्सा आता है पर अब हम कर भी क्या सकते है ? मेरा बस चलता तो आज स्कूल नही आते पर फ़िर वही मुश्किल अम्मा को क्या सम्झाते कि हम क्यो नही जायेगे .मेरी इतनी बड़ी परेशानी और उनके लिये तो बस हसने की बात हो जायेगी . हम तहे दिल से मना रहे थे कि आज कोई करिश्मा हो जाये और सब पेन्सिल के बारे मे भूल जाय़ॆ.या तो आज किसी कारण्वश जाते ही छुटटी हो जाये . एक दो दिन बाद तो वैसे भी सब कुछ कुछ भूल ही जायेगे और तभी करिश्मा हो गया
सड़क के उस पार वाले मैदान मे हम लोगो के छोटे भैया अपने लावा लश्कर के साथ मौजूद थे . ये छोटे भैया यूं तो रहट वाले थे , अरे रहट यानि आज के जांइट व्हील का पुराना संस्करण ,लेकिन हम सब के लिये वे ’मिनि ’ के ’काबुलिवाला ’ से कम नही थे .रहट झूलने से ज्यादा मजा हमे उनके यात्रा संसमरण सुनने मे आता था .उन दिनो वैसे भी बच्चो के लिये घूमने जाने की जगहे निश्चित सी हुआ करती थी ...छुट्टियों मे दादी -नानी के घर .ऐसा नही कि हम इन जगहो मे जाने के लिये लालायित नही रहते थे पर इन जानी समझी जगहो से एक्दम अलग होता था छोटॆ भैया की यात्राओ का संसार .
हर दो तीन महीने मे एक बार वे हमारे स्कूल के पास वाले मैदान मे अपना रहट गाड़ते थे और जिस दिन वे आते थे हम लोगो के मन जैसे रस्सी तुड़ा कर उनके पास भग जाने को आतुर रहते थे .कोई और बात हम लोगो के बीच होती ही नही थी . रहट के हिडोले मे बैठने से पहले ही हम पूछते ’छोटे भैया ,इस बार कहां हो आये ’और फ़िर हिंडोले की ऊपर नीचे लहराती गति के साथ हमारी आंखो के आगे सजने लगता कभी किसी गांव का मेला ,हरी ,नीली ,गुलाबी चूड़ियों की दुकाने ,मिट्टी के खिलौने ,कठपुतली का नाच ,मुंह मे घुलने लगता खोये की मिठाइयों का सोंधा स्वाद या फ़िर गन्ने के खेत ,आम का बगीचा,नाच्ता मोर ,कभी आंधी पानी,कभी काली रात मे छोटे भैया की भूत से मुठ्भेड़ ,कुश्ती,दंगल,नौटंकी और न जाने क्या क्या .गरज यह कि हम हर बार छोटॆ भैया की वंडर्लैंड मे एलिस होते .विषय से अधिक हमे सम्मोहित करता था उनके कहने का अंदाज ..कैसी नयी नोखी होती थी उनकी शब्दावली और कैसा आवाज का उतार चढाव . हर द्रिशय आंखो के सामने चित्र सा सजीव हो उठता था .
लेकिन छोटॆ भैया और हमारे रिश्तो मे इससे भी इतर बहुत कुछ था .स्कूल जाते समय हम लोग कितनी भी जिद करे वे हमे कभी रहट नही झुलाते थे . उनका कहना था कि पढने जाते समय मन बिल्कुल पढाई की तरफ़ ही होना चाहिये . स्कूल से लौटते समय भी एक राउंड के बाद दूसरा नही .अम्मा घर मे रस्ता देख रही होगी . हां शाम को खेलने के समय अम्मा को बता कर आने पर हम उनके पास रुक सकते थे . हिंडॊले मे बैठने के पैसे तो सीमित होते थे ,इस्लिये झूलने के बाद हम लोग वही आस पास ईट पत्थर पर बैठ उनकी बाते सुनते थे . हां एक बात और बहुत प्यार करते थे वे हम लोगो को .नही इसमे कहने सुनने की क्या बात है .बच्चे थे तो क्या हुआ इतना तो हमे समझ मे आता ही था. हां सारे प्यार दुलार के बाव्जूद वे बिना पैसे के हमे एक चक्कर भी नही झुलाते थे . नहीं नहीं आप बिल्कुल गलत समझे .इसका कोई विशुद्ध व्यवसायिक कारण ही नही था मात्र . वे हमारी आदते नही बिगाड़ना चाहते थे .अगर कारण मात्र व्यव्सायिक ही होता तो हमारे पास ज्यादा पैसे होने के बाव्जूद वे हमे सारे पैसे रहट मे ही ना खर्च करने की सलाह नही दिया करते .
रहट चलाना उनका जीव्कोपार्जन का साधन जरूर था पर देखिये न वे अपने होने को कितना अर्थ्पूर्ण बनाते चलते थे . उनके हर पड़ाव पर हमारे जैसे कितने ही बच्चे होगे जिनमे उन्होने अच्छाई के बीज बोये होगे .उनके अनुभव सुनते समय हम लोग उनसे अक्सर कहते थे ,छोटे भैया आपके कितने मजे है ,कभी यहां, कभी व्हां ...कितनी नयी नयी चीजे देखते है . असल मे उनका यूं कांधे पर ग्रिहस्थी लादे कभी भी कही भी चल देना हमे बड़ा फ़ैसीनेट करता था .कैसा तो एक मुक्त होने का एह्सास दिलाने जैसा . पर हमारी बात सुन कर उनके चेहरे पर जो एक अबूझी सी मुस्कान छा जाती थी उसका अर्थ हमे आज समझ मे आता है . हमारा तिल्स्म नहीं तोड़ना चाहते थे इसीलिये शायद कुछ नही कहते थे पर अपनी देहरी से दूर कभी ना खत्म होने वले रास्तो पर लगातार चलने की मज्बूरी का दर्द समझने लायक हम तब कहां थे .
हमे याद है एक बार उन्के छोटॆ से तम्बू के बाहर बने ईटो के चुल्हे को देख हमने उनसे अचानक पूछा था ,’छोटे भैया आपका घर नही है कही क्या ?’
है ना ,बिटिया और घर मे आपकी जैसी एक बिटिया भी है .उसी के लिये पैसा कमाने तो हम निकलते है रहट ले कर ’
सच कहे तो उन्के चेहरे पर अचानक फ़ैली ढेर सी खुशी और ममता देख हम अन्दर कही थोड़ा दुखी हो गये थे .हमे लगा अरे कोई और है जिसे ये हमसे ज्यादा प्यार करते है. लेकिन अगले ही पल हमे उस नन्ही सी बच्ची पर दया आयी कि उसे अपने पिता से कितने कितने दिन दूर रहना पड़ता है
लेकिन छोटॆ भैया ने बताया कि चाहे केवल रात भर के लिये ही क्यों ना हो वे हफ़्ते मे एक दिन े घर ज्रूर हो आते है . उस दिन के बाद से हम जब भी उनसे मिलते उनकी बिटिया के बारे मे जरूर पूछते .
देखिये छोटे भैया दिखाई पड़ गये तो हम बस उन्ही के बारे बिना रुके बोले चले जा रहे है और वह हमारी पेन्सिल तो जाने कहां रह गयी .लेकिन यही तो चम्त्कार है हमारे छोटॆ भैया का हमे पता था उनके आने की खबर सुन कर बस उनकी ही बाते होने वाली हैं
हम दौड़ कर उनके पास गये ,’कब आये छोटे भैया ?देर रात क्या?
’हां ,बिटीय़ा .जब तक स्कूल से लौटोगी तब तक रहट खड़ा हो जायेगा .अरे आज अकेले कैसे ? तुम्हारे साथी कहां है ?
बस सब आ ही रहे होगे . हमने खुश हो कर कहा और जल्दी से स्कूल की ओर बढ गये .सबको बताना भी था ना कि आज खाने की छुटी मे कोई भी बाहर खड़े ढेलो से कुछ भी खरीद कर नही खायेगा .रहट झूलने के लिये पैसे जो बचाने थे .जैसा हमने सोचा था वैसा ही हुआ उस दिन पेन्सिल का ध्यान किसी को नही रहा . लेकिन मेरे मन मे तो उसे दिखाने की चाह थी ना .
आखिर अपने लगातार प्रयासो से हमने एक दो दिन मे अम्मा को मना ही लिया और उस दिन पेन्सिल मेरे बैग मे थी . हम उस दिन भी स्कूल अकेले जा रहे थे .हमने सोचा कि यदि कोलोनी के बच्चो के साथ जायेगे तो पेन्सिल बैग मे है यह बात पचा पाना मेरे लिये जरा मुश्किल होगा और रास्ते मे रुक कर बैग से पेन्सिल निकाल कर दिखाने मे वह बात नही आयेगी जो क्लास मे अचानक उसे सबके सामने लाने मे होगी .हम यही सब सोचते चले जा रहे थे कि मैने दूर से छोटॆ भैया को अपने दोनो हाथो मे सर थामे बैठे देखा .
अरे ऐसे तो वे कभी नही रहते .कल शाम ही तो बता रहे थे कि इस बार बस तीन चार दिन ही रुकेगे .इस बार मेले मे कमायी अच्छी हो गयी थी .वे तो इधर आने वाले नही थे मगर अब्की बिटिया और उसकी माई को लेकर बिटिया की नानी के यहां जाना है .रहट ले कर लम्बे समय तक नही आ पायेगे इसीलिये रास्ते मे तीन चार दिन हम लोगो के पास रुक ने आ गये थे .बहुत खुश थे कि बिटिया के लिये इस बार अ आ की किताब भी खरीदेगे .आज तो उन्हे सब सामान खरीद्ना था और रात को चल देना था.
हम धीरे से उनके पास जा खड़े हुए . छोटॆ भैया क्या हुआ ?
बहुत बार बुलाने पर उन्होने धीरे से सर उठाया .हम धक से रह गये .हमेशा मुस्कुराती रहने वाली उनकी आंखो मे पानी था .
हम लुट गये बिटिया .बर्बाद हो गये .कल रात जाने कौन हमार पैसा वाला बैग चुरा ले गया . अब कौन मुह ले कर घर जाये . बिटिया और उसकी माई कितने उछाह से रस्ता तकत होगीं .अब हम का ले जा पायेगे अपनी बिटिया के लिये .
छोटॆ भैया का प्रलाप जारी था . धीरे धीरे उनके चारो ओर बच्चो का गोल घेरा हो गया था . हम सब दुख और आक्रोश से भरे थे . क्या करे हम अपने छोटॆ भैया के लिये .अचानक हम सब्के हाथ अपने अपने बस्ते मे गये और फ़िर छोटे भैया के सामने फ़ैल गये . सबकी हथेली पर पांच पैसे का सिक्का था और मेरे हाथ मे पीले फ़ूल वाली धानी पेन्सिल .

3 comments:

Naresh Soni said...

Namaste

It was really good... pahle pencil ka kissa... fir chhote bhaiya ki baat... aur fir aakhir mein dono kisson ko aakhiri line ne jod diya... good one...

Chhote Bhaiya waakai gajab the... lekin ek baat samajh nahi aayee... chhote bhaiya... chhote kaise ho gaye...

Naresh Soni said...

ab maine aapke aur sir ke blog ko apne orkut ke homepage par add kar liya hai...

Will be more frequent to ur pages... :)

namita said...

नरेश
नमस्ते
ध्न्यवाद ,तुम जल्दि जल्दि देखोगे ,तो हम लोगो को ज्यादा और जल्दि लिखने का incentive मिलेगा .
छोटे भैया का नाम शायद छोटेलाल था बस् तो नाम मे छोटे रह गये वरना तो वे सच्मुच बड़े थे .
नमिता