आज कल लखनऊ जाने की तैयारी चल रही है । बिट्टू यानी गुड़िया के बेटे की शादी में। हम सब पुष्कर के घर मे होगे लेकिन पुष्कर के बिना । इससे पहले हम सब कान्पुर वाले, रंजना की शादी मे इकठ्ठा हुये थे । कितने साल हो गये ....शायद २४ या २५ साल । तब से अब तक बदलना तो बहुत कुछ था ही । पूरी एक पीढी का फर्क है । कुछ लोग जो तब थे अब नही हैं, कुछ जो तब बड़े थे अब बूढे है ,जो बच्चे थे और कुछ जो तब थे ही नही अब बड़े हो गये है। लेकिन इस सब के बीच कुछ है जो होने चाहिये थे और नही हैं। मुझे लगता है कही न कही यह पुष्कर की आत्मा ,उस्के मन का ही जोर है कि बिट्टू की शादी के कार्यक्रम उसके घर से होगे । सम्बंध बनाने ,उन्हे निभाने के प्रति वह ताउम्र बेहद ईमानदार रहा । जब सब लोग किसी अवसर पर एक साथ होते थे तब उसका उत्साह देखते ही बनता था । उसकी खुशी इतनी जेन्युइन होती थी कि आप उसमे डूबे बिना रहे ही नही सकते थे । कुछ प्रबंध करना हो, खाना खिलाना हो या फिर सबके बीच बैठ हंसना खिल्खिलाना ,हर जगह जैसे एक साथ होताथा वह।
और एक बार फिर हमे बेइन्तहा याद आ रहा है अशोक मार्ग वाला आंगन।कहते हैं ना कि रिश्ता केवल आदमी का आदमी से नही होता है वरन आदमी का जगह से भी होता है। मेरा भी उस आंगन ,दालानो और छत से कुछ ऐसा ही रिश्ता है। न हम उस घर मे न तो पैदा हुए ,न पले बढे । अच्छा ही है कि किसी मिल्कियत ,किसी दावेदारी वाला कोई रिश्ता नही है मेरा ।शायद इसीलिये आज भी उस सड़क से गुजरते हुए हमे वह पुलिया दिखायी देती है जहां छुट्कैया से मेरी पहली मुलाकात हुई थी । पुलिया के बाद का वह कच्चा पतला रास्ता जिस पर बेसब्री से टहलती अम्मा मेरा इन्त्जार करती थी ,जब हम बैंक की ट्रेनिग के दौरान लखनऊ आ कर ठहरते थे । वह बड़ा सा खुला खुला आंगन जिसके एक कोने मे झकाझक सफेद इकलाई की धोती मे भाभी उस उमर मे भी कुछ नकुछ करती होती । हां यूं देखने मे ऐसा लगता कि वे मुंह झुकाये अपने काम मे तन्मय हैं पर घर मे बच्चे से ले कर बड़े तक मन मे भी क्या चल रहा है इसकी उन्हे पूरी खबर रहती थी । वो भी बिना किसी के बताये...जैसे बर्गद का पेड़ जितना पुराना होता जाता है ऊपर ही नही धरती के अन्दर भी उसकी पैंठ उतनी ही गह्राती जाती है।
हमको रसोई घर के बगल का वह छोटा कमरा भी याद है जहां बैठ कर दादा से हमारी बातें होती थी ,अग्येय के ’नदी के द्वीप’से ले कर बच्चन की कविताओं तक। उसके बाद वाला वह लम्बा सा कमरा जिसके दर्वाजे गली पार नन्ही मौसी के आंगन की ओर खुलते थे। उस कमरे मे लेट कर हमने हिन्दी साहित्य की न जाने कितनी अमूल्य क्रितियों को पढा था ।
और नन्ही मौसी के आंगन मे हर्सिंगार का पेड़ .....आज भी जब भी किसी घर मे हम हर्सिंगार देखते है मेरी चेतना मे वह पेड़ छा जाता है। और भी बहुत कुछहै...सामने बाउंड्री मे लगा नीबू का पेड़ , आंगन का कुंआ ,दालान मे खुलते ऊपर वाले कमरे के दर्वाजे ,छत और सब लोग भी । सब याद है हमे. सारे लोग भी । फिर भी लखनऊ मे होते हुए भी हम गये नही न उन लोगो के पास ,न उस जगह के पास । विवेक कहता है जाना चाहिये था पर मन शायद स्वारथी हो गया था । वह उन यादों पर कोई और रंग नही चढाना चाहता था ।
हम आखिरी बार रंजना की शादी मे उस आंगन मे थे । उन दिनो रेखा वाली उम्राव जान के गानो की धूम थी और पुष्कर हर आने वाले से कहता था....इस अन्जुमन मे आपको आना है बार बार, दीवारो दर को गौर से पह्चान लीजिये...’.....पह्चाना क्या हमने तो अपना हिस्सा बना कर रख लिया पर देखो न पुष्कर न वो दीवारो दर रहा न..........
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