Tuesday, November 13, 2007

याद आती है गुलाबो-सिताबो...

ंअरे, देखो फिर लड़ै लागी ,गुलाबो सिताबो। आओ हो देखो बच्चो फिर शुरु हो गयीं दोनो ।’ ये हांक सुनायी पड़्ती और हम लोग दर्वाजे की तरफ भागते । हाथ में दो कठ्पुतलियां और गले से निकलते गीतों के स्वर। हर तीज त्योहार या यूं भी महीने डेढ महीने के अंत्राल मे कठपुतली वाले दरवाजे पर होते और हम लोग बार बार देखे उस खेल को बार बार सुने उन गीतों को हर बार नये रस से सुनते ,नये उछाह से देखते।
गले मे लटकते रुपहले सुनहले हार ,चटाकीले रंगो की गोटा किनारी लगी चुनरी ,घेर दार लहगा , हाथ भर भर चुड़ियां नाक मे झूलती नथुनी, मांग मे सजा बेंदा , गरज यह कि सोलह सिंगार से लैस ठसके मे रहती थी गुलाबो ।े अरे भाई बड़े बाप की बेटी ठहरी गुमान तो होना ही था । और इधर सिताबो गरीब घर की बेटी पर रूप ऐसा कि पूनो का चांद भी पानी मांगे । इसी रूप पर तो ऐसे लुटे गुलाबो के पति देवता कि सिताबो आ बैठी गुलाबो की छाती पर सौत बन । अब बड़ी ड्योढी की ठसक अलग बात है पर पति तो ठहरा पर्मेश्वर उससे तो जीत ना पाये गुलाबो सो ठनी रहे सिताबो से । सिताबो भी चुप क्यों रहे भला । भाग तो आयी ना वो बाकायदा गाठी जोड़ के आयी है देहरी पर और फिर गुलाबो के पास पैसे की गर्मी तो सिताबो के पास रूप की आंच । जब कोई किसी से ना दबे तो होये रोज खटर पटर और गुलाबो सिताबो का झगड़ा बन गया सबका मनोरंजन।
कुछ ऐसी ही कहानी गीतो मे गायी जाती थी । हमे पूरा तो याद नही है पर कुछ लाइन ऐसी थी

गुलाबो खूब लड़े है
सिताबो खूब लड़े है......
साग लायी पात लायी और लायी चौरैया
दूनौ जने लड़ैं लागीं ,पात लै गा कौआ

गीत के साथ साथ हाथो मे कठ्पुतलियां थिरकती जाती थी । ऐक्शन सारे कठपुतलियों से करवाये जाते थे और भावों की अदायगी होती थी गाने के उतार चढाव से । हम ऐसे डूबे रहते जैसे सब आंखो के सामने सच्मुच घट रहा हो ।उत्तर प्रदेश मे उस समय गुलाबो सिताबो से सब परिचित थे । अब हमे ना पूरा गीत याद है ना कथाक्रम पर उससे मिला आनंद आज भी मन मे घुलता है ।
हमे ऐसा लगता है कि कोई कोई गुलाबो सिताबो की लड़ाई को सास बहु की लड़ाई के रूप मे भी सुनाता था । लेकिन असली मजा था उनके एक दूसरे पर झपटने का और नोक झोक का । हां उनके कपड़े और गहनों का आकर्ष्ण भी कुछ कम नही होता था ।
उस समय इस तरह के खेल तमाशे घर तक आते थे । बंदर का नाच , भालू का नाच । यही मनोरंजन के साधन थे । आज तो जानवारों से इस तरह के काम करवाने पर तरह तरह के आंदोलन छॆडे जाने लगे हैं।वैसे तो अब पहले की तरह ये दिखते भी नही है और अगर कभी कोई दिख भी जाये तो बहुत दयनीय स्थिति मे होता है । लोगो के पास मनोरंजन के नित नये साधन हो जाते है । इतनी तेज दौड़ मे ये बहुत पीछे रह गये है । जहां तक हम याद कर पाते है पहले ना इन जानवरो को खाने की कमी रहती थी ना इस तरह के खेल तमाशा दिखाने वालों के पास । शहरों ंमे रहने पर भी लोगो का गांव घर से ताल्लुक बनाहुआ था शायद इसीलिये अनाज की कमी नही होती थी । लोग खुद भी खा पाते थे और दर्वाजे आये लोगो को भी दे पाते थे ।
ये तमाशे भी लोक कला के अंग थे । बंदर बंदरिया के नाच मे बंदरिया का रूठ कर मायेके चले जाना , बंदर का उसे मनाने जाने के लिये तैयार ना होना, और फिर जाने के लिये राजी होने पर सर पर टोपी पहन ,आईने मे चेहरा देखना.....किसी नाटक के द्रि श्य सा ही होता था । हां पात्र इन्सान ना हो कर जान्वर होते थे बस सूत्र्धार का काम आदमी करता था ।
अब बच्चे जू मे देखने जाते है जानवरों को तब उनमे से कुछ गली मोहल्ले तक आते थे । वे हमारे लिये केवल जान्वर नही रह जाते थे किस्से कहानियों के पात्रो की तरह हमारे अपने हो जाते थे ।
समय के साथ बहुत कुछ बदलता है । कुछ का स्वरूप बद्ल जाता है ,कुछ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है पर कहते है कि समय चक्र है और चक्र् तो गोल गोल घूमता है ।यानि जहां से एक बार गुजरता है घूम कर फिर वहां आता जरूर है । आज कठ्पुतलियो का नाच , हाथी पर च्ढ्ना...बड़े बड़े होटलो ,पार्को,पांच सितारा शादियों का हिस्सा बन रहे है। लोक कलाओं को बढावा देने ,जीवित रखने के तौर तरीको की चर्चाओं से बाजार गर्म है । क्या पता कल को ये गुलाबो सिताबो , ये खेल तमाशे फिर हमारे घर आंगन मे हों .

No comments: