देखिये परसों कहा था कि आगे की यात्रा पर कल चलेगें पर एक दिन यूं ही खिसक गया । यही तो जिन्दगी है ,सब कुछ जैसा सोचा ,जैसा चाहा वैसे ही हो जाये तो फिर अग्यात के आकरष्ण का आनन्द तो गया ही सम्झिये ना ।
खैर चलिये आगे की यात्रा पर ।
अब तक हम लोग माथुर साहब की प्रतिक्रियायों के अंदाज से परिचित हो चुके थे इस्लिये श्रिवास्तव जी के आते ही हम समझ गये थे कि वे पहले सुरछात्मक मुद्रा मे आ चुके है । और वही हुआ । एक सूट्केस जिसमे शायद कुछ कीमती सामान होगा उसे किनारे की ओर रखने के श्रिवास्तव जी के प्रयास को माथुर साहब ने सिरे से निरस्त कर दिया ।
’मेरे बैग को हटा कर अप्ना सामान रखने की सोच रहे हैं । यह नही हो पायेगा । ’
सच तो यह था कि वे किसी भी छोटे बड़े परिवर्तन से आशंकित हो उठते थे ।होता है ऐसा अक्सर जिस तरह की जिन्दगी जी होती है हमने , जैसे अनुभव होते है हमारे ,अन्जाने ही हम उनके अनुसार ही व्यवहार करने लग जाते है । ठहरी ,सपाट जिन्दगी काट लेने के बाद आदमी का रद्दो बदल के प्रति आंशकित होना स्वाभाविक ही है ।
हम सब ने मिल कर जगह बनायी और सब कुछ फिर से व्यवस्थित हो गया । गाड़ी चल दी । परिचय ,बातों का सिल्सिला शुरु हो गया । अब माथुर साहब भी फिर से निश्चिन्त थे ।
श्रिवास्तव जी से बोले ,’असल मे उस बैग मे मेरी दवाये है। आपने बुरा तो नही माना । अब चौसठ साल की उम्र हो गयी है । आप क्या समझेगे अभी । ’
बात सुन कर श्रिवास्तव जी और उनका बेटा एक दूसरे को देख कर मुसकराये फिर श्रिवास्तव जी बोले ,’ अरे तो मै कोई लड़का हू। मै भी बासठ साल का हो गया हूं ।’
लेकिन यह सच था कि उम्र का फ़र्क भले ही केवल दो साल का रहा हो , दोनो लोगो के व्यव्क्तित्व और तौर तरीको मे बहुत अन्तर था । बात फ़िर वही आ जाती है घूम फ़िर कर जिन्दगी ने आपको कैसे ट्रीट किया है इसका आपके हर क्रिया कलाप ,आत्म्विश्वास पर बहुत फ़र्क पड़ता है ।
माथुर साहब ने अपनी नौकरी मे दोनो बेटॊ को अच्छी शिक्छा दे दी । बेटे अच्छी नौकरियो मे है । सब साथ मे अच्छी तरह रह रहे है पर उन्होने जो जीवन जिया है और बच्चे जो जिस स्तर पर जी रहे हैं ,उसमे बहुत अन्तर है । बच्चो की उन्नति पर गर्व है खुद भीअब ऐसी कई चीजे देख सुन और भोग रहे है जिसकी शायद कभी सपने मे कल्पना भी ना की होगी । लेकिन इतनी तेजी से आये परिवर्तन से सामंजस्य बिठाना शायद स्वाभाविक तरीके से नही हो पा रहा था ।वो लगता है ना कि जैसे आपको अपने धरातल से उठा कर एक्दम कही हवा मे उछाल दिया गया हो । ऐसा केवल उन्ही के साथ नही हो रहा वरन आज अधिक्तर मधयम्वर्गीय मातापिता जो उम्र के इस दौर मे है ,उनकी ऐसी ही स्थिति है । जीवन स्तर से ले कर तक्नीकी चीजो मे जिस तेजी से विकास हुआ है कि तेजी से दौड़ते हुए हांफ़ रहे है फ़िर भी पीछॆ होने का डर साथ लगा ही रहता है ।
श्रीवास्तव जी इसी उम्र के दूसरे वर्ग का प्रतिनितिध्व कर रहे थे । बेटो से पहले ही उन्होने परिवर्तनो के साथ चलना शुरु कर दिया था और आज भी काम कर रहे है । एक लैपटाप बेटा ले कर चल रहा था तो दूसरा वे स्वयम । जितनी आफ़िसियल काल बेटा अटेन्ड कर रहा था उससे कम उनके सेल पर नहीं आरहीं थी । और इन सबका फ़र्क साफ़ दिख रहा था ।
उम्र और व्यक्तितव के सारे भेदो के बाव्जूद हम लोग काफ़ी अच्छी तरह से घुल्मिल गये । वत्र्मान से ले विगत तक की बातो का सिल्सिला शुरु हो गया । हम सब लोग किसी न किसी की शादी मे शरीक होने जा रहे थे ।
श्रीवास्तव जी की भतीजी की शादी थी । पुणे से लख्नऊ के बीच उनके अन्य रिश्तेदारो को भी इसी गाड़ी मे चढ्ना था । कोपर्गांव मे उनकी छोटी बहन और बह्नोई को आना था । हम लोगो की गाड़ी मे पैन्ट्री कार नही थी ।सुनीता जी यानि श्रिवास्तव जी की छोटी बहन चिकन बना कर लाने वाली थी । बेसब्री से कोपर्गांव का इन्त्जार हो रहा था । गाड़ी लेट हो गयी थी । हम लोग अपना खाना खा चुके थे ,पर सब लोग उनकी प्रतीक्छा कर रहे थे । वे लोग आये । परिचय हुआ । बाते हुई । सुनीता जी के पति ने माथुर साहब से कहा ,’ हम लोगो की वजह से आपको कष्ट हुआ । अभी तक बैठे रहना पड़ा । बड़े हैं आप ।’
माथुर साहब बोले ,’अरे बड़े हम कहां । आप हमारे मान्य है। आप के लिये तो हमे दर्वाजे पर खड़े होना चाहिये था ।’और जोर से एक आत्मीय ठहाका लगाया .
तो अब हम लोग सब एक परिवार के सदस्य थे । श्रीवास्तव जी ने कुशल पारिवारिक मुखिया का पद बखूबी सभाल लिया था । किस स्टेशन पर क्या चीज बढिया मिलाती है , कहां चाय पीना है ,कहां फल खाना है , सब उनके निर्णय पर था और हम सब मिल बांट कर खा ,बतिया रहे थे । रास्ते भर गाने गाए गए । सुनीता जी और स्नेहा की मधुर और सुरीली आवाज , सोनाली की धीमी आवाज मी सुरीची पूर्ण गाने , और इन सब मे श्रीवास्तव जी के साथ साथ माथुर माथुर साहब की भी भागेदारी । बहुत अच्छा लग रहा था । माथुर साहब बहुत सहज और फुर्तीले हो गए थे । शायद पुणे मी आई । टी । कम्पनी के बच्चो के बीच अपने समय के गुजर जाने का एहसास होता होगा । यहाम पुरानी बातो के दौर के बीच अपने होने का भान हो रहा होगा । उन्हें ही क्यो हम लोग भी कैसे मगन थे । श्रीवास्तव जी और सुनीता जी का बचपन भी मेरी तरह कानपुर मे बीता था । बालिका विद्यालय ए बी विद्यालय और जुहारी देवी , मेस्टन रोड की मूम्ग्फली और भी ना जाने कितने पुराने स्थान , रीगल टाकीज की इग्लिश फिल्म्स । खूब सैर हुई अतीत के गलियारों की ।
और फिर लखनऊ आ गया .माथुर साहब का भतीजा उन्हें लेने आ गया था । अपने सामान के साथ ट्राली पर श्रीवास्तव जी ने मेरा सूटकेस रखवाया । उनके बहनोई ने मेरे हाथ से एयरबैग ले लिया और बाहर आ कर पूरी पार्किग मे नंबर देख कर हमे लेने वाली गाड़ी देखी । सच तो यह है कि उन लोगो के बिना हम सच अकेले बहुत परेशान हो जाते । सूटकेस और बैग ले कर अकेले इतनी दूर का चक्कर लगाना संभव नही था । गाड़ी काफी लेट हो गयी थी इसलिए अंधेरा भी हो गया था । हमे गंतव्य की और सुरक्छित रवाना करने के बाद ही वे दोनो अपनी गाड़ी मे बैठे । जब कि उनका वाहन तो शुरू से ही वहा मौजूद था । वे लोग अपने घर के फंकशन के लिए लेट भी हो रहे थे लेकिन वह परिवार हमे अकेला छोड़ कर नही गया
यूं समाप्त हुआ हमारा यह सफर । काश जिन्दगी भी इस सफर की तरह हो पाती । जितनी देर साथ रहो ,मिल जुल कर एक दूसरे का ख्याल अपने से ज्यादा रखते हुए रहो और फिर बिना किसी अपेक्छा के अपने अपने रास्ते .अपेक्छाये जहा होती है वहा शिकायतों का होना लाजमी है । और फिर जिन्दगी इस सफर जितनी छोटी थोड़ी होती है । शायद इसीलिए सारे आध्यात्मिक गुरु कहते है कि जिस पल मे हो बस उसी पल तक अपना ध्यान सीमित रखो ।पल मे जीने से तकलीफे ,तनाव कम होते है ।
अविश्वास और शंकाओं के इस दौर मे विश्वास बनाए रखने की वजह तो थमा ही गया यह सफर.
Sunday, December 9, 2007
Saturday, December 8, 2007
्सफ़र-१....
बहुत दिनों बाद अपने से बतियाने बैठे हैं । हां ब्लाग मे लिखने को हम अपने आप से बतियाना ही कहते हैं। ब्लाग ही क्यों जो मह्सूस किया या जिया उसे शब्दों मे ढालने के लिये अपने अन्दर की यात्रा तो करनी ही पड़्ती है। ये दस्तावेज बनाने का मेरा अपना कारण है । हमे लगता है कि अगर कभी जिन्दगी से शिकायत करने का मन करे तो ये सनद रहे कि उसने हमे क्या क्या दिया है । छोटी छोटी खुशियों ,खुश्नुमा पलों ,प्यार दुलार के भावो का खजाना हम सब्के पास होता है, ऐसा मेरा विस्वाश है । हां यह बाद अलग है कि अक्सर हम ऐसी सौगातों को लम्बे समय तक याद नही रख पाते । इसीलिये हम इन्हे जब ,जहां, जैसे जिया के तर्ज पर सहेज कर रखते चलते हैं।
अब इसी बार की पुणे से लखनऊ की यात्रा की बात ले लीजिये । चलिये आपको ले चलने के बहाने हम भी एक बार फिर चलते है उस सफ़र पर । सफ़र कैसा रहा इसका फ़ैसला आप पर छोड़ते हैं।
गाड़ी का छूटने का समय तो तकरीबन सवा चार बजे शाम को होता है पर हम लोग जब साढे तीन पर स्टेशन पहुचे तो गाड़ी प्लेट्फ़ार्म पर लगी थी । गाड़ी शुरु ही इसी स्टेशन से होती है। हम जब अपनी सीट पर पहुचे तो देखा एक नाजुक सी कन्या पहले ही वहां बैठी थी। आपस मे बात्चीत हुई और हम दोनो ने राहत की सांस ली की चलो सफ़र का एक साथी तो ठीक ठाक मिला । सामान व्यव्स्थित कर हम लोग बैठ लिये ।
थोड़ी देर बाद एक छोटा सूट्केस हाथ मे लिये और कांधे पर एक बैग लादे एक सज्जन प्रविश्ट हुए। उम्र यही कोई बासठ तिर्सठ साल रही होगी मगर बेजार कुछ अधिक ही नजर आ रहे थे । सांस धौकनी की तरह चल रही थी । आते ही सूट्केस और बैग खिस्काया बर्थ के नीचे और सीट पर बैठते ही बिना किसी भूमिका के बोले ’देखा इतना जरा सा चलने मे ही सांस फ़ूल गयी । हम लोगो ने पूरी सहान्भूति से सर सह्मति मे हिलाये । अभी हमारे सिर हिलने बंद भी नही हुए थे कि उधर से एक वाक्य उछ्ला ’जब मेरी उम्र के होगे ,तब पता चलेगा ।’ हमारी समझ मे नही आया कि हमने भला कब उनकी उम्र के प्रति बेअन्दाजी की । पता नही उनकी शिकायत अपनी उम्र से थी या हमारी । खैर अभी हम इस धक्के से सभले भी नही थे कि एक सूचना और आयी ’एक बार हार्ट अटैक पड़ चुका है । ’यह शायद हमे चेतावनी थी कि हम उनसे कोई बह्स मुबाहसा ना करे रास्ते भर वर्ना लेने के देने पड़ सकते है । हमने इस सूचना को भी शालीनता से आत्म्सात करते हुए उन्हे आराम से बैठने को कहा । पानी की बोतल ले कर वे थोड़े व्यव्स्थित हो कर बैठे ही थे कि काफ़ी साजो सामान और शोरो गुल के साथ एक युवा दम्पति अपनी सात आठ साल की बिटिया को ले दाखिल हुआ । माथुर साहब पुनः व्यग्र ।
’कौन सा सीट नम्बर है आपका ? अरे इधर कहां सारा सामान रख रहे है? वगैरह वगैरह....
उनकी सारी चिनताओं को अपने हाथ के झटके से एक किनारे करते हुए नव्युवक ने कहा,’हां हां सब ठीक है । ना हमे सीट बांध कर ले जानी है ना आपको ।’
भला माथुर साहब इस अवग्या को चुप्चाप कैसे बर्दास्त करते । उन्होने तुरुप का पत्ता फ़ेका’उस बैग मे मेरी दवाये है । एक बार हार्ट अटैक हो चुका है ।’
इस बार युवक ने थोड़ा रुक कर उन्हे देखा और सारा गुस्सा जींस क्लैड अपनी स्मार्ट सी पत्नी पर उतार दिया ।
’अरे उधर रखो ना सामान ।’
पैसेज के उस तरफ़ की सीट वाले लड़कों से कुछ बात्चीत कर वे लोग उधर खिसक लिये ।
अभी गाड़ी छूटने ने मे काफ़ी समय था पर हम ठीक ठाक रूप से जम गये थे इस्लिये हमने अपने पति से कहा कि अब वे घर को चले । उन्हे भी लगा कि सारे सह्यात्री तो लग्भग आ ही गये हैं इस्लिये चला जा सकता है ।
हम लोगो ने एक दूसरे की ओर हाथ बढाया और विदा के हैंड्शेक के बाद वे नीचे उतर गये ।
अभी वे दो कदम भी नही चले होगे कि माथुर साहब ने फ़र्माया ’ये आपके पति तो थे नही ।’
हम हत्प्रभ। भला ऐसा क्या हुआ कि माथुर साहब हमारे अच्छॆभले बाइस साला पुराने रिश्ते के अस्तितव को बिल्कुल सिरे से नकार रहे है और वह भी पूरे आत्मविश्वास के साथ ।
हमने भी थोड़ा तुर्शी मे आ कर कहा ’क्यों आपको ऐसा कैसे लगा ?
हंमारी नाराजगी से बिल्कुल भी प्रभावित ना होते हुए वे बोले ,’अपने यहां पति पत्नी हाथ तो मिलाते नही हैं ।’
हमने थोड़ा व्यंग करते हुए कहा ’हां ,जिन्हे पन्जा लड़ाने से फ़ुर्सत नही मिलती ,वे भला हाथ कैसे मिलायेगे ।’
लेकिन मेरे व्यंग को बेकार करते हुए माथुर साहब पहली बार हसे और बोले ’मैडम मजाक अचछा कर लेती हैं।’
हमारी दोनो महिला सह्यात्री मुस्करा रही थी । उस बच्ची की मम्मी ने तो कहा ,अरे क्या करे अंकल गाड़ी है ना इसीलिये आंटी ने हाथ ही मिलाया ।
वातावरण सहज और आत्मीय हो चला था कि श्रीवासतव जी अपने बेटॆ बहू के साथ पधारे और कूपे की आठो सीटे भर गयीं । अभी तो गाड़ी प्लेट्फ़ार्म से खिसकी भी नही है ।
बाकी की यात्रा कल।
अब इसी बार की पुणे से लखनऊ की यात्रा की बात ले लीजिये । चलिये आपको ले चलने के बहाने हम भी एक बार फिर चलते है उस सफ़र पर । सफ़र कैसा रहा इसका फ़ैसला आप पर छोड़ते हैं।
गाड़ी का छूटने का समय तो तकरीबन सवा चार बजे शाम को होता है पर हम लोग जब साढे तीन पर स्टेशन पहुचे तो गाड़ी प्लेट्फ़ार्म पर लगी थी । गाड़ी शुरु ही इसी स्टेशन से होती है। हम जब अपनी सीट पर पहुचे तो देखा एक नाजुक सी कन्या पहले ही वहां बैठी थी। आपस मे बात्चीत हुई और हम दोनो ने राहत की सांस ली की चलो सफ़र का एक साथी तो ठीक ठाक मिला । सामान व्यव्स्थित कर हम लोग बैठ लिये ।
थोड़ी देर बाद एक छोटा सूट्केस हाथ मे लिये और कांधे पर एक बैग लादे एक सज्जन प्रविश्ट हुए। उम्र यही कोई बासठ तिर्सठ साल रही होगी मगर बेजार कुछ अधिक ही नजर आ रहे थे । सांस धौकनी की तरह चल रही थी । आते ही सूट्केस और बैग खिस्काया बर्थ के नीचे और सीट पर बैठते ही बिना किसी भूमिका के बोले ’देखा इतना जरा सा चलने मे ही सांस फ़ूल गयी । हम लोगो ने पूरी सहान्भूति से सर सह्मति मे हिलाये । अभी हमारे सिर हिलने बंद भी नही हुए थे कि उधर से एक वाक्य उछ्ला ’जब मेरी उम्र के होगे ,तब पता चलेगा ।’ हमारी समझ मे नही आया कि हमने भला कब उनकी उम्र के प्रति बेअन्दाजी की । पता नही उनकी शिकायत अपनी उम्र से थी या हमारी । खैर अभी हम इस धक्के से सभले भी नही थे कि एक सूचना और आयी ’एक बार हार्ट अटैक पड़ चुका है । ’यह शायद हमे चेतावनी थी कि हम उनसे कोई बह्स मुबाहसा ना करे रास्ते भर वर्ना लेने के देने पड़ सकते है । हमने इस सूचना को भी शालीनता से आत्म्सात करते हुए उन्हे आराम से बैठने को कहा । पानी की बोतल ले कर वे थोड़े व्यव्स्थित हो कर बैठे ही थे कि काफ़ी साजो सामान और शोरो गुल के साथ एक युवा दम्पति अपनी सात आठ साल की बिटिया को ले दाखिल हुआ । माथुर साहब पुनः व्यग्र ।
’कौन सा सीट नम्बर है आपका ? अरे इधर कहां सारा सामान रख रहे है? वगैरह वगैरह....
उनकी सारी चिनताओं को अपने हाथ के झटके से एक किनारे करते हुए नव्युवक ने कहा,’हां हां सब ठीक है । ना हमे सीट बांध कर ले जानी है ना आपको ।’
भला माथुर साहब इस अवग्या को चुप्चाप कैसे बर्दास्त करते । उन्होने तुरुप का पत्ता फ़ेका’उस बैग मे मेरी दवाये है । एक बार हार्ट अटैक हो चुका है ।’
इस बार युवक ने थोड़ा रुक कर उन्हे देखा और सारा गुस्सा जींस क्लैड अपनी स्मार्ट सी पत्नी पर उतार दिया ।
’अरे उधर रखो ना सामान ।’
पैसेज के उस तरफ़ की सीट वाले लड़कों से कुछ बात्चीत कर वे लोग उधर खिसक लिये ।
अभी गाड़ी छूटने ने मे काफ़ी समय था पर हम ठीक ठाक रूप से जम गये थे इस्लिये हमने अपने पति से कहा कि अब वे घर को चले । उन्हे भी लगा कि सारे सह्यात्री तो लग्भग आ ही गये हैं इस्लिये चला जा सकता है ।
हम लोगो ने एक दूसरे की ओर हाथ बढाया और विदा के हैंड्शेक के बाद वे नीचे उतर गये ।
अभी वे दो कदम भी नही चले होगे कि माथुर साहब ने फ़र्माया ’ये आपके पति तो थे नही ।’
हम हत्प्रभ। भला ऐसा क्या हुआ कि माथुर साहब हमारे अच्छॆभले बाइस साला पुराने रिश्ते के अस्तितव को बिल्कुल सिरे से नकार रहे है और वह भी पूरे आत्मविश्वास के साथ ।
हमने भी थोड़ा तुर्शी मे आ कर कहा ’क्यों आपको ऐसा कैसे लगा ?
हंमारी नाराजगी से बिल्कुल भी प्रभावित ना होते हुए वे बोले ,’अपने यहां पति पत्नी हाथ तो मिलाते नही हैं ।’
हमने थोड़ा व्यंग करते हुए कहा ’हां ,जिन्हे पन्जा लड़ाने से फ़ुर्सत नही मिलती ,वे भला हाथ कैसे मिलायेगे ।’
लेकिन मेरे व्यंग को बेकार करते हुए माथुर साहब पहली बार हसे और बोले ’मैडम मजाक अचछा कर लेती हैं।’
हमारी दोनो महिला सह्यात्री मुस्करा रही थी । उस बच्ची की मम्मी ने तो कहा ,अरे क्या करे अंकल गाड़ी है ना इसीलिये आंटी ने हाथ ही मिलाया ।
वातावरण सहज और आत्मीय हो चला था कि श्रीवासतव जी अपने बेटॆ बहू के साथ पधारे और कूपे की आठो सीटे भर गयीं । अभी तो गाड़ी प्लेट्फ़ार्म से खिसकी भी नही है ।
बाकी की यात्रा कल।
Thursday, November 15, 2007
यादें...उस आंगन की ...उन लोगों ेकी
आज कल लखनऊ जाने की तैयारी चल रही है । बिट्टू यानी गुड़िया के बेटे की शादी में। हम सब पुष्कर के घर मे होगे लेकिन पुष्कर के बिना । इससे पहले हम सब कान्पुर वाले, रंजना की शादी मे इकठ्ठा हुये थे । कितने साल हो गये ....शायद २४ या २५ साल । तब से अब तक बदलना तो बहुत कुछ था ही । पूरी एक पीढी का फर्क है । कुछ लोग जो तब थे अब नही हैं, कुछ जो तब बड़े थे अब बूढे है ,जो बच्चे थे और कुछ जो तब थे ही नही अब बड़े हो गये है। लेकिन इस सब के बीच कुछ है जो होने चाहिये थे और नही हैं। मुझे लगता है कही न कही यह पुष्कर की आत्मा ,उस्के मन का ही जोर है कि बिट्टू की शादी के कार्यक्रम उसके घर से होगे । सम्बंध बनाने ,उन्हे निभाने के प्रति वह ताउम्र बेहद ईमानदार रहा । जब सब लोग किसी अवसर पर एक साथ होते थे तब उसका उत्साह देखते ही बनता था । उसकी खुशी इतनी जेन्युइन होती थी कि आप उसमे डूबे बिना रहे ही नही सकते थे । कुछ प्रबंध करना हो, खाना खिलाना हो या फिर सबके बीच बैठ हंसना खिल्खिलाना ,हर जगह जैसे एक साथ होताथा वह।
और एक बार फिर हमे बेइन्तहा याद आ रहा है अशोक मार्ग वाला आंगन।कहते हैं ना कि रिश्ता केवल आदमी का आदमी से नही होता है वरन आदमी का जगह से भी होता है। मेरा भी उस आंगन ,दालानो और छत से कुछ ऐसा ही रिश्ता है। न हम उस घर मे न तो पैदा हुए ,न पले बढे । अच्छा ही है कि किसी मिल्कियत ,किसी दावेदारी वाला कोई रिश्ता नही है मेरा ।शायद इसीलिये आज भी उस सड़क से गुजरते हुए हमे वह पुलिया दिखायी देती है जहां छुट्कैया से मेरी पहली मुलाकात हुई थी । पुलिया के बाद का वह कच्चा पतला रास्ता जिस पर बेसब्री से टहलती अम्मा मेरा इन्त्जार करती थी ,जब हम बैंक की ट्रेनिग के दौरान लखनऊ आ कर ठहरते थे । वह बड़ा सा खुला खुला आंगन जिसके एक कोने मे झकाझक सफेद इकलाई की धोती मे भाभी उस उमर मे भी कुछ नकुछ करती होती । हां यूं देखने मे ऐसा लगता कि वे मुंह झुकाये अपने काम मे तन्मय हैं पर घर मे बच्चे से ले कर बड़े तक मन मे भी क्या चल रहा है इसकी उन्हे पूरी खबर रहती थी । वो भी बिना किसी के बताये...जैसे बर्गद का पेड़ जितना पुराना होता जाता है ऊपर ही नही धरती के अन्दर भी उसकी पैंठ उतनी ही गह्राती जाती है।
हमको रसोई घर के बगल का वह छोटा कमरा भी याद है जहां बैठ कर दादा से हमारी बातें होती थी ,अग्येय के ’नदी के द्वीप’से ले कर बच्चन की कविताओं तक। उसके बाद वाला वह लम्बा सा कमरा जिसके दर्वाजे गली पार नन्ही मौसी के आंगन की ओर खुलते थे। उस कमरे मे लेट कर हमने हिन्दी साहित्य की न जाने कितनी अमूल्य क्रितियों को पढा था ।
और नन्ही मौसी के आंगन मे हर्सिंगार का पेड़ .....आज भी जब भी किसी घर मे हम हर्सिंगार देखते है मेरी चेतना मे वह पेड़ छा जाता है। और भी बहुत कुछहै...सामने बाउंड्री मे लगा नीबू का पेड़ , आंगन का कुंआ ,दालान मे खुलते ऊपर वाले कमरे के दर्वाजे ,छत और सब लोग भी । सब याद है हमे. सारे लोग भी । फिर भी लखनऊ मे होते हुए भी हम गये नही न उन लोगो के पास ,न उस जगह के पास । विवेक कहता है जाना चाहिये था पर मन शायद स्वारथी हो गया था । वह उन यादों पर कोई और रंग नही चढाना चाहता था ।
हम आखिरी बार रंजना की शादी मे उस आंगन मे थे । उन दिनो रेखा वाली उम्राव जान के गानो की धूम थी और पुष्कर हर आने वाले से कहता था....इस अन्जुमन मे आपको आना है बार बार, दीवारो दर को गौर से पह्चान लीजिये...’.....पह्चाना क्या हमने तो अपना हिस्सा बना कर रख लिया पर देखो न पुष्कर न वो दीवारो दर रहा न..........
और एक बार फिर हमे बेइन्तहा याद आ रहा है अशोक मार्ग वाला आंगन।कहते हैं ना कि रिश्ता केवल आदमी का आदमी से नही होता है वरन आदमी का जगह से भी होता है। मेरा भी उस आंगन ,दालानो और छत से कुछ ऐसा ही रिश्ता है। न हम उस घर मे न तो पैदा हुए ,न पले बढे । अच्छा ही है कि किसी मिल्कियत ,किसी दावेदारी वाला कोई रिश्ता नही है मेरा ।शायद इसीलिये आज भी उस सड़क से गुजरते हुए हमे वह पुलिया दिखायी देती है जहां छुट्कैया से मेरी पहली मुलाकात हुई थी । पुलिया के बाद का वह कच्चा पतला रास्ता जिस पर बेसब्री से टहलती अम्मा मेरा इन्त्जार करती थी ,जब हम बैंक की ट्रेनिग के दौरान लखनऊ आ कर ठहरते थे । वह बड़ा सा खुला खुला आंगन जिसके एक कोने मे झकाझक सफेद इकलाई की धोती मे भाभी उस उमर मे भी कुछ नकुछ करती होती । हां यूं देखने मे ऐसा लगता कि वे मुंह झुकाये अपने काम मे तन्मय हैं पर घर मे बच्चे से ले कर बड़े तक मन मे भी क्या चल रहा है इसकी उन्हे पूरी खबर रहती थी । वो भी बिना किसी के बताये...जैसे बर्गद का पेड़ जितना पुराना होता जाता है ऊपर ही नही धरती के अन्दर भी उसकी पैंठ उतनी ही गह्राती जाती है।
हमको रसोई घर के बगल का वह छोटा कमरा भी याद है जहां बैठ कर दादा से हमारी बातें होती थी ,अग्येय के ’नदी के द्वीप’से ले कर बच्चन की कविताओं तक। उसके बाद वाला वह लम्बा सा कमरा जिसके दर्वाजे गली पार नन्ही मौसी के आंगन की ओर खुलते थे। उस कमरे मे लेट कर हमने हिन्दी साहित्य की न जाने कितनी अमूल्य क्रितियों को पढा था ।
और नन्ही मौसी के आंगन मे हर्सिंगार का पेड़ .....आज भी जब भी किसी घर मे हम हर्सिंगार देखते है मेरी चेतना मे वह पेड़ छा जाता है। और भी बहुत कुछहै...सामने बाउंड्री मे लगा नीबू का पेड़ , आंगन का कुंआ ,दालान मे खुलते ऊपर वाले कमरे के दर्वाजे ,छत और सब लोग भी । सब याद है हमे. सारे लोग भी । फिर भी लखनऊ मे होते हुए भी हम गये नही न उन लोगो के पास ,न उस जगह के पास । विवेक कहता है जाना चाहिये था पर मन शायद स्वारथी हो गया था । वह उन यादों पर कोई और रंग नही चढाना चाहता था ।
हम आखिरी बार रंजना की शादी मे उस आंगन मे थे । उन दिनो रेखा वाली उम्राव जान के गानो की धूम थी और पुष्कर हर आने वाले से कहता था....इस अन्जुमन मे आपको आना है बार बार, दीवारो दर को गौर से पह्चान लीजिये...’.....पह्चाना क्या हमने तो अपना हिस्सा बना कर रख लिया पर देखो न पुष्कर न वो दीवारो दर रहा न..........
Tuesday, November 13, 2007
याद आती है गुलाबो-सिताबो...
ंअरे, देखो फिर लड़ै लागी ,गुलाबो सिताबो। आओ हो देखो बच्चो फिर शुरु हो गयीं दोनो ।’ ये हांक सुनायी पड़्ती और हम लोग दर्वाजे की तरफ भागते । हाथ में दो कठ्पुतलियां और गले से निकलते गीतों के स्वर। हर तीज त्योहार या यूं भी महीने डेढ महीने के अंत्राल मे कठपुतली वाले दरवाजे पर होते और हम लोग बार बार देखे उस खेल को बार बार सुने उन गीतों को हर बार नये रस से सुनते ,नये उछाह से देखते।
गले मे लटकते रुपहले सुनहले हार ,चटाकीले रंगो की गोटा किनारी लगी चुनरी ,घेर दार लहगा , हाथ भर भर चुड़ियां नाक मे झूलती नथुनी, मांग मे सजा बेंदा , गरज यह कि सोलह सिंगार से लैस ठसके मे रहती थी गुलाबो ।े अरे भाई बड़े बाप की बेटी ठहरी गुमान तो होना ही था । और इधर सिताबो गरीब घर की बेटी पर रूप ऐसा कि पूनो का चांद भी पानी मांगे । इसी रूप पर तो ऐसे लुटे गुलाबो के पति देवता कि सिताबो आ बैठी गुलाबो की छाती पर सौत बन । अब बड़ी ड्योढी की ठसक अलग बात है पर पति तो ठहरा पर्मेश्वर उससे तो जीत ना पाये गुलाबो सो ठनी रहे सिताबो से । सिताबो भी चुप क्यों रहे भला । भाग तो आयी ना वो बाकायदा गाठी जोड़ के आयी है देहरी पर और फिर गुलाबो के पास पैसे की गर्मी तो सिताबो के पास रूप की आंच । जब कोई किसी से ना दबे तो होये रोज खटर पटर और गुलाबो सिताबो का झगड़ा बन गया सबका मनोरंजन।
कुछ ऐसी ही कहानी गीतो मे गायी जाती थी । हमे पूरा तो याद नही है पर कुछ लाइन ऐसी थी
गुलाबो खूब लड़े है
सिताबो खूब लड़े है......
साग लायी पात लायी और लायी चौरैया
दूनौ जने लड़ैं लागीं ,पात लै गा कौआ
गीत के साथ साथ हाथो मे कठ्पुतलियां थिरकती जाती थी । ऐक्शन सारे कठपुतलियों से करवाये जाते थे और भावों की अदायगी होती थी गाने के उतार चढाव से । हम ऐसे डूबे रहते जैसे सब आंखो के सामने सच्मुच घट रहा हो ।उत्तर प्रदेश मे उस समय गुलाबो सिताबो से सब परिचित थे । अब हमे ना पूरा गीत याद है ना कथाक्रम पर उससे मिला आनंद आज भी मन मे घुलता है ।
हमे ऐसा लगता है कि कोई कोई गुलाबो सिताबो की लड़ाई को सास बहु की लड़ाई के रूप मे भी सुनाता था । लेकिन असली मजा था उनके एक दूसरे पर झपटने का और नोक झोक का । हां उनके कपड़े और गहनों का आकर्ष्ण भी कुछ कम नही होता था ।
उस समय इस तरह के खेल तमाशे घर तक आते थे । बंदर का नाच , भालू का नाच । यही मनोरंजन के साधन थे । आज तो जानवारों से इस तरह के काम करवाने पर तरह तरह के आंदोलन छॆडे जाने लगे हैं।वैसे तो अब पहले की तरह ये दिखते भी नही है और अगर कभी कोई दिख भी जाये तो बहुत दयनीय स्थिति मे होता है । लोगो के पास मनोरंजन के नित नये साधन हो जाते है । इतनी तेज दौड़ मे ये बहुत पीछे रह गये है । जहां तक हम याद कर पाते है पहले ना इन जानवरो को खाने की कमी रहती थी ना इस तरह के खेल तमाशा दिखाने वालों के पास । शहरों ंमे रहने पर भी लोगो का गांव घर से ताल्लुक बनाहुआ था शायद इसीलिये अनाज की कमी नही होती थी । लोग खुद भी खा पाते थे और दर्वाजे आये लोगो को भी दे पाते थे ।
ये तमाशे भी लोक कला के अंग थे । बंदर बंदरिया के नाच मे बंदरिया का रूठ कर मायेके चले जाना , बंदर का उसे मनाने जाने के लिये तैयार ना होना, और फिर जाने के लिये राजी होने पर सर पर टोपी पहन ,आईने मे चेहरा देखना.....किसी नाटक के द्रि श्य सा ही होता था । हां पात्र इन्सान ना हो कर जान्वर होते थे बस सूत्र्धार का काम आदमी करता था ।
अब बच्चे जू मे देखने जाते है जानवरों को तब उनमे से कुछ गली मोहल्ले तक आते थे । वे हमारे लिये केवल जान्वर नही रह जाते थे किस्से कहानियों के पात्रो की तरह हमारे अपने हो जाते थे ।
समय के साथ बहुत कुछ बदलता है । कुछ का स्वरूप बद्ल जाता है ,कुछ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है पर कहते है कि समय चक्र है और चक्र् तो गोल गोल घूमता है ।यानि जहां से एक बार गुजरता है घूम कर फिर वहां आता जरूर है । आज कठ्पुतलियो का नाच , हाथी पर च्ढ्ना...बड़े बड़े होटलो ,पार्को,पांच सितारा शादियों का हिस्सा बन रहे है। लोक कलाओं को बढावा देने ,जीवित रखने के तौर तरीको की चर्चाओं से बाजार गर्म है । क्या पता कल को ये गुलाबो सिताबो , ये खेल तमाशे फिर हमारे घर आंगन मे हों .
गले मे लटकते रुपहले सुनहले हार ,चटाकीले रंगो की गोटा किनारी लगी चुनरी ,घेर दार लहगा , हाथ भर भर चुड़ियां नाक मे झूलती नथुनी, मांग मे सजा बेंदा , गरज यह कि सोलह सिंगार से लैस ठसके मे रहती थी गुलाबो ।े अरे भाई बड़े बाप की बेटी ठहरी गुमान तो होना ही था । और इधर सिताबो गरीब घर की बेटी पर रूप ऐसा कि पूनो का चांद भी पानी मांगे । इसी रूप पर तो ऐसे लुटे गुलाबो के पति देवता कि सिताबो आ बैठी गुलाबो की छाती पर सौत बन । अब बड़ी ड्योढी की ठसक अलग बात है पर पति तो ठहरा पर्मेश्वर उससे तो जीत ना पाये गुलाबो सो ठनी रहे सिताबो से । सिताबो भी चुप क्यों रहे भला । भाग तो आयी ना वो बाकायदा गाठी जोड़ के आयी है देहरी पर और फिर गुलाबो के पास पैसे की गर्मी तो सिताबो के पास रूप की आंच । जब कोई किसी से ना दबे तो होये रोज खटर पटर और गुलाबो सिताबो का झगड़ा बन गया सबका मनोरंजन।
कुछ ऐसी ही कहानी गीतो मे गायी जाती थी । हमे पूरा तो याद नही है पर कुछ लाइन ऐसी थी
गुलाबो खूब लड़े है
सिताबो खूब लड़े है......
साग लायी पात लायी और लायी चौरैया
दूनौ जने लड़ैं लागीं ,पात लै गा कौआ
गीत के साथ साथ हाथो मे कठ्पुतलियां थिरकती जाती थी । ऐक्शन सारे कठपुतलियों से करवाये जाते थे और भावों की अदायगी होती थी गाने के उतार चढाव से । हम ऐसे डूबे रहते जैसे सब आंखो के सामने सच्मुच घट रहा हो ।उत्तर प्रदेश मे उस समय गुलाबो सिताबो से सब परिचित थे । अब हमे ना पूरा गीत याद है ना कथाक्रम पर उससे मिला आनंद आज भी मन मे घुलता है ।
हमे ऐसा लगता है कि कोई कोई गुलाबो सिताबो की लड़ाई को सास बहु की लड़ाई के रूप मे भी सुनाता था । लेकिन असली मजा था उनके एक दूसरे पर झपटने का और नोक झोक का । हां उनके कपड़े और गहनों का आकर्ष्ण भी कुछ कम नही होता था ।
उस समय इस तरह के खेल तमाशे घर तक आते थे । बंदर का नाच , भालू का नाच । यही मनोरंजन के साधन थे । आज तो जानवारों से इस तरह के काम करवाने पर तरह तरह के आंदोलन छॆडे जाने लगे हैं।वैसे तो अब पहले की तरह ये दिखते भी नही है और अगर कभी कोई दिख भी जाये तो बहुत दयनीय स्थिति मे होता है । लोगो के पास मनोरंजन के नित नये साधन हो जाते है । इतनी तेज दौड़ मे ये बहुत पीछे रह गये है । जहां तक हम याद कर पाते है पहले ना इन जानवरो को खाने की कमी रहती थी ना इस तरह के खेल तमाशा दिखाने वालों के पास । शहरों ंमे रहने पर भी लोगो का गांव घर से ताल्लुक बनाहुआ था शायद इसीलिये अनाज की कमी नही होती थी । लोग खुद भी खा पाते थे और दर्वाजे आये लोगो को भी दे पाते थे ।
ये तमाशे भी लोक कला के अंग थे । बंदर बंदरिया के नाच मे बंदरिया का रूठ कर मायेके चले जाना , बंदर का उसे मनाने जाने के लिये तैयार ना होना, और फिर जाने के लिये राजी होने पर सर पर टोपी पहन ,आईने मे चेहरा देखना.....किसी नाटक के द्रि श्य सा ही होता था । हां पात्र इन्सान ना हो कर जान्वर होते थे बस सूत्र्धार का काम आदमी करता था ।
अब बच्चे जू मे देखने जाते है जानवरों को तब उनमे से कुछ गली मोहल्ले तक आते थे । वे हमारे लिये केवल जान्वर नही रह जाते थे किस्से कहानियों के पात्रो की तरह हमारे अपने हो जाते थे ।
समय के साथ बहुत कुछ बदलता है । कुछ का स्वरूप बद्ल जाता है ,कुछ का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है पर कहते है कि समय चक्र है और चक्र् तो गोल गोल घूमता है ।यानि जहां से एक बार गुजरता है घूम कर फिर वहां आता जरूर है । आज कठ्पुतलियो का नाच , हाथी पर च्ढ्ना...बड़े बड़े होटलो ,पार्को,पांच सितारा शादियों का हिस्सा बन रहे है। लोक कलाओं को बढावा देने ,जीवित रखने के तौर तरीको की चर्चाओं से बाजार गर्म है । क्या पता कल को ये गुलाबो सिताबो , ये खेल तमाशे फिर हमारे घर आंगन मे हों .
Thursday, November 8, 2007
दीवाली की शाम का वो खालीपन...
आज छोटी दीवाली की रात है । सोसायटी के कम्पाउंड मे चहल पहल खत्म हो गयी है । बच्चे पटाके छुड़ाने के बाद अपने अपने घर जा चुके हैं । एक एक कर घरों के अन्दर की बत्तियां बंद हो गयी हैं । बाहर लटकी झालरे एकाएक अकेली हो उठी हैं। किसी झालर के बल्ब जल बुझ रहे हैं,किसी के एक्टक देखे जा रहे है, कोई झालर लगातार लप्लपा रही है । गरज यह कि जिसे जो काम सौपा गया है वह उसे किये चला जा रहा है बिना रुके ।कभी कभी दूर छोड़े गये पटाके की ’भड़ाम ’सुनायी देती है ।सन्नाटा थरथरा कर फिर ठहर जाता है ।बल्की उस अवाज के बाद और गहरा हो जाता है । यूं चहल पहल एवं उत्सवी माहौल के इन दिनों मे तो मन उमगा उमगा होना चाहिये य फिर रात के इस प्रहर दिन भर के कार्यक्रमों के बाद ,सन्तुष्टि और अलस भाव से भरा । पर हम पर ये सन्नाटा ये अकेलापन क्यों हावी हो रहा है ।
सच तो यह है कि कल शाम पार्क की एक बेन्च पर किनारे की ओर अकेले बैठे अकंल और हवा मे कुछ देर को ठहरे उनके हाथ हमसे भुलाये नही भूल रहे हैं ।अकंल से हमारा कोई व्यक्तिगत सम्बंध नही है ,लेकिन हम उन्हे तक्रीबन पिछ्ले दो साल से जानते हैं। इस घर मे आने के बाद से अक्सर ही पीछे मन्दिर मे जाना होता है । ऐसा कई बार हुआ है कि अकंल और हम एक ही समय वहां पहुंचे हैं । अकंल तो हमे शयद ही पह्चानते हों। हमे क्या... हमे लगता है कि वे पार्क और मन्दिर मे नियम से उसी समय रोज मौजूद रहने वालों मे से भी शायद ही किसी को पह्चानते होगें ।वे पार्क कुछ देर लोगो के बीच होने की अपनी जरूरत पूरी करने आते है फिर वे लोग कोई भी हो उन्हे कोई फर्क नही पड़ता । लेकिन अकंल को एक बार पार्क मे देख लेने के बाद उन्हे भुलाना मुश्किल है ।
८५ या ८६ वर्ष के आस पास होगे अकंल ।उनके समूचे व्यक्तित्व पर आभिजात्य की छाप है । कपड़े लत्ते आज भी बेहद सलीके और नफासत से पहनते हैं । नही सायास नही ,जैसे पूरी जिन्दगी करते करते वह एक आदत सी बन जाय उस तरह ।वे अपनी गाड़ी मे ड्राइवर के साथ आते हैं । हाथ मे छड़ी रहती है पर ड्राइवर एक्दम सट्कर साथ साथ चलता है । उसकी जरूरत भी है क्यो कि ऊबड़ खाबड़ जमीन पर वे कभी भी लड़खड़ा सकते हैं । एक एक कदम जमा कर बेहद आहिस्ता आहिस्ता चलते है । विगत दो वर्षों मे ही कितना परिवर्तन आ गया है । पहले वे सीढीयां उतर कर नीचे मन्दिर तक आ जाते थे अब ऊपर से ही हाथ जोड़ कर पार्क की ओर मुड़ जाते हैं इतने दिनो मे कभी भी परिवार का कोई सदस्य या मित्र उन्के साथ नही दिखा । बस वे और उनका ड्राइवर ।
गाड़ी से उतरते ही वे मन्दिर के बाहर पेड़ों के चबूतरों पर बैठे वाड़ी गाव के बुजुर्गो से हाथ जोड़ कर नमस्कार करते है । नमस्कार करते समय उनके चेहरे पर मुस्कान जरूर होती है पर उस मुस्कान मे हमेशा एक बेचारगी का भाव रहता है ,जैसे कह रही हो मुझे मालूम है कि हम नाआये तो तुम्हे कोई फर्क नही पड़ेगा पर आप लोग यहां नही होगें तो हमे पड़ेगा । छोटी छोटी कोठरियोंमे पूरे परिवार के साथ रहने वाले उन अन्पढ बूढों के सामने वे जैसे अकिंचन हो उठते है । पार्क ,मन्दिर मे मिलने वाले हर छोटे बड़े को हाथ जोड़ कर नमस्कार करते है। हां पास के गावं के बच्चो को देख कर उन्के चेहरे पर अलग खुशी छा जाती है । हमे लगता है वे बड़ो के सामने अन्दर ही अन्दर कही संकुचित हो उठते है । शायद लगता हो कि ये लोग सोच रहे होगे कि मै अपनी इस अवस्था मे इन्से हाथ जोड़ कर नमस्कार कर रहा हूं । जब इतना बूढा और अकेला नही था तब इस तबके के लोगो से कहां इस तरह जुड़ने की कोशिश करता था ।बच्चो के सामने यह संकोच बिला जाता होगा तभी शायद खुशी इतनी सच्ची लगती है । अक्सर उन्की जेबे बच्चों के लिये टाफी,चाकलेटो से भरी रहती है । कभी कभार बच्चो को अपनी गाड़ी मे बिठा एक आध चक्कर भी लगवा देते है । लेकिन अपने सन्नाटे को ॆ भरने की हर कोशिश वे और अकेले क्यो लगते है ।
कल शाम उनके साथ पार्क के अन्दर उनका ड्राइवर नही आया था । एक महिला थी ऐसे ही नौकरानी जैसी । वह उन्हे पार्क मे ज्यादा दूर नही ले जा पायी । अंकल को भी उसके साथ चलने मे ज्यादा विश्वास नही हो पा रहा था । उसने एक बेन्च पर बैठाल दिया और खुद अपनी अन्य परिचितो के बीच चली गयी । ड्राइवर हमेशा अनंकल के साथ उसी बेन्च पर बैठता था । आज दूर पार्क के सिरे पर लम्बी बेन्च के एक किनारे पर बैठे अंकल बहुत अकेले से लग रहे थे । हम जहां थे वहां से उन्का बैक प्रोफिले दिख रहा था । एक तो इमली के ऊंचे ऊचे पेड़ों से जमीन पर उतरता अंधेरा ,चारो ओर छायी चुप ,उस पर दूर शांत बैठे अंकल कैसी तो उदासी तारी हो रही थी मन मे । तभी अंकल के पास से एक नव्युवक गुजरा । अंकल ने हाथ जोड़ नमस्का र किया उसने भी उत्तर दिया । अकंळ ने हाथ आगे बढाया ,उसने भी बढाया ।उन्होने अपनी दोनो हथेलियो के बीच उसकी हथेली थाम ’हैंड शेक’ किया । हाथ ऊपर नीचे होते रहे । कुछ पल ज्यादा ही । फिर शायद उस नव्युवक ने धीरे से अपना हाथ खीचा । छ्णांष को अंकल दोनो हाथ खाली हवा मे उठे रहे । दोनो हथेलियां एक दूसरे से थोड़े फासले पर । फिर उन्होने हाथ नीचे कर लिये । लेकिन उस चुटकी भर समय का वह फ्रेम मेरी आखो मेरे मन मे जड़ा रह गया ।
बोलने बतियने ही नही स्पर्श के सम्वाद के लिये भी तरस रहे है अंकल । किस किस स्तर पर अकेलापन झेल रहे है । साथ छॊड़ गयी पत्नी , बड़े हो गये बच्चे ,बिछुड़े मित्र ...कौन कौन याद आया होग उनको ।
कुछ ऐसा दर्द दे रहा है उनका अकेलापन कि सोच लिया है इस बार मिलने पर उनके पास बैठ बतियागे । देखे कुछ हो पाता है हमसे कि नही । उनकी नही अब तो यह हमारी जरूरत है ।
सच तो यह है कि कल शाम पार्क की एक बेन्च पर किनारे की ओर अकेले बैठे अकंल और हवा मे कुछ देर को ठहरे उनके हाथ हमसे भुलाये नही भूल रहे हैं ।अकंल से हमारा कोई व्यक्तिगत सम्बंध नही है ,लेकिन हम उन्हे तक्रीबन पिछ्ले दो साल से जानते हैं। इस घर मे आने के बाद से अक्सर ही पीछे मन्दिर मे जाना होता है । ऐसा कई बार हुआ है कि अकंल और हम एक ही समय वहां पहुंचे हैं । अकंल तो हमे शयद ही पह्चानते हों। हमे क्या... हमे लगता है कि वे पार्क और मन्दिर मे नियम से उसी समय रोज मौजूद रहने वालों मे से भी शायद ही किसी को पह्चानते होगें ।वे पार्क कुछ देर लोगो के बीच होने की अपनी जरूरत पूरी करने आते है फिर वे लोग कोई भी हो उन्हे कोई फर्क नही पड़ता । लेकिन अकंल को एक बार पार्क मे देख लेने के बाद उन्हे भुलाना मुश्किल है ।
८५ या ८६ वर्ष के आस पास होगे अकंल ।उनके समूचे व्यक्तित्व पर आभिजात्य की छाप है । कपड़े लत्ते आज भी बेहद सलीके और नफासत से पहनते हैं । नही सायास नही ,जैसे पूरी जिन्दगी करते करते वह एक आदत सी बन जाय उस तरह ।वे अपनी गाड़ी मे ड्राइवर के साथ आते हैं । हाथ मे छड़ी रहती है पर ड्राइवर एक्दम सट्कर साथ साथ चलता है । उसकी जरूरत भी है क्यो कि ऊबड़ खाबड़ जमीन पर वे कभी भी लड़खड़ा सकते हैं । एक एक कदम जमा कर बेहद आहिस्ता आहिस्ता चलते है । विगत दो वर्षों मे ही कितना परिवर्तन आ गया है । पहले वे सीढीयां उतर कर नीचे मन्दिर तक आ जाते थे अब ऊपर से ही हाथ जोड़ कर पार्क की ओर मुड़ जाते हैं इतने दिनो मे कभी भी परिवार का कोई सदस्य या मित्र उन्के साथ नही दिखा । बस वे और उनका ड्राइवर ।
गाड़ी से उतरते ही वे मन्दिर के बाहर पेड़ों के चबूतरों पर बैठे वाड़ी गाव के बुजुर्गो से हाथ जोड़ कर नमस्कार करते है । नमस्कार करते समय उनके चेहरे पर मुस्कान जरूर होती है पर उस मुस्कान मे हमेशा एक बेचारगी का भाव रहता है ,जैसे कह रही हो मुझे मालूम है कि हम नाआये तो तुम्हे कोई फर्क नही पड़ेगा पर आप लोग यहां नही होगें तो हमे पड़ेगा । छोटी छोटी कोठरियोंमे पूरे परिवार के साथ रहने वाले उन अन्पढ बूढों के सामने वे जैसे अकिंचन हो उठते है । पार्क ,मन्दिर मे मिलने वाले हर छोटे बड़े को हाथ जोड़ कर नमस्कार करते है। हां पास के गावं के बच्चो को देख कर उन्के चेहरे पर अलग खुशी छा जाती है । हमे लगता है वे बड़ो के सामने अन्दर ही अन्दर कही संकुचित हो उठते है । शायद लगता हो कि ये लोग सोच रहे होगे कि मै अपनी इस अवस्था मे इन्से हाथ जोड़ कर नमस्कार कर रहा हूं । जब इतना बूढा और अकेला नही था तब इस तबके के लोगो से कहां इस तरह जुड़ने की कोशिश करता था ।बच्चो के सामने यह संकोच बिला जाता होगा तभी शायद खुशी इतनी सच्ची लगती है । अक्सर उन्की जेबे बच्चों के लिये टाफी,चाकलेटो से भरी रहती है । कभी कभार बच्चो को अपनी गाड़ी मे बिठा एक आध चक्कर भी लगवा देते है । लेकिन अपने सन्नाटे को ॆ भरने की हर कोशिश वे और अकेले क्यो लगते है ।
कल शाम उनके साथ पार्क के अन्दर उनका ड्राइवर नही आया था । एक महिला थी ऐसे ही नौकरानी जैसी । वह उन्हे पार्क मे ज्यादा दूर नही ले जा पायी । अंकल को भी उसके साथ चलने मे ज्यादा विश्वास नही हो पा रहा था । उसने एक बेन्च पर बैठाल दिया और खुद अपनी अन्य परिचितो के बीच चली गयी । ड्राइवर हमेशा अनंकल के साथ उसी बेन्च पर बैठता था । आज दूर पार्क के सिरे पर लम्बी बेन्च के एक किनारे पर बैठे अंकल बहुत अकेले से लग रहे थे । हम जहां थे वहां से उन्का बैक प्रोफिले दिख रहा था । एक तो इमली के ऊंचे ऊचे पेड़ों से जमीन पर उतरता अंधेरा ,चारो ओर छायी चुप ,उस पर दूर शांत बैठे अंकल कैसी तो उदासी तारी हो रही थी मन मे । तभी अंकल के पास से एक नव्युवक गुजरा । अंकल ने हाथ जोड़ नमस्का र किया उसने भी उत्तर दिया । अकंळ ने हाथ आगे बढाया ,उसने भी बढाया ।उन्होने अपनी दोनो हथेलियो के बीच उसकी हथेली थाम ’हैंड शेक’ किया । हाथ ऊपर नीचे होते रहे । कुछ पल ज्यादा ही । फिर शायद उस नव्युवक ने धीरे से अपना हाथ खीचा । छ्णांष को अंकल दोनो हाथ खाली हवा मे उठे रहे । दोनो हथेलियां एक दूसरे से थोड़े फासले पर । फिर उन्होने हाथ नीचे कर लिये । लेकिन उस चुटकी भर समय का वह फ्रेम मेरी आखो मेरे मन मे जड़ा रह गया ।
बोलने बतियने ही नही स्पर्श के सम्वाद के लिये भी तरस रहे है अंकल । किस किस स्तर पर अकेलापन झेल रहे है । साथ छॊड़ गयी पत्नी , बड़े हो गये बच्चे ,बिछुड़े मित्र ...कौन कौन याद आया होग उनको ।
कुछ ऐसा दर्द दे रहा है उनका अकेलापन कि सोच लिया है इस बार मिलने पर उनके पास बैठ बतियागे । देखे कुछ हो पाता है हमसे कि नही । उनकी नही अब तो यह हमारी जरूरत है ।
Monday, November 5, 2007
कुछ बातें अक्का से...
अक्का ,तमिल मे बड़ी बहन को कहते हैं । मेरे लिये अक्का यानि मेरी ननद , यानि डा सुमति अय्यर । हिन्दी साहित्य के सुधि पाठकों के लिये आज से चौदह साल पहले यह नाम सुपरिचित नाम था । तमिल से हिन्दी मे अनुवाद के लिये शायद दिमाग मे सबसे पहले आने वाला नाम ।कविता ,कहानी , नाटक हर विधा मे अक्का का दखल था । अख्बार, पत्रिकायें , दूर्दर्शन ,सभायें, गोष्ठियाँ ,सब जगह अपनी उपस्थिति दर्ज करायी । और इतनी जल्दी थी हर जगह पहुंचने कि वहां भी चली गयी जहां कम से कम उस समय तक तो वह खुद भी जाने को तैयार नही थी ।
हां, आज से ठीक चौदह साल पहले ,५ नव्म्बर १९९३ को अक्का चली गयी । मेरा मानना है कि हर व्यक्ति अपने नज्दीकी लोगो मे अपना थोड़ा बहुत हिस्सा जरूर इन्वेस्ट करता है । उसके जाने के बाद बचे हुए लोगो मे वह हिस्सा ताउम्र के लिये यही रह जाता है लेकिन साथ ही वह अपने साथ उन सब लोगो का थोड़ा थोड़ा हिस्सा ले भी जाता है । जिन्दगी रुकती नही है पर कही कुछ खाली रहता है । जिग सा पजेल के खोये हुए टुकड़े की छूटी हुइ जगह की तरह ।
जानती हो ना अक्का ,तुम्हारे जाने को हम सब ने अलग अलग ढ्ग से बर्दाश्त किया लेकिन एक बात कामन थी हमने आपस मे तुम्हारे विषय मे अपने दुख , अपने दर्द की बात शायद ही कभी की हो । सच तो यह है कि हम सब तुम्हारा जाना झेल ही इसीलिये पाये कि तब जो सन्ग्याशून्यता छायी थी ,उसे हमने आज तक कुरेदा नही हैं हम एक साथ बैठ कर कभी नही रोये हैं । शायद हमे डर है कि मिल कर दुख बांटने से हम अपने अपने हिस्से की अक्का को खो देगे ।
तुम्हे तो पता ही होगा कि रोये तो हम उस दिन भी नही थे । रोयी अम्मा भी नही थी । एक बूंद आंसू नही टपका था उनकी आंख से । कैसे टपकता जो ज्वालमुखी उनके अन्दर धधक रहा था वह आंसू क्या रक्त तक सोख ले गया । और हम तो तुम्हारे पास बैठे तुमसे ढेरों शिकायते कर रहे थे । आज भी वे सारी शिकायते जिन्दा है ।
याद है ना तुमहे , कान्पुर मे तुम्हारे लाज्पत नगर वाले घर मे साथ बितायी वह रात ,जब हमने ढेर बाते की थी । े । ननद भाभी के सारे गिले शिकवे ,सारी गलतफह्मिया दूर की थी और हमारी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरु हुआ था । हम उस रात लख्नऊ से आ कर इसी लिये तो तुमहारे घर गये थे । पर तब क्या पता था कि ऊपर वाले ने यह नियत कर रखा है कि उस रात के बाद हमारी बाते हो ही नही पाये बस एकालाप ही हो । लेकिन वह रात मेरे अन्दर हमेशा धड़कती रहती है । कितनी बाते की थी हमने । तुम्हारी कहानी के कुछ पात्रो को जब हमने पह्चान लिया था तो तुम कैसे मुस्कायी थी । बोली थी अरे तुम तो उन लोगो से कभी मिली नही हो बस कभी कभार मेरी बातों मे जिक्र सुना है फिर कैसे जाना ?क्या इतना साफ है ? याद है क्या कहा था हमने हम तो तुम्हारी रचनाओ के पुराने पाठक हैं और ऐसे अक्सर हो जाता है कि अगर पाठक अपने लेखक को अच्छी तरह जानने लगे तो उसके दिमाग की उठापटक उसकी समझ मे आने लगती है । और हममे एक शर्त भी लगी थी कि देखे हम तुम्हारे अगले पात्र को पह्चान पाते है कि नही ।पर देखो शर्त हारने काऐसा भी डर क्या कि तुमने कलम ही तोड़ डाली ।
कितनी सारी बाते है जो तुमहे बतानी है । तुमसे कहनी है । तुमने अपने पहले कविता सकंलन की एक कविता मे लिखा है
.......कांच छिटक गया है, टूटॆगा ही.......
..................
यह नही जानती थी
कि बिखरे टुकड़ों में
एक बिम्ब अनेकों मे फैल जायेगा
तुम मेरे समस्त अन्तर्मन मे फैल जाओगे
न भुला पाने की हद तक ।
तुम भी जाने के बाद कितने बिम्बों मे कैद हो । कैक्टस के उन गमलों मे जो कभी तुम्हारे टेरस पर थे और अब मेरे घर मे ,मेरी अल्मारी मे टंगी हैंड्लूम की उन फिरोजी, नीली ,नारंगी चटक रंग की साड़ियों मे जो कभी तुम्हारी सांवली सलोनी काया पर इठलाती थी और जिन्हे हम अक्सर फिर फिर प्रेस कर अल्मारी मे टांग देते है , उन किताबो ंमे जो कभी तुम्हारे रैक मे सजी रहती थी और आज मेरे कमरे मे । जब भी किसी पुस्तक मेले मे किसी स्टाल मे तुम्हारी लिखी या अनूदित पुस्तक दिख जाती है तो हम देर तक वही खड़े रह जाते है ,तुम्हारे वहीं आस पास कहीं होने के एह्सास से भरे .
Friday, November 2, 2007
चबुतरे पर बैठ देखि ्गयि वो फ़िल्मे...
आज अखबार में खबर पढी कि अखिल भारतीय मराठी फ़िल्म संग्ठन ने एक निर्ण्य लिया है कि वे अब मराठी फ़िल्म्स महाराष्ट्र के गांवो मे होने वाले मेलों मे तम्बू टाकीजों में भी दिखाया करेगे । आव्श्यक कार्यवाही शुरु हो गयी है । उस्के बाद उनकी योजना राज्य के बड़े शहरों जैसे पुणे आदि मे भी तम्बू टाकीज शुरू करने की है ।उन्का मानना है कि इससे मराठी फ़िल्मों का प्रचार प्रसार तो होगा ही उनके लाभार्जन मे भी खासी व्रिधी होगी। जरूर होगी । बड़े बड़े होटलों में परम्परागत वेश्भूषा पहने वेटर,बैल्गाड़ी के पहिये , लाल्टेन ॥जब गांव वहां हिट हो रहा है तो तम्बू टाकीज भी हाथों हाथ लपका जायेगा । पर हम यह पोस्ट तम्बू टाकीज की अपेछित लोक्प्रियता या व्यवसायिक लाभ के मद्देनजर नही लिख रहे हैं । तम्बू टाकीज ने हमे फिर कुछ भूला बिसरा याद दिला दिया ।
कुछ ऐसे ही माहौल मे हम अपने बचपन में वेल्फेयर सेन्ट्र के मैदान मे फिल्म्स देखा करते थे । वहां तो सिर के ऊपर तम्बू भी नही होत था । ओपेन एयर थियेटर था । दो लोहे के खम्भे स्थायी रूप से गड़े थे । जिस दिन फ़िल्म दिखायी जाने वाली होती थी ,सफेद पर्दा टांग दिया जाता था । वही पास मे एक ऊंचा चबूतरा था। अमूमन तो यह नाट्को और राम्लीला के मन्च के रूप मे प्रयोग किया जाता था पर जिस दिन फिल्म दिखयी जाती थी यह महिलाओं और बच्चों के बैठने के लिये निर्धारित स्थान था । यूंही जमीन पर बिछी दरी पर बैठ कर फिल्म का आनन्द लिया जाता था । चबूतरे के नीचे जमीन पर बिछी दरी पर बाबा,पिताजी और चाचाजी लोग होते थे । भाई लोग तो अपनी अपनी पसन्द की सुविधानुसार सायिकिल स्टैन्ड पर खड़ी कर ,उस पर टिक लिया करते थे । वैसे भी मोहल्ले की सारी लड़्कियों के सामने जमीन पर बैठ्ते अच्छे दिखते क्या वो लोग । हां एक बात और उस दिन सभी भाई लोगो को अपनी अम्मा ,बड़ीऔर छॊटी बहनो पर बड़ा प्यार उमड़्ता था । कभी मूंग्फली , कभी पानी पूछने के लिये चबूतरे के चक्कर लगा करते थे ।
फिल्म जिस दिन दिखायी जानी होती थी दोपहर को वेल्फेयर सेन्टर के नोटिस बोर्ड पर चाक से सूचना लिख दी जाती थी और फिर एक से दूसरे तक सूचना पूरी कोलोनी मे फैल जाती थी । खाना पीना जल्दी निप्टाने की तैयारी होने लगती थी । लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता था कि सूच्ना समय से सब तक पहुंच नही पाती थी । एक बार ऐसा ही हम लोगो के साथ हुआ । हम शायद तीसरी या चौथी क्लास मे पढते होगे । हमे मैदान मे खेलते समय पता लगा कि आज फिल्म दिखायी जानी है और बस शुरू ही होने वाली है । हम गिरते पड़ते घर पहुंचे अपनी बड़ी बहनों को खबर देने ।हमारी दोनो बहने हमसे करीब नौ दस साल बड़ी हैं । पहले से तैयारी नही थी इस्लिये खाना निपटा नही था । गैस तो थी नही कि स्विच बंद किया और उठ लिये । अंगीठी अगर एक बार सुलग गयी तो खाने का काम तो निपटाना ही था । उन लोगो ने कहा तुम चल कर देखो हम लोग आते हैं । हम भाग लिये । पर्दा तन गया प्रोजेक्टर सेट हो गया । हम बार बार पीछे मुड़ कर देखे पर हमारी बहनो का कही अता पता नही । फिल्म शुरु हो गयी । अब मेरा धीरज छूट गया । परदा अपनी तरफ खींच रहा था और मन घर की ओर भाग रहा था । मेरी बहने देख नही पारही हैं यह सोच कर मेरा मन नही लग रहा था । हम एक बार फिर सर्पट घर की ओर दौड़े । उन्होने फिर भेजा वापस कि देखो बस काम खतम ,आ हीरहे है । हम वापस सेन्टर । कुछ देर और हम फिर बेचैन और फिर भागे घर की ओर । इस बार वो लोग घर के दर्वाजे पर ही मिल गयी। इस सब भागा दौड़ी मे तक्रीबन बीस मिनट निकल गये । पर हम बहुत खुश थे कि अब बाकी फिल्म हम साथ साथ देखेगे । लेकिन जब हम वहां पहुचे तो देखते है कि लोग उठने कि तैयारी मे हैं। उस दिन केवल न्युज्रील दिखायी जानी थी । मेरे दुख की कोई सीमा ना थी । मेरा रोना किस्के लिये था । खुद अपनी फिल्म छूट जाने के लिये । अप्नी बहनो के वन्चित रह जाने के लिये या फिर अप्ने प्रयासो के निश्फल हो जाने पर । यह हमे ना उस समय पता था ना आज है पर्वह बच्ची आज भी हमारे अन्दर जिन्दा है ।
कुछ ऐसे ही माहौल मे हम अपने बचपन में वेल्फेयर सेन्ट्र के मैदान मे फिल्म्स देखा करते थे । वहां तो सिर के ऊपर तम्बू भी नही होत था । ओपेन एयर थियेटर था । दो लोहे के खम्भे स्थायी रूप से गड़े थे । जिस दिन फ़िल्म दिखायी जाने वाली होती थी ,सफेद पर्दा टांग दिया जाता था । वही पास मे एक ऊंचा चबूतरा था। अमूमन तो यह नाट्को और राम्लीला के मन्च के रूप मे प्रयोग किया जाता था पर जिस दिन फिल्म दिखयी जाती थी यह महिलाओं और बच्चों के बैठने के लिये निर्धारित स्थान था । यूंही जमीन पर बिछी दरी पर बैठ कर फिल्म का आनन्द लिया जाता था । चबूतरे के नीचे जमीन पर बिछी दरी पर बाबा,पिताजी और चाचाजी लोग होते थे । भाई लोग तो अपनी अपनी पसन्द की सुविधानुसार सायिकिल स्टैन्ड पर खड़ी कर ,उस पर टिक लिया करते थे । वैसे भी मोहल्ले की सारी लड़्कियों के सामने जमीन पर बैठ्ते अच्छे दिखते क्या वो लोग । हां एक बात और उस दिन सभी भाई लोगो को अपनी अम्मा ,बड़ीऔर छॊटी बहनो पर बड़ा प्यार उमड़्ता था । कभी मूंग्फली , कभी पानी पूछने के लिये चबूतरे के चक्कर लगा करते थे ।
फिल्म जिस दिन दिखायी जानी होती थी दोपहर को वेल्फेयर सेन्टर के नोटिस बोर्ड पर चाक से सूचना लिख दी जाती थी और फिर एक से दूसरे तक सूचना पूरी कोलोनी मे फैल जाती थी । खाना पीना जल्दी निप्टाने की तैयारी होने लगती थी । लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता था कि सूच्ना समय से सब तक पहुंच नही पाती थी । एक बार ऐसा ही हम लोगो के साथ हुआ । हम शायद तीसरी या चौथी क्लास मे पढते होगे । हमे मैदान मे खेलते समय पता लगा कि आज फिल्म दिखायी जानी है और बस शुरू ही होने वाली है । हम गिरते पड़ते घर पहुंचे अपनी बड़ी बहनों को खबर देने ।हमारी दोनो बहने हमसे करीब नौ दस साल बड़ी हैं । पहले से तैयारी नही थी इस्लिये खाना निपटा नही था । गैस तो थी नही कि स्विच बंद किया और उठ लिये । अंगीठी अगर एक बार सुलग गयी तो खाने का काम तो निपटाना ही था । उन लोगो ने कहा तुम चल कर देखो हम लोग आते हैं । हम भाग लिये । पर्दा तन गया प्रोजेक्टर सेट हो गया । हम बार बार पीछे मुड़ कर देखे पर हमारी बहनो का कही अता पता नही । फिल्म शुरु हो गयी । अब मेरा धीरज छूट गया । परदा अपनी तरफ खींच रहा था और मन घर की ओर भाग रहा था । मेरी बहने देख नही पारही हैं यह सोच कर मेरा मन नही लग रहा था । हम एक बार फिर सर्पट घर की ओर दौड़े । उन्होने फिर भेजा वापस कि देखो बस काम खतम ,आ हीरहे है । हम वापस सेन्टर । कुछ देर और हम फिर बेचैन और फिर भागे घर की ओर । इस बार वो लोग घर के दर्वाजे पर ही मिल गयी। इस सब भागा दौड़ी मे तक्रीबन बीस मिनट निकल गये । पर हम बहुत खुश थे कि अब बाकी फिल्म हम साथ साथ देखेगे । लेकिन जब हम वहां पहुचे तो देखते है कि लोग उठने कि तैयारी मे हैं। उस दिन केवल न्युज्रील दिखायी जानी थी । मेरे दुख की कोई सीमा ना थी । मेरा रोना किस्के लिये था । खुद अपनी फिल्म छूट जाने के लिये । अप्नी बहनो के वन्चित रह जाने के लिये या फिर अप्ने प्रयासो के निश्फल हो जाने पर । यह हमे ना उस समय पता था ना आज है पर्वह बच्ची आज भी हमारे अन्दर जिन्दा है ।
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